हम सभी एक दूसरे से प्रेम मांगते हैं। हमारे प्राण भिखारी हैं। हम मांगते हैं कि कोई हमें प्रेम दे दे। पत्नी पति से प्रेम मांगती है, पति पत्नी से प्रेम मांगता है। मां बेटों से प्रेम मांगती है, बेटे मां से प्रेम मांगते हैं। मित्र मित्र से प्रेम मांगते हैं। हम सब एक दूसरे से प्रेम मांगते हैं, बिना यह जाने हुए कि हम जिससे प्रेम मांग रहे हैं वह भी हमसे प्रेम मांग रहा है। दो भिखारी एक दूसरे के सामने झोली फैलाए हुए खड़े हैं।
जब तक कोई आदमी प्रेम मांगता है, तब तक वह प्रेम देने में समर्थ नहीं हो सकता है। प्रेम की मांग इस बात की खबर है कि उसके भीतर प्रेम का झरना नहीं है, अन्यथा वह बाहर से प्रेम क्यों मांगता। प्रेम वही दे सकता है जिसका प्रेम की मांग के ऊपर उठना हो गया है, जो देने में समर्थ हो गया है। प्रेम एक दान है, भिक्षा नहीं। प्रेम एक मांग नहीं है, प्रेम एक भेंट है। प्रेम भिखारी नहीं है, प्रेम सम्राट है। प्रेम सिर्फ देना ही जानता है, मांगना जानता ही नहीं।
हम प्रेम को जानते हैं? मांगने वाला प्रेम प्रेम नहीं हो सकता है। और स्मरण रहे कि जो प्रेम को मांगता है उसे इस जगत में कभी भी प्रेम नहीं मिल सकेगा। जीवन के कुछ अनिवार्य नियमों में से, शाश्वत नियमों में से एक नियम यह है कि जो प्रेम को मांगता है उसे प्रेम कभी नहीं मिलता है। जो प्रेम बांटता है उसे प्रेम मिलता है। लेकिन उसे प्रेम की कोई मांग नहीं होती। जो प्रेम मांगता है, उसे प्रेम मिलता ही नहीं।
प्रेम तो उसी द्वार पर आता है जिस द्वार पर प्रेम की मांग मिट जाती है। जो मांगना बंद कर देता है उसके घर पर वर्षा शुरू हो जाती है। और जो मांगता रहता है उसका घर बिना वर्षा के रह जाता है, क्योंकि मांगने वाले चित्त की यह पात्रता नहीं कि प्रेम उसकी तरफ बहे। मांगने वाले चित्त की यह ग्राहकता नहीं है, यह रिसेप्टिविटी नहीं है कि प्रेम उस द्वार पर आए। वह तो देने वाला और बांट देने वाला चित्त ही उस ग्राहकता को, उस पात्रता को उपलब्ध होता है, जिस द्वार पर आकर प्रेम दस्तक देता है और कहता है मैं आ गया हूं द्वार खोलो।
हमारे द्वारों पर प्रेम ने आकर कभी दस्तक दी है? नहीं दी है। क्योंकि हम अभी प्रेम को देने में ही समर्थ नहीं हो सके हैं। और यह भी स्मरण रहे कि हम जो देते हैं वही हम पर वापस लौट आता है। जीवन के दूसरे शाश्वत नियमों में से यह है कि हम जो देते हैं वही हम पर वापस लौट आता है।
सारा जगत एक प्रतिध्वनि से ज्यादा नहीं है। हम घृणा देते हैं, घृणा वापस लौट आती है; हम क्रोध देते हैं, क्रोध वापस लौट आता है, हम गालियां देते हैं, गालियां वापस लौट आती हैं; हम कांटे फेंकते हैं, कांटे वापस लौट आते हैं। हमें वही उपलब्ध हो जाता है जो हमने फेंका था, वह अनतगुना होकर हम पर ही वापस लौट आता है। और अगर हम प्रेम बांटते हैं तो प्रेम भी अनंतगुना होकर हम पर वापस लौट आता है।
हम पर प्रेम अनंतगुना होकर वापस लौटा है? अगर नहीं लौटा तो जान लेना कि प्रेम हमने बांटा नहीं। और प्रेम हम बांटते कैसे? प्रेम हमारे पास है ही नहीं। और प्रेम हमारे पास होता तो हम प्रेम को द्वार द्वार मांगते हुए क्यों फिरते? हम जगह जगह भिखारी क्यों बनते? हम क्यों मांगते कि हमें प्रेम चाहिए?
हम सभी भिखारी हैं और हम सभी भिखारियों से मांगे चले जा रहे हैं, वह जो उनके पास नहीं है। और जब हमें नहीं मिलता है तो हम रोते हैं, और चिल्लाते हैं, और दुखी होते हैं, और पाते हैं कि हमें प्रेम नहीं मिल रहा है।
प्रेम कहीं बाहर से मिलने वाली बात नहीं है। प्रेम तो भीतर के अंतसजीवन का संगीत है। कोई प्रेम आपको दे नहीं सकता। प्रेम आपमें जन्म ले सकता है, लेकिन कोई बाहर से आपको मिल नहीं सकता है। न कहीं कोई दुकान है, न कहीं कोई बाजार है, न कहीं कोई बेचने वाला है कि जहां से आप प्रेम खरीद लें। किसी मूल्य पर प्रेम नहीं खरीदा जा सकता।
प्रेम तो अंतर्स्फुरण है। वह तो भीतर कोई सोई हुई शक्ति का जाग जाना है। और हम सब प्रेम को बाहर खोजते हैं। हम सब प्रेम को प्रेमी में खोजते हैं जो कि बिलकुल ही झूठी और फिजूल बात है।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
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