पूछा जाता है कि क्या दिव्य-दृष्टि घबड़ाने वाली होती है? जैसा
अर्जुन घबड़ा गया था। घबड़ाने वाली हो सकती है। अगर पूर्व तैयारी न हो, तो
अचानक पड़ा हुआ सुख भी घबड़ा जाता है। लाटरी मिल जाए तो पता चलता है। गरीबी
बहुत कम लोगों की जान ले पाती है, अमीरी एकदम से टूट पड़े तो आदमी मर ही
जाए।
मैं एक कहानी निरंतर कहता रहता हूं कि एक आदमी को लाटरी मिल गई। उसकी
पत्नी बहुत घबड़ाई, क्योंकि एकदम पांच लाख रुपये मिल गए थे। वह बहुत डरी और
उसने सोचा कि पति तो अभी दफ्तर गया है–वह किसी दफ्तर में क्लर्क है–वह
लौटेगा, पांच रुपये भी मुश्किल से मिलते हैं, पांच लाख! पता नहीं झेल पाएगा
कि नहीं झेल पाएगा। तो पास में चर्च था, वहां गई और पादरी से कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं, पति लौटते होंगे और आते से ही एक बड़ी खतरनाक
खबर देनी है कि पांच लाख की लाटरी मिल गई है। कहीं ऐसा न हो कि उनके हृदय
पर आघात ज्यादा पड़ जाए। उस पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, मैं आ जाता हूं।
पादरी आकर बैठ गया। उसकी पत्नी ने कहा कि करेंगे क्या? उसने कहा कि इस
सुख को “इंस्टालमेंट’ में देना पड़ेगा, टुकड़ों में देना पड़ेगा। आने दो पति
को। मैंने योजना बना रखी है। पति आया तो उसने कहा कि तुम्हें पता है, पचास
हजार रुपये तुम्हें लाटरी में मिले हैं? सोचा कि पहले पचास हजार। जब पचास
हजार सह लेगा तो कहेंगे, नहीं, लाख। जब लाख भी सह जाएगा, देखेंगे नहीं मरता
है, तो डेढ़ लाख, ऐसा बढ़ेंगे। लेकिन उस क्लर्क ने कहा कि पचास हजार मिल गए
हैं! सच कहते हैं? अगर पचास हजार मिल गए हैं तो पच्चीस हजार तुम्हें चर्च
को देता हूं। हार्ट फेल हो गया पादरी का। पच्चीस हजार, उसने कहा! क्या कह
रहे हो? पच्चीस हजार इकट्ठे पड़ गए उस पर।
अर्जुन पर जो घटना घटी, वह बहुत आकस्मिक थी। सारिपुत्त या मौगल्लान पर
जो घटना घटी, वह आकस्मिक नहीं थी। उसकी बड़ी पूर्व तैयारियां थीं। जो लोग
ध्यान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं, उनके लिए दिव्यता का अनुभव कभी भी
घबड़ाने वाला नहीं होगा। लेकिन जिन लोगों ने ध्यान की दिशा में कोई यात्रा
नहीं की है, उनके लिए दिव्यता का प्राथमिक अनुभव बहुत घबड़ाने वाला, बहुत
“शैटरिंग’। क्योंकि इतना आकस्मिक है और इतना आनंदपूर्ण है कि दोनों बातों
को ही सहना मुश्किल हो जाता है।
इतना आकस्मिक है, इतना आनंदपूर्ण है कि
हृदय की धड़कन रुक सकती है, ठहर सकती है, प्राण अकुला जा सकते हैं। दुख कभी
इतना नहीं घबड़ाता, क्योंकि दुख की हमारी आदत होती है, सदा तैयारी होती है।
दुख तो रोज ही हम भोगते हैं। सुबह से सांझ तक दुख में ही जीते हैं। दुख ही
दुख में पलते हैं और बड़े होते हैं। दुख हमारा ढंग है जीने का। इसलिए
बड़े-से-बड़े दुख आ जाएं तो भी हम दो-चार दिन में निपट जाते हैं, फिर अपनी
जगह लौट आते हैं। लेकिन सुख हमारे जीवन का ढंग नहीं है।
अगर छोटा-सा भी सुख
आ जाए, तो रात की नींद हराम हो जाती है। चैन खो जाती है। और अर्जुन पर जो
सुख उतरा, वह साधारण सुख न था, वह आनंद था। और एक क्षण में उतर आया था,
उसकी “इंटेंसिटी’ बहुत थी। वह घबड़ा गया और चिल्लाने लगा कि बंद करो, वापिस
लो। मेरी सामर्थ्य के बाहर है यह देखना। स्वाभाविक था यह, यह बिलकुल
स्वाभाविक है। बहुत मजे की बात है, लेकिन ऐसा ही है।
दुनिया में इतने शक्तिशाली लोग तो बहुत हैं जो बड़े-से-बड़े दुख को झेल
लें, इतने शक्तिशाली लोग बहुत कम हैं जो बड़े सुख को झेल लें। प्रार्थनाएं
हम सुख के लिए करते हैं, लेकिन अगर एकदम से मिल जाए तो पता चले, कि हम
चिल्लाएं कि बस बंद करो, यह नहीं सहा जा सकेगा, इसे वापिस लौटा लो।
इसलिए
भगवान भी “इंस्टालमेंट’ में सुख देता है। क्षण-क्षण, धीरे-धीरे,
मुश्किल-मुश्किल से; बहुत रोओ, बहुत चिल्लाओ, बहुत मांगो, धीरे-धीरे। और जब
कभी आकस्मिक घट जाती है घटना, बड़ी तीव्रता के किसी क्षण में, तो घबराने
वाली होती है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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