एक सम्राट चक्रवर्ती हो गया था। चक्रवर्ती का मतलब कि वह सारी पृथ्वी का
मालिक हो गया था। ऐसा मुश्किल से ही कभी होता है। चक्रवर्तियों को एक, एक
विशेषता उपलब्ध होती थी जो कि किसी को उपलब्ध नहीं होती थी। कथा है पुरानी।
चक्रवर्तियों को एक सौभाग्य मिलता था जो किसी को नहीं मिलता था। और वह यह
था कि सुमेरु पर्वत पर, स्वर्ग में जो पर्वत है, उस पर्वत पर उनको
हस्ताक्षर करने का मौका मिलता था। यह मौका सबको नहीं मिलता था। कभी कोई
चक्रवर्ती होता है अनंतकाल में, कि सारी पृथ्वी को जीत लेता है तब उसे
सुमेरु पर्वत पर हस्ताक्षर करने का मौका मिलता है। वह जो सुमेरु पर्वत है,
वह सबसे अडिग चट्टान है सारे जगत में।
एक व्यक्ति चक्रवर्ती हो गया, वह बहुत खुश हुआ। यह सौभाग्य उसको मिला कि अब वह सुमेरु पर्वत पर जाकर हस्ताक्षर करेगा। वह बड़े ठाट बाट से, बड़े फौज फांटे लेकर स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया। द्वारपाल ने उससे कहा कि आप आ गए? लेकिन यह भीड़ भाड़ भीतर नहीं जा सकेगी। आपको अकेला ही जाना पड़ेगा। और साथ में आप कुछ हथौड़ी वगैरह नाम खोदने के लिए कोई सामान ले आए हैं? उसने कहा मैं सामान ले आया हूं।
तो उसने कहा कि पहले तो आपको यह करना पड़ेगा, सुमेरु पर्वत अनंत पर्वत है, लेकिन इतने चक्रवर्ती हो गए कि अब उस पर दस्तखत करने को जगह ही नहीं बची। तो आपको पहले तो किसी का नाम मिटाना पड़ेगा, फिर दस्तखत करने पड़ेंगे, क्योंकि जगह नहीं बची है, सारा पर्वत भर गया है, अंदर गया। पर्वत था अनंत। कई हिमालय समा जाएं उसकी उप चोटियों में, और उस पर इंच भर जगह न बची थी। उसने तो सोचा था अनंतकाल में एकाध चक्रवर्ती होता है, लेकिन उसे पता ही नहीं था कि कितना काल अनंत हो चुका है कि अनंतकाल में भी एक चक्रवर्ती हो तो भी पर्वत भर गया है; उधर कोई जगह नहीं है। वह बड़ा उदास और हैरान हो गया। पहरेदार कहने लगा आप उदास न हों। मेरे पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे। हम हमेशा पीढ़ी दर पीढ़ी यही सुनते आए हैं कि जब भी दस्तखत करने पड़ते हैं, जगह मिटा कर ही करने पड़ते हैं। कभी जगह खाली नहीं मिलती।
चक्रवर्ती वापस लौटने लगा। उसने कहा कि जब नाम मिटा कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं तो पागलपन है। क्योंकि मैं करके गया और कल कोई दूसरा आकर मिटा कर कर देगा, और जहां पहाड़ इतना बड़ा है और इतने नाम हैं, पढ़ता कौन होगा? और मतलब क्या रहा? मुझे क्षमा कर दो, मैं भूल में पड़ गया हूं। बात व्यर्थ हो गई है।
लेकिन इतने समझदार लोग कम होते हैं। पत्थर पर नाम लिखवाते हैं, मंदिर पर नाम लिखवाते हैं, स्मारक बनवाते हैं, नाम लिखवाते हैं और भूल ही जाते हैं कि बिना नाम के पैदा हुए थे। नाम कोई अपना था नहीं। तो पत्थर खराब किया अलग, मेहनत करवाई सो अलग और विदा होते हैं तब अनाम विदा होते हैं। अपना कोई नाम नहीं था।
‘नाम’ है बाहर के जगत से दिखने वाला भ्रम और ‘मैं’ है भीतर की तरफ से दिखने वाला भ्रम।’मैं’ और ‘नाम’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’नाम’ दिखता है बाहर की तरफ से, ‘मैं’ दिखता है भीतर की तरफ से। और जब तक यह नाम और मैं का भ्रम शेष रहता है तब तक वह गांठ नहीं खुलती है जिससे प्रेम उत्पन्न होता है।
तो अंतिम बात मुझे यह कहनी है कि थोड़ा खोजें, थोड़ा सुमेरु पर्वत पर जाएं और देखें कि कितने हस्ताक्षर हो गए हैं। आपको भी करने हैं जमीन मिटा कर? थोड़ा पहाड़ों के किनारे जाएं और उनको रेत बनते देखें। थोड़ा समुद्रों के किनारे बच्चों को दस्तखत करते देखें। चारों तरफ अपने को देखें कि हम क्या कर रहे हैं। हम कहीं रेत पर हस्ताक्षर करने में जीवन व्यय तो नहीं कर रहे हैं? और अगर ऐसा लगे तो थोड़ी खोजबीन करें, इस ‘मैं’ के भीतर घुसे और खोजें और खोजें। एक दिन आप पाएंगे कि ‘मैं’ नोबडी है। वहां कोई भी नहीं है। वहां एक गहरा सन्नाटा और शांति है। वहां कोई भी ‘मैं’ नहीं है। और जिस दिन यह पता चल जाता है कि भीतर कोई ‘मैं’ नहीं है, उसी दिन सबका पता चल जाता है, जो है, जो वस्तुत: है जो अस्तित्व है, जो आत्मा है, जो परमात्मा है।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
एक व्यक्ति चक्रवर्ती हो गया, वह बहुत खुश हुआ। यह सौभाग्य उसको मिला कि अब वह सुमेरु पर्वत पर जाकर हस्ताक्षर करेगा। वह बड़े ठाट बाट से, बड़े फौज फांटे लेकर स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया। द्वारपाल ने उससे कहा कि आप आ गए? लेकिन यह भीड़ भाड़ भीतर नहीं जा सकेगी। आपको अकेला ही जाना पड़ेगा। और साथ में आप कुछ हथौड़ी वगैरह नाम खोदने के लिए कोई सामान ले आए हैं? उसने कहा मैं सामान ले आया हूं।
तो उसने कहा कि पहले तो आपको यह करना पड़ेगा, सुमेरु पर्वत अनंत पर्वत है, लेकिन इतने चक्रवर्ती हो गए कि अब उस पर दस्तखत करने को जगह ही नहीं बची। तो आपको पहले तो किसी का नाम मिटाना पड़ेगा, फिर दस्तखत करने पड़ेंगे, क्योंकि जगह नहीं बची है, सारा पर्वत भर गया है, अंदर गया। पर्वत था अनंत। कई हिमालय समा जाएं उसकी उप चोटियों में, और उस पर इंच भर जगह न बची थी। उसने तो सोचा था अनंतकाल में एकाध चक्रवर्ती होता है, लेकिन उसे पता ही नहीं था कि कितना काल अनंत हो चुका है कि अनंतकाल में भी एक चक्रवर्ती हो तो भी पर्वत भर गया है; उधर कोई जगह नहीं है। वह बड़ा उदास और हैरान हो गया। पहरेदार कहने लगा आप उदास न हों। मेरे पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे। हम हमेशा पीढ़ी दर पीढ़ी यही सुनते आए हैं कि जब भी दस्तखत करने पड़ते हैं, जगह मिटा कर ही करने पड़ते हैं। कभी जगह खाली नहीं मिलती।
चक्रवर्ती वापस लौटने लगा। उसने कहा कि जब नाम मिटा कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं तो पागलपन है। क्योंकि मैं करके गया और कल कोई दूसरा आकर मिटा कर कर देगा, और जहां पहाड़ इतना बड़ा है और इतने नाम हैं, पढ़ता कौन होगा? और मतलब क्या रहा? मुझे क्षमा कर दो, मैं भूल में पड़ गया हूं। बात व्यर्थ हो गई है।
लेकिन इतने समझदार लोग कम होते हैं। पत्थर पर नाम लिखवाते हैं, मंदिर पर नाम लिखवाते हैं, स्मारक बनवाते हैं, नाम लिखवाते हैं और भूल ही जाते हैं कि बिना नाम के पैदा हुए थे। नाम कोई अपना था नहीं। तो पत्थर खराब किया अलग, मेहनत करवाई सो अलग और विदा होते हैं तब अनाम विदा होते हैं। अपना कोई नाम नहीं था।
‘नाम’ है बाहर के जगत से दिखने वाला भ्रम और ‘मैं’ है भीतर की तरफ से दिखने वाला भ्रम।’मैं’ और ‘नाम’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’नाम’ दिखता है बाहर की तरफ से, ‘मैं’ दिखता है भीतर की तरफ से। और जब तक यह नाम और मैं का भ्रम शेष रहता है तब तक वह गांठ नहीं खुलती है जिससे प्रेम उत्पन्न होता है।
तो अंतिम बात मुझे यह कहनी है कि थोड़ा खोजें, थोड़ा सुमेरु पर्वत पर जाएं और देखें कि कितने हस्ताक्षर हो गए हैं। आपको भी करने हैं जमीन मिटा कर? थोड़ा पहाड़ों के किनारे जाएं और उनको रेत बनते देखें। थोड़ा समुद्रों के किनारे बच्चों को दस्तखत करते देखें। चारों तरफ अपने को देखें कि हम क्या कर रहे हैं। हम कहीं रेत पर हस्ताक्षर करने में जीवन व्यय तो नहीं कर रहे हैं? और अगर ऐसा लगे तो थोड़ी खोजबीन करें, इस ‘मैं’ के भीतर घुसे और खोजें और खोजें। एक दिन आप पाएंगे कि ‘मैं’ नोबडी है। वहां कोई भी नहीं है। वहां एक गहरा सन्नाटा और शांति है। वहां कोई भी ‘मैं’ नहीं है। और जिस दिन यह पता चल जाता है कि भीतर कोई ‘मैं’ नहीं है, उसी दिन सबका पता चल जाता है, जो है, जो वस्तुत: है जो अस्तित्व है, जो आत्मा है, जो परमात्मा है।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
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