एक मित्र को मैं जानता हूं; उनको दो हालत में मैंने देखा। एक बार
उनके गांव गया था तो वे अपना मकान बना रहे थे। संयोग की बात थी, उनके घर के सामने से निकल गया तो मैं रुक गया। वे छाता लगाए हुए, धूप थी तेज, मकान बनवा रहे थे। कहने लगे, बड़ी मुसीबत है; लेकिन क्या करें, बच्चे हैं, उनके लिए करना पड़ रहा है। और बन जाए एक
दफा मकान तो मैं इस झंझट से छूट जाऊं। ये बच्चे-पत्नी इसमें रहें, और मेरा मन तो त्याग की तरफ झुकता जा रहा है। सुना मैंने; क्योंकि कुछ कहने की बात भी नहीं थी।
दस वर्ष बाद उन्होंने घर छोड़ दिया; वे संन्यासी हो गए। फिर मैं उस गांव से
निकला, जहां वे आश्रम बना रहे थे। वही आदमी छाता
लिए खड़ा था; आश्रम बन रहा था। वे कहने लगे, क्या करूं--उन्हें खयाल भी नहीं रहा कि दस साल पहले यही बात उन्होंने मुझसे तब
भी कही थी--क्या करूं, अब ये शिष्य, और यह सब समूह इकट्ठा हो गया है; इनके पीछे यह उपद्रव करना पड़ रहा है। यह
आश्रम बन जाए तो छुटकारा हो जाए।
मैंने उनसे कहा कि दस साल पहले घर बना रहे थे,
तब सोचते थे यह
बन जाए तो छुटकारा हो जाए; अब आश्रम बना रहे, हो सोचते हो यह बन जाए तो छुटकारा हो जाए। आगे क्या बनाने का इरादा है? बनाओगे तुम जरूर, और यही छाता लिए तुम खड़े रहोगे धूप में।
और फर्क क्या पड़ गया कि मकान बन रहा था बच्चों के लिए, और आश्रम बन रहा है शिष्यों के लिए; फर्क क्या पड़ गया? और मुक्त होना था तो मकान बना कर भी हो सकते थे। और मुक्त नहीं होना है तो
आश्रम बना कर भी नहीं हो सकते।
आदमी सोचता है दूसरे बांधे हुए हैं, कोई और पकड़े हुए है। नहीं, कोई और पकड़े हुए नहीं है। हम ही अपने को पकड़े हुए हैं। और अपने को बचाने के
लिए औरों को पकड़े हुए हैं। क्योंकि उनकी कतार हमारे चारों तरफ हो, तो हम सुरक्षित मालूम होते हैं। लगता है कि कोई भय नहीं है; कोई साथी है, संगी है,
मित्र हैं, प्रियजन हैं। लेकिन आदमी बचा अपने को रहा है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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