"आपने कहा कि कृष्ण जन्म से ही
सिद्ध हैं और महावीर साधक हैं। जबकि कश्मीर के शिविर में आपने महावीर के
बारे में कहा कि उन्होंने पिछले जन्मों में ही अपनी सारी साधना पूरी कर ली
थी। इस जन्म में उन्हें कुछ भी साधना नहीं करनी थी, केवल अभिव्यक्ति करनी
थी। तब महावीर भी जन्म से ही सिद्ध हुए, कृष्ण जैसे ही हुए।’
नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा। मैंने इतना ही कहा है कि महावीर जो
भी हुए हैं, वह होकर हुए हैं। चाहे वह पिछले जन्म में साधना की हो, या उससे
जन्म में साधना की हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह जो भी हुए हैं,
साधना से हुए हैं। उनकी सिद्धावस्था के पहले साधना की यात्रा है। कृष्ण
किसी जन्म में कभी भी साधना नहीं किए।
“सीधे पूर्ण हो गए?’
हमें कठिनाई लगती है। हमें कठिनाई लगती है कि सीधे पूर्ण हो
गए? हमें लगता है कि आड़े-तिरछे चलकर ही पूर्ण हो सकते हैं। हमें लगता है…वह
वही फकीर का सवाल, वह फकीर यही तो कह रहा है। उससे आने-जाने वाले लोग कहें
कि अच्छा, तुम यहीं पड़े-पड़े पहुंच गए! हम तीर्थ तक चलकर पहुंचे, तुम यहीं
पड़े पहुंच गए! ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन वह फकीर यह कहता है कि अगर तुम यहीं
पड़े-पड़े नहीं पहुंच सकते, तो ऊपर चढ़कर भी कैसे पहुंच जाओगे! जहां पहुंचना
है, वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए यात्रा जरूरी हो। लेकिन “टाइप’ है
कुछ, जो बिना यात्रा किए नहीं पहुंच सकते।
जिन्हें अपने घर भी आना हो तो
दस-पांच दूसरों के घर के दरवाजे खटखटाए बिना नहीं आ सकते। अपने घर का भी
जिन्हें पता लगाना हो, तो दूसरे से पूछकर ही आ सकते हैं। यह “टाइप’ का फर्क
है। महावीर और कृष्ण के “टाइप’ का फर्क है। महावीर बिना साधना किए
पहुंचेंगे ही नहीं। असल में महावीर राजी भी न होंगे, वह भी समझ लेना चाहिए।
अगर महावीर को कोई कहे कि बिना साधना के यह रखा-रखाया मिलता है, तो
महावीर कहेंगे, क्षमा करें, ऐसा हम न लेंगे, क्योंकि जिसको अर्जित नहीं
किया, उसको ले लेना चोरी है। महावीर कहेंगे कि जिसको अर्जित नहीं किया,
जिसके लिए साधा नहीं, उपाय नहीं किया, उसे ले लेना चोरी है। हम न लेंगे।
अगर महावीर को मोक्ष कोई दान में मिलता हो, ऐसा रास्ते के किनारे पड़ा हुआ
मिलता हो, तो महावीर को जैसा मैं समझता हूं, वह फिर ठुकराकर आगे चले
जाएंगे, वह कहेंगे ऐसा हम न लेंगे। हम तो पाएंगे, अर्जित करेंगे, खोजेंगे।
जिस दिन मिलेगा, उस दिन लेंगे। अधिकारी बनें तो लेंगे। कृष्ण कहेंगे कि
जिसको पाने-खोजने से मिलता हो, उसको पाकर भी क्या करेंगे! क्योंकि जो पाने
से नहीं मिल सकता, वह खो भी सकता है। हम तो उसी को पाएंगे जो पाने-वाने से
नहीं मिलता, जो है ही। यह “टाइप’ का फर्क है। ये व्यक्तित्व-भेद हैं।
इसमें
ऊंचे-नीचे की बात नहीं कह रहा हूं। यह व्यक्तियों के भेद हैं। यह कृष्ण और
महावीर दो तरह के बड़े गहरे व्यक्तित्वों का भेद है। महावीर के लिए वही
सार्थक है जो मिलता है खोज से, उघाड़ा जाता है, श्रम से पाया जाता है। इसलिए
महावीर का नाम ही श्रमण हो गया। और महावीर की पूरी परंपरा का नाम
श्रमण-परंपरा हो गया। महावीर कहते हैं, जो भी मिलेगा वह श्रम से मिलेगा।
श्रम के बिना पाया हुआ सब चोरी है। चाहे परमात्मा भी मिल जाए बिना श्रम के
तो वह कुछ-न-कुछ जालसाजी है, कहीं-न-कहीं धोखाधड़ी है। कहीं-न-कहीं कोई
छल-कपट है। लेकिन महावीर कहते हैं कि हमारा स्वाभिमान नहीं कहता कि बिना
श्रम के हम कुछ पा लें। हम तो मेहनत करेंगे और जितना मिल जाएगा उतने के लिए
राजी होंगे।
इसलिए महावीर की भाषा में, महावीर के भाषाशास्त्र में प्रसाद
और “ग्रेस’ जैसा कोई शब्द नहीं है। प्रयास, श्रम, पुरुषार्थ, साधना,
संघर्ष, ऐसे शब्द हैं। होंगे ही। इसलिए महावीर की पूरी परंपरा श्रमण-परंपरा
है।
हिंदुस्तान में दो परंपराएं हैं–श्रमण और ब्राह्मण। ब्राह्मण-परंपरा का
अर्थ है, जो मानते हैं ब्रह्म हम हैं ही, होना नहीं है। श्रमण-परंपरा का
अर्थ है कि ब्रह्म हमें होना है, हम हैं नहीं। और दो तरह के ही लोग हैं। और
मैं मानता हूं कि ब्राह्मण तरह के लोग बड़े न्यून हैं। ब्राह्मण भी नहीं
हैं। जिनको हम ब्राह्मण समझते हैं, वे भी ब्राह्मण नहीं हैं। क्योंकि इस
बात के लिए हिम्मत जुटाना कि हम बिना पाए पा लेंगे, हम बिना अधिकारी बने
अधिकारी हैं, हम बिना गए पहुंचे हैं, बड़ा मुश्किल है!
साधारण मन कहता है,
पाना ही होगा, श्रम करना ही होगा, कुछ किए बिना कैसे मिलेगा! हमारा सब गणित
कहता है, साधन के बिना साध्य नहीं; श्रम के बिना उपलब्धि नहीं, प्रयास के
बिना पहुंचना कैसा? इसलिए ब्राह्मण तो कभी-कभी दो-चार सदियों में एकाध आदमी
होता है। बाकी सब श्रमण हैं, चाहे वे अपने को जैन श्रमण मानते हों कि न
मानते हों। इसलिए बुद्ध और महावीर के बड़े भेद होते हुए भी दोनों की परंपरा
को श्रमण नाम मिल गया–दोनों की परंपरा को। क्योंकि बुद्ध का भी आग्रह–बिना
पाए नहीं मिलेगा, खोजना पड़ेगा। कृष्ण ब्राह्मण हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म हम
हैं ही।
और मैं किसी एक को गलत और दूसरे को सही नहीं कह रहा हूं, यह ध्यान में
रखना। क्योंकि मुझे दोनों की ठीक दिखाई पड़ते हैं। उसमें कुछ बहुत कठिनाई
नहीं है। ये दो तरह के सोचने के ढंग, दो तरह के व्यक्तित्व, दो तरह के
चित्त, उनकी यात्राएं हैं।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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