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Wednesday, September 2, 2015

हम तो देह धरे जग नाचबू भेद न पाई कोई

जनक के पास एक संन्यासी गया। पूछने गया था। उसके गुरु ने भेजा था कि जाकर ब्रह्मज्ञान ले आ। मन में बहुत सकूचाया भी, सोचा भी कि सम्राट के पास क्या ब्रह्मज्ञान होगा ‘लेकिन गुरु कहते हैं तो गया। देखा तो और भी चौंका। वहां तो महफिल जमी थी। शराब के दौर चल रहे थे, नर्तकियां नाच रही थीं। सम्राट मस्त बीच में बैठा था। संन्यासी के तो हाथ—पैर कंप गये। वह तो तत्क्षण भागना चाहता था लेकिन जनक ने कहा, जब आ ही गये तो रुको। कम से कम रात तो विश्राम करो। फिर तुम जो पूछने आये हो, वह बिना पूछे जाओ मत। सुबह उठकर पूछ लेना।

दूर जंगल से थका मादा आया था तो सो गया। सुंदर बिस्तर ,सुंदरतम, जीवन में देखा भी नहीं था ऐसा। दिन भर का थका मादा भी था, खूब गहरी नींद आनी थी मगर नींद आयी ही नहीं। सुबह सम्राट ने पूछा कि कोई अड़चन तो नहीं हुई? नींद तो ठीक आयी? उसने कहा, नींद कैसे आये.? नींद आती कैसे? आपने भी खूब मजाक की। इतना सुंदर भवन, इतना सुंदर बिस्तर, इतना सुंदर भोजन। मैं थका—माँदा भी बहुत। गहरी नींद आनी ही थी। रोज आती है मगर आज नहीं आ सकी। यह आपने क्या मजाक किया? जब मैं सोया बिस्तर पर और मैंने ऊपर आंख की तो देखा एक नंगी तलवार कच्चे धागे से लटकी है। रात भर यही सोचता रहा कि पता नहीं यह तलवार कब गिर जाये, कब प्राण ले ले। डर के मारे नींद न लगी। सो नहीं पाया। पलक नहीं झपी।

सम्राट ने कहा, मेरी तरफ देखो। यह मेरा उत्तर है। मौत की तलवार मेरे उपर भी लटकी है। और मौत का मुझे प्रतिक्षण स्मरण है इसलिए नर्तकियां नाचे, शराब का दौर चले, स्वर्णमहल हों, वैभवविलास हो, सब ठीक लेकिन तलवार ऊपर लटकी है। वह तलवार मुझे भूलती नहीं। तुम जैसे सो नहीं पाये ऐसे ही मैं भी मूर्च्‍छित नहीं हो पाता हूं। मेरा होश जगा रहता है। ध्यान सधा रहता है।

तो देखकर मत लौट जाओ। बाहर से तुम देखकर लौट जाओगे, भूल हो जायेगी। मैं बैठा था वहां, फिर भी वहां था नहीं। दौर चलता था तो चलता था। मेरी मौजूदगी सिर्फ ऊपर—ऊपर थी। भीतर से मैं वहां मौजूद न था। भीतर से मैं कोसों दूर था। जैसे रात भर तुम बिस्तर पर थे और बिस्तर पर नहीं थे, सोने का सब आयोजन था और सो न पाये ऐसे ही भोग का सब आयोजन है और भोग नहीं है। मैं अलिप्त हूं। मैं दूर दूर हूं। मैं जल में कमलवत हूं। पानी से घिरा हूं लेकिन पानी की बूंद मुझे छूती नहीं है

लेकिन क्या तुम सोचते हो यही स्थिति बाकी दरबारियों की भी थी? तो तुम गलती में पड़ जाओगे। हालांकि दरबारी भी वही कर रहे थे जो सम्राट कर रहा था। ऊपर ऊपर दोनों एक जैसे थे, भीतर भीतर बड़ा भेद था।

जगजीवन से मैं राजी हूं। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो इस विचार को।

हम तो देह धरे जग नाचबू भेद न पाई कोई

हम तो नाच रहे हैं देह धरे। देह तो हमें वस्त्रों जैसी हो गई है। हम बसे हैं देह में। हम मालिक हैं देह के। हम देह नहीं हैं।

और अब हमें इस संसार में कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता, सब अभेद हो गया है। मिट्टी और सोना एक जैसा है।

 नाम सुमिरन मन बावरे

ओशो 

 

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