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Wednesday, September 2, 2015

मिट्टी पर मिट्टी

महाराष्ट्र में राका बांका की बड़ी प्यारी कहानी है। एक फकीर हुआ राका -त्यागी। सब छोड़ दिया। संपत्ति थी बहुत, सब लात मार दी। पत्नी भी उसके साथ हो ली। पत्नियां इतनी आसानी से साथ नहीं हो जातीं क्योंकि स्त्री का मोह पृथ्वी पर बहुत है। स्त्री पृथ्वी का रूप है; घर, जायदाद, मकान। इसलिए देखते हो न! पुरूष कमाता है धन, खरीदता है मकान लेकिन स्त्री कहलाती है घरवाली। पुरुष को कोई घरवाला नहीं कहता। उनकी कोई गिनती ही नहीं। कमाये वह, खून पसीना हो, मकान खरीदे, मगर खरीदते ही से स्त्री का हो जाता है घरवाली। स्त्री की पकड़ स्थूल पर गहरी है।.

तो राका थोड़ा चिंतित था कि पत्नी साथ जायेगी कि नहीं, लेकिन बड़ा हैरान हुआ। पत्नी ने तो एक बार भी इन्कार नहीं किया। जब सब लूटा रहा था धन दौलत तो पत्नी खड़ी देखती रही। जब चला तो वह भी पीछे हो ली। उसने पूछा, तू भी आती है?उसने कहा, मैं भी आती हूं। यह झंझट मिटी, अच्छा हुआ। उपद्रव ही था व्यर्थ का।
राका को तो भरोसा ही न आया। उसने तो कभी सोचा ही न था। कोई पति नहीं सोचता कि उसकी पत्नी और कभी इतनी ज्ञानवान होगी। दोनों फिर जगल से लकड़ी काटते, बेच देते, उसी से भोजन मिल जाता, काम चला लेते।

एक दिन बेमौसम तीन दिन तक पानी गिर गया तो लकड़ी काटने जा न पाये.। तीनों दिन भूखे रहना पड़ा। चौथे दिन थके मांदे, भूखे प्यासे लकड़ी काटने गये। काटकर लौटते थे, राका आगे था। उसने देखा कि रास्ते के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी थैली गिर गई है। कोई घुड़सवार घोड़े के टाप के निशान है। अभी धूल भी हवा में है। अभी अभी गुजरा होगा। उसकी स्वर्ण अशर्फियों की थैली गिर गई है।

राका के मन में हुआ कि मैं तो त्यागी हूं। मैंने तो जान बुझकर त्यागा है, सोच  समझकर त्यागा है। मेरी पत्नी तो सिर्फ मेरे पीछे चली आयी है शायद मोहवश। शायद पति को नहीं छोड़ सकी है। शायद मेरे कारण। शायद अब और कोई उपाय नहीं है। शायद अकेली नहीं रह सकी है। पता नहीं किस कारण मेरे साथ चली आयी है। कहीं उसका मन लोभ में न आ जाये। स्त्री स्त्री है। कहीं मन पकडने का न हो जाये। और इतनी अशर्फियां। फिर तीन दिन के हम भूखे भी हैं। सोचने लगे कि इनको बचाकर रख लो। कभी पानी गिरे, अड़चन हो, लकड़ियां न काटी जा सके, बीमारी आ जाये  तो काम पड़ेगी। तो इसे जल्दी से छिपा दू।

तो उसने पास के ही एक गड्ढे में सारी अशर्फियों को डालकर उस पर मिट्टी पूर रहा था। जब वह मिट्टी पूर ही रहा था कि पत्नी भी आ गई। पत्नी ने पूछा, क्या करते हैं आप?सच बोलने की कसम खाई थी इसलिए झुठ भी न बोल सका। कहा कि अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तूने पूछा तो मुझे कहना पड़ेगा। बहुतसी स्वर्ण अशर्फियों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। किसी राहगीर की गिर गई है। कोई घुड़सवार अभी अभी भूल गया है। यह सोचकर कि कहीं तेरे मन में मोह न आ जाये. मैं तो त्यागी हूं., सर्वत्यागी। मेरे लिए तो मिट्टी और सोना बराबर है। मगर तू. तेरा मुझे  अभी भी भरोसा नहीं है। तू आ गई है मेरे साथ, लेकिन पता नहीं किस हेतु से आ गई है। शायद यह भी मेरे प्रति आसक्ति हो कि सुख में साथ रहे, दुख मे भी साथ रहेंगे। जीवनमरण का साथ है, इस कारण आ गई हो। डरकर कि कहीं तेरा मन डोल न जाये; फिर तीन दिन की भख। सोचकर कि रख लो उठाकर। तो मैं अशर्फियों के ऊपर मिट्टी डालकर छिपा रहा हूं।

उसकी पत्नी खिलखिलाकर हंसने लगी और उसने कहा, हद हो गई। तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है?मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो, शर्म नहीं आती? उस दिन से उसकी स्त्री का नाम हो गया बांका। राका तो उसका नाम था पति का, उस दिन से उसका नाम हो गया बांका। बांकी औरत रही होगी। अद्भुत स्त्री रही होगी। कहा, मिट्टी पर मिट्टी डालते शर्म नहीं आती? कुछ तो शरमाओ! कुछ तो लज्जा खाओ। यह क्या बेशर्मी कर रहे हो?तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है। तो तुम किस भ्रांति में पड़े हो कि तुमने सब छोड़ दिया?छोड़ने का मतलब ही होता है, जब भेद ही दिखाई न पड़े’।

अब तुम फर्क समझो। एक तो ऐसी समाधि की दशा है जहां भेद दिखाई नहीं पड़ता। सब बराबर है। और एक ऐसी दशा है जहां भेद तो साफ साफ दिखाई पड़ता है, चेष्टा करके हम त्याग देते हैं। तो अड़चन आयेगी। तो तुम्हारे भीतर द्वंद्व आयेगा, पाखंड आयेगा। तुम मिथ्या हो जाओगे।

ऐसे मिथ्या न हो जाओ इसलिए जगजीवन का यह सूत्र है कि मै’ तुमसे जो कहूं वह करो, ताकि धीरे धीरे सीढ़ी सीढ़ी तुम्हें चढ़ाऊं, ताकि इंच इंच तुम्हें रूपांतरित करू। एक दिन ऐसी घड़ी जरूर आ जायेगी कि जो मैं करता हूं वहां तुम भी करोगे लेकिन नकल के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर से बहाव होगा। तुम्हारा अपना फूल खिलेगा। तुम्हारी अपनी सुगंध उठेगी।

धर्म के जगत में नकल की बहुत सुविधा है क्योंकि नकल सस्ती है। ज्यादा अड़चन नहीं मालूम होती। बुद्ध जिस ढंग से चलते हैं, तुम भी चल सकते हो। क्या अड़चन है? थोड़ा अभ्यास करना पड़ेगा।

लाओत्सु ने कहा है, ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे प्रत्येक कदम पर खतरा है इतना सावधान। ज्ञानी ऐसे चलता है सावधान, जैसे कोई ठंड के दिनों में, गहरी ठंड के दिनों में बर्फीली नदी से गुजरता हो। एकेक पांव सोच सोचकर रखता है। ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे नारों तरफ दुश्मन तीर साधे बैटे हों कब कहा से तीर लग जाये, इतना सावधान चलता है  जैसे शिकारियों के भय से कोई हिरन जंगल में सावधान चलता है।

मगर यह सावधानी भीतर से आ रही है, होश से आ रही है, सजगता से आ रही है। तुम यह सावधानी बाहर से भी सीख सकते हो। तुम बिलकुल पैर सम्हाल सम्हाल कर रख सकते हो। मगर क्या तुम्हारे पैर सम्हाल सम्हालकर रखने से तुम्हारे भीतर जागरूकता पैदा हो जायेगी? पैर सम्हालकर रखना तुम्हारी आदत हो जायेगी, अभ्‍यास हो जायेगा। भीतर की नींद अछूती बनी रहेगी, जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी। जो भीतर करना है, भीतर से बाहर की तरफ करना है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं करना है।

नाम सुमिरन मन बाँवरे
ओशो 

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