.. जीवन को देखने के ढंग में दुख है। और अगर यही ढंग ले कर तुम परम जीवन में भी प्रवेश कर गए, तो वहां भी दुख पाओगे। वह ढंग तुम्हारे साथ है। तुम कहां हो यह सवाल नहीं है। तुम जहां भी रहोगे, वह ढंग तुम्हारे साथ रहेगा। तुम जहां भी जाओगे, तुम्हारी आँख तुम्हारे साथ रहेगी। तुम्हें परमात्मा भी मिल जाए, तो तुम उससे भी दुखी होने वाले हो! तुम सुखी हो नहीं सकते, तुम्हारा जो ढंग है उसको बिना बदले। लेकिन ढंग तुम बदलना नहीं चाहते, तुम परिस्थिति बदलने को उत्सुक हो जाते हो। तुम जीवन की निंदा करने में रस लेते हो। खुद गलत हो, यह तुम्हें सोचना मुश्किल हो जाता है।
यह जो निंदकों का एक समूह है, यह जीवन को नुकसान तो पहुंचा देता है, लेकिन परमात्मा की तरफ एक भी कदम बढ़ने में सहायता नहीं कर पाता।
एक बात समझ लेनी जरूरी है कि अगर कोई परम जीवन भी है, तो इस जीवन की ही गहराई का नाम है। अगर कोई पार का जीवन भी है, तो भी इसी जीवन की सीढ़ियों से होकर वह रास्ता जाता है। यह जीवन तुम्हारा दुश्मन नहीं है। यह जीवन तुम्हारा सहयोगी है, साथी है, संगी है। और अगर इस जीवन से तुम्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, तो तुम अपने देखने के ढंग को बदलना। तुम अपने देखने की वृत्ति को बदलना। लेकिन कोई भी आदमी अपने को बदलने को तैयार नहीं! मैं तो इतना चकित होता हूं कि जो लोग कहते भी हैं कि हम स्वयं को बदलने को तैयार हैं, वे भी स्वयं को बदलने को तैयार नहीं होते, कहते ही हैं। उनकी उत्सुकता भी होती है कि सब बदल जाएं और वे न बदलें। क्योंकि खुद को बदलना अहंकार को बड़ी चोट लगती है, बहुत पीडा होती है।
साधना सूत्र
ओशो
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