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Thursday, September 3, 2015

मैं मैं मैं

एक अभिनेता मर गया था। वह एक बहुत कुशल अभिनेता था, कुशल कवि था, नाटककार था। उसकी मृत्यु हो गई थी। मरघट पर उसे विदा करने बहुत लोग इकट्ठे हुए थे। जिस फिल्म कंपनी में वह अभिनेता था, उसका डायरेक्टर, उसका मालिक भी आया था। उस मालिक ने उस अभिनेता के शोक में बोलते हुए, दुख में बोलते हुए कुछ बातें कहीं।

उस मालिक ने कहा इस अभिनेता को अभिनेता बनाने वाला मैं ही हूं। यह मैं ही था जिसने इसे अंधकारपूर्ण गलियों से निकाल कर प्रकाशित राजपथों पर पहुंचाया। यह मैं ही था जिसने सबसे पहले इसे पहले नाटक में जगह दी। मैं ही था जिसने इसकी पहली किताब प्रकाशित करवाई। मैं ही था जिसके कारण यह सारी दुनिया में ख्याति उपलब्ध कर पाया। वह उतना ही कह पाया था, मैं भी उस मरघट पर मौजूद था, हो सकता है आप में से भी कोई मौजूद रहा हो। इतना ही वह कह पाया था कि वह मुर्दा जो बंधा हुआ पड़ा था, एकदम उठ कर बैठ गया। और उसने कहा एक्सक्यूज मी सर! माफ करिए मुझे! इधर कब में किसको गड़ाया जाने वाला है: आपको या मुझको? आप किसके संबंध में भाषण कर रहे हैं?

वह डायरेक्टर कहे चला जा रहा था कि मैं ही हूं जिसने इसे प्रकाश में लाया, मैं ही हूं जिसने इसकी किताब छपवाई, मैं ही हूं जिसने इसको नाटक में पहली जगह दी, मैं ही हूं…..!

मुर्दा भी बर्दाश्त नहीं कर सका इस ‘मैं’ के शोरगुल को। वह उठ आया और उसने कहा कि माफ करिए, एक बात बता दीजिए कि कब में किसको गड़ाया जाना है, मुझको या आपको? आप किसके संबंध में बोल रहे हैं? मुर्दे भी बर्दाश्त नहीं कर पाते इस ‘मैं’ के स्वर को और हम जिंदा आदमियों पर इस ‘मैं’ के स्वर को गुंजाए चले जाते हैं! जिंदा आदमी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

और आदमी के भीतर दो ही स्वर होते हैं। जिस आदमी के भीतर ‘मैं’ का स्वर होता है, उसके अंदर प्रेम का स्वर नहीं होता है। और जिसके भीतर प्रेम का स्वर होता है, उसके भीतर ‘मैं’ का स्वर नहीं होता है। ये दोनों एक साथ नहीं होते हैं। यह असंभावना है।

अंतरयात्रा शिविर

ओशो 

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