मनुष्य नकलची है। चार्ल्स डार्विन ठीक ही कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ
है। और चाहे कारण ठीक हों या न हों, मगर एक मनोवैज्ञानिक कारण तो ठीक
मालूम पड़ता ही है कि आदमी बंदरों जैसा ही नकलची है। शायद बंदर भी सीख लेते
हों कुछ, आदमी नहीं सीखता। आदमी बस नकल ही करता है।
ढाई हजार साल बीत गये महावीर को, अब भी कुछ लोग उसी नकल में नग्न हो जाते हैं। न तो उनमें महावीर की सुगंध मालूम होती है, न सौंदर्य मालूम होता है?, न महावीर की महिमा, न प्रसाद; कुछ भी नहीं। बस नंगे खड़े हैं। तो नंगे तो बहुत आदिवासी हैं। नग्न होने से अगर कोई तीर्थंकर होता हो, नग्न होने से अगर कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता हो तो सारे आदिवासी कभी के हो गये होते। यह नग्नता सिर्फ नकल है।
महावीर ने उपवास किये-किये कहना ठीक नहीं, हुए। ऐसे रस विभोर हो जाते थे अंतर्लोक में कि भूल ही जाते भोजन की बात। दिन आते, चले जाते, सुबह होती, सांझ होती, उनकी डुबकी लगी रहती समाधि में। लोगों ने देखा, महावीर उपवास करते हैं। उपवास हो रहे थे, लोगों ने देखा, उपवास करते हैं। लोग तो यही देखेंगे जो बाहर से दिखाई पड़ेगा।
और बाहर से केवल लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाहर से भीतर का अंतस्तल दिखाई नहीं पड़ सकता। महावीर का अंतस्तल कोन देखेगा? जो महावीर जैसा हो जाये। बुद्ध का अतस्तल कोन देखेगा? जो बुद्ध जैसा हो जाये। बाहर से लक्षण दिखाई पड़ते है।
इसलिए यह आज का पहला सूत्र कोहिनूर जैसा है। इतनी साफ साफ सीधी सीधी बात इस तरह कभी नहीं कही गई थी।
हमारा देखि करै नहिं कोई
जगजीवन कहते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा तुम मत करना। हमारा देखकर करोगे, मुश्किल में पड़ोगे।
जो कोई देख हमारा करिहै, अंत फजीहति होई
सिर्फ फजीहत होगी, और कुछ भी न पाओगे।
जस हम चले चले नहिं कोई, करी सो करै न सोई
जैसे हम चलते हैं वैसे मत चलना। जैसा हम करते हैं वैसा मत करना। क्योंकि जो हमें हो रहा है, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह केवल बाह्य लक्षण है। जड़ें भीतर हैं, फूल बाहर आये हैं। तुम फूलों को बिना जड़ों के न ला सकोगे। और अगर ले आये तो बाजार से खरीदे गये कागजी फूल होंगे। उपर से चिपका लेना, मगर कागजी, कागजी फूल हैं। इनसे न कोई महावीर बनेगा है न बुद्ध न मुंहम्मद, न कृष्ण न क्राइस्ट। इससे सिर्फ झूठे, थोथे, पाखंडी पैदा होते हैं।
पहले भीतर की जड़ें पैदा करो, पहले बीज बोओ। लेकिन लोग जल्दी में हैं। लोग कहते हैं, बीज बोए, फिर प्रतीक्षा करें, फिर वर्षा के बादल जब आयेंगे तब आयेंगे, फिर वर्षा होगी; इतनी लंबी कोन प्रतीक्षा करे? फूल बाजार में मिलते हैं, हम ऊपर से क्यों न चिपका लें?
आचरण से बचना। अंतःकरण से क्रांति होती हैं। अंतःकरण में जड़ें हैं। आचरण ना केवल अंतःकरण में जो होता है, उसको बाहर तक लाता है। लेकिन लोग आचरण के पीछे ही चलते हैं। और जो स्वयं आचरण के पीछे चलते हैं वे दूसरों को भी समझाते हैं कि हम जैसा करते हैं वैसा करो। हमारे आचरण का अनुसरण करो।
नाम सुमिरन बावरे
ओशो
ढाई हजार साल बीत गये महावीर को, अब भी कुछ लोग उसी नकल में नग्न हो जाते हैं। न तो उनमें महावीर की सुगंध मालूम होती है, न सौंदर्य मालूम होता है?, न महावीर की महिमा, न प्रसाद; कुछ भी नहीं। बस नंगे खड़े हैं। तो नंगे तो बहुत आदिवासी हैं। नग्न होने से अगर कोई तीर्थंकर होता हो, नग्न होने से अगर कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता हो तो सारे आदिवासी कभी के हो गये होते। यह नग्नता सिर्फ नकल है।
महावीर ने उपवास किये-किये कहना ठीक नहीं, हुए। ऐसे रस विभोर हो जाते थे अंतर्लोक में कि भूल ही जाते भोजन की बात। दिन आते, चले जाते, सुबह होती, सांझ होती, उनकी डुबकी लगी रहती समाधि में। लोगों ने देखा, महावीर उपवास करते हैं। उपवास हो रहे थे, लोगों ने देखा, उपवास करते हैं। लोग तो यही देखेंगे जो बाहर से दिखाई पड़ेगा।
और बाहर से केवल लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाहर से भीतर का अंतस्तल दिखाई नहीं पड़ सकता। महावीर का अंतस्तल कोन देखेगा? जो महावीर जैसा हो जाये। बुद्ध का अतस्तल कोन देखेगा? जो बुद्ध जैसा हो जाये। बाहर से लक्षण दिखाई पड़ते है।
इसलिए यह आज का पहला सूत्र कोहिनूर जैसा है। इतनी साफ साफ सीधी सीधी बात इस तरह कभी नहीं कही गई थी।
हमारा देखि करै नहिं कोई
जगजीवन कहते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा तुम मत करना। हमारा देखकर करोगे, मुश्किल में पड़ोगे।
जो कोई देख हमारा करिहै, अंत फजीहति होई
सिर्फ फजीहत होगी, और कुछ भी न पाओगे।
जस हम चले चले नहिं कोई, करी सो करै न सोई
जैसे हम चलते हैं वैसे मत चलना। जैसा हम करते हैं वैसा मत करना। क्योंकि जो हमें हो रहा है, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह केवल बाह्य लक्षण है। जड़ें भीतर हैं, फूल बाहर आये हैं। तुम फूलों को बिना जड़ों के न ला सकोगे। और अगर ले आये तो बाजार से खरीदे गये कागजी फूल होंगे। उपर से चिपका लेना, मगर कागजी, कागजी फूल हैं। इनसे न कोई महावीर बनेगा है न बुद्ध न मुंहम्मद, न कृष्ण न क्राइस्ट। इससे सिर्फ झूठे, थोथे, पाखंडी पैदा होते हैं।
पहले भीतर की जड़ें पैदा करो, पहले बीज बोओ। लेकिन लोग जल्दी में हैं। लोग कहते हैं, बीज बोए, फिर प्रतीक्षा करें, फिर वर्षा के बादल जब आयेंगे तब आयेंगे, फिर वर्षा होगी; इतनी लंबी कोन प्रतीक्षा करे? फूल बाजार में मिलते हैं, हम ऊपर से क्यों न चिपका लें?
आचरण से बचना। अंतःकरण से क्रांति होती हैं। अंतःकरण में जड़ें हैं। आचरण ना केवल अंतःकरण में जो होता है, उसको बाहर तक लाता है। लेकिन लोग आचरण के पीछे ही चलते हैं। और जो स्वयं आचरण के पीछे चलते हैं वे दूसरों को भी समझाते हैं कि हम जैसा करते हैं वैसा करो। हमारे आचरण का अनुसरण करो।
नाम सुमिरन बावरे
ओशो
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