जो हमारे भीतर है, वह भी बाहर का हिस्सा है। अभी मेरे भीतर एक श्वास है।
थोड़ी देर पहले आपके पास थी, आपकी थी। और थोड़ी देर पहले किसी वृक्ष के पास
थी, वृक्ष की थी। और थोड़ी देर पहले कहीं और थी। अभी मेरे भीतर है। मैं कह
भी नहीं पाया कि मेरे भीतर है, कि गई बाहर।
जो हमारे भीतर है, उसको अगर हम बाहर के प्राण-जगत में समर्पित कर दें,
जानें कि वह भी दे दी बाहर को, तो भीतर कुछ बच नहीं रह जाता। सब शून्य हो
जाता है। एक समर्पण यह है। भीतर की श्वास को, वह जो बाहर विराट प्राण का
जाल फैला है वायुमंडल में, उसमें समर्पित कर दें, उसमें होम दे दें, उसमें
चढ़ा दें। या इससे उलटा भी कर सकते हैं। वह जो बाहर का सारा प्राण-जगत है,
वह भी तो मेरे भीतर का ही हिस्सा है बाहर फैला हुआ। अगर हम उस बाहर के
प्राण-जगत को इस भीतर के प्राण-जगत को समर्पित कर दें, तो भी एक ही घटना घट
जाती है। बूंद सागर में गिर जाए, कि सागर बूंद में गिर जाए।
बूंद का सागर में गिरना तो हमारी समझ में आता है, क्योंकि हमने सागर में
बूंद को गिरते देखा है। सागर का बूंद में गिरना हमारी समझ में नहीं आता।
लेकिन अगर आइंस्टीन के संबंध में कुछ भी खयाल हो, तो समझ आ में सकता है।
जब एक बूंद सागर में गिरती है, तो यह बिलकुल रिलेटिव बात है, यह बिलकुल
सापेक्ष बात है। आप चाहें तो कह सकते हैं कि बूंद सागर में गिरी; और आप
चाहें तो कह सकते हैं कि सागर बूंद में गिरा। आप कहेंगे, कैसी बात है यह!
मैं पूना आया। तो मैं कहता हूं, मैं पूना आया, ट्रेन बंबई से मुझे पूना
तक लाई। आइंस्टीन कहते हैं कि यह सापेक्ष है, यह कामचलाऊ बात है। इससे उलटा
भी कह सकते हैं कि ट्रेन मेरे पास पूना को लाई। ऐसा भी कह सकते हैं कि
ट्रेन मुझे पूना तक लाई; ऐसा भी कह सकते हैं कि ट्रेन पूना को मुझ तक लाई।
इन दोनों में कोई बहुत फर्क नहीं है।
लेकिन हम छोटे-छोटे हैं, तो ऐसा कहना अजीब-सा लगेगा कि ट्रेन पूना को
मुझ तक लाई; यही कहना ठीक मालूम पड़ता है कि मुझे ट्रेन पूना तक लाई। लेकिन
दोनों बातें कही जा सकती हैं। कोई अंतर नहीं है। ट्रेन जो काम कर रही है,
वे दोनों ही बातें कही जा सकती हैं।
तो या तो हम भीतर के प्राण को बहिप्र्राण पर समर्पित कर दें, बूंद को
सागर में गिरा दें। या हम सागर को बूंद में गिरा लें, या हम बाहर के समस्त
प्राण को भीतर गिरा लें। दोनों ही तरह हवन पूरा हो जाता है। दोनों ही तरह
यज्ञ पूरा हो जाता है।
गीता दर्शन
ओशो
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