यह सूत्र ध्यान में लेने जैसा है कि हम अपनी किसी भी शक्ति का दमन न करें,
बल्कि उसे जानें, पहचानें, खोजें, देखें। और इसी के साथ एक हैरानी का अनुभव
आपको होगा कि अगर आप क्रोध को जानने गए, अगर आपने बैठ कर शांति से क्रोध
को देखने और दर्शन का प्रयास किया, तो आप एक हैरानी से भर जाएंगे कि जैसा
आप दर्शन करने को प्रवृत्त होंगे, वैसा ही क्रोध विलीन होगा। जैसे आप क्रोध
को निरीक्षण करेंगे, वैसा ही क्रोध तिरोहित हो जाएगा। तब आपको एक बात
दिखाई पड़ेगी कि क्रोध आपको पकड़ता है मूर्च्छा में। जब आप होश से भरते हैं
तो क्रोध विलीन होता है। अगर आपके मन में कामुक भावना उठी है और आप उसका
निरीक्षण करने चले गए हैं तो आप पाएंगे वह विसर्जित हो गई है। तब आप पाएंगे
कि काम पैदा होता है मूर्च्छा में और निरीक्षण करने से विलीन हो जाता है।
तो आपके हाथ में एक अदभुत सूत्र उपलब्ध हो जाएगा। वह यह कि मूर्च्छा के अतिरिक्त क्रोध और काम और लोभ का मनुष्य के ऊपर कोई बल नहीं है। और जैसे ही वह निरीक्षण करता है, होश से भरता है, अवेअरनेस से भरता है, वैसे ही क्रोध विलीन हो जाता है।
एक मेरे मित्र थे, उनको बहुत क्रोध की बीमारी थी। वे मुझसे कहे कि मैं तो बहुत परेशान हो गया हूं और अब मेरे वश के बाहर है यह बात। आप ही कुछ रास्ता मुझे बता दें। मुझे कुछ भी न करना पड़े, क्योंकि मैं तो हैरान हो गया हूं। मुझे अब आशा नहीं रही कि मैं कुछ कर सकता हूं इस क्रोध के बाहर हो सकता हूं।
मैंने उन्हें एक कागज पर लिख कर दे दिया एक छोटा सा वचन कि ‘अब मुझे क्रोध आ रहा है।’ और मैंने कहा इस कागज को अपनी खीसे में रखें और जब भी आपको क्रोध आए, निकाल कर कृपा करके इसको पढ़ लें और फिर वापस रख दें। मैंने कहा इतना तो आप कर ही सकते हैं। इससे ज्यादा तो……यह तो इतना अत्यल्प है कि इससे कम और करने के लिए क्या आपसे प्रार्थना की जाए। इस कागज को पढ़ लिया करें और वापस रख लिया करें। उन्होंने कहा ही, यह मैं कोशिश करूंगा।
कोई दो-तीन महीने बाद मुझे मिले। मैंने कहा क्या हिसाब? उन्होंने कहा मैं तो हैरान हो गया। इस कागज ने तो मंत्र का काम किया। क्रोध आता और मैं इसको निकालता……निकालता हूं तभी मेरे हाथ पैर ढीले हो जाते। हाथ खीसे में डाला और मुझे खयाल आया कि क्रोध आ रहा है। कुछ, कुछ बात ढीली हो जाती है, भीतर से वह पकड़ चली जाती है, वह जो ग्रिप है क्रोध की, वह जो प्राणों को पकड़ लेने की बात है पंजे में, वह बात एकदम ढीली पड़ जाती है। हाथ खीसे में गया और उधर हाथ ढीला पड़ा। और अब तो पढ़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्रोध आने का खयाल आता है कि वह भीतर खीसे में पड़ी चिट दिखाई पड़ने लगती है।
वह मुझसे पूछने लगे कि इस चिट का ऐसा कैसे परिणाम हुआ है, इसका क्या रहस्य है? मैंने कहा इसमें कोई भी रहस्य नहीं है, सीधी सी बात है। चित्त की जो भी विकृतियां हैं, चित्त की जो भी अराजकताएं हैं, चित्त का जो भी असंतुलन है वह मूर्च्छा में ही पकड़ता है, होश आया कि वह विलीन हो जाता है।
तो निरीक्षण के दो फल होंगे ज्ञान विकसित होगा इन सारी शक्तियों का, और जान मालिक बनाता है। और दूसरा परिणाम होगा कि ये शक्तियां जिस रूप में अभी पकड़ती हैं पागल की तरह, उस रूप में इनके पकड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो जाएगी, शिथिल हो जाएगी। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि पहले तो क्रोध आ जाता है तब आप निरीक्षण करते हैं, फिर धीरे- धीरे आप पाएंगे, क्रोध आता है और साथ ही निरीक्षण आ जाता है। फिर धीरे-धीरे आप पाएंगे, क्रोध आने को होता है और निरीक्षण आ जाता है। और जिस दिन क्रोध के पहले निरीक्षण का बोध आ जाता है उस दिन क्रोध के पैदा होने की कोई संभावना नहीं रह जाती, कोई विकल्प नहीं रह जाता।
पश्चात्ताप मूल्य का नहीं है, पूर्व बोध मूल्य का है। क्योंकि पश्चात्ताप होता है पीछे। पीछे कुछ भी नहीं किया जा सकता, पीछे रोना धोना बिलकुल ही व्यर्थ है, क्योंकि जो हो चुका उसे अब न करना असंभव है, जो हो चुका उसे अनडन करना असंभव है। क्योंकि अतीत की तरफ लौटने की कोई गुंजाइश नहीं, कोई मार्ग नहीं, कोई द्वार नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ, उसे बदला जा सकता है। पश्चात्ताप का मतलब ही यह है कि पीछे जो जलन पकड़ लेती है। वह उसका कोई मतलब नहीं है, वह बिलकुल नासमझी से भरा हुआ है। क्रोध किया वह गलती हो गई और फिर पश्चात्ताप किया वह दोहरी गलती हो रही है। वह व्यर्थ ही आप परेशान हो रहे हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। पूर्वबोध, पूर्वबोध तब विकसित होगा जब हम निरीक्षण करें, धीरे धीरे चित्त की सारी वृत्तियों का निरीक्षण करें।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
तो आपके हाथ में एक अदभुत सूत्र उपलब्ध हो जाएगा। वह यह कि मूर्च्छा के अतिरिक्त क्रोध और काम और लोभ का मनुष्य के ऊपर कोई बल नहीं है। और जैसे ही वह निरीक्षण करता है, होश से भरता है, अवेअरनेस से भरता है, वैसे ही क्रोध विलीन हो जाता है।
एक मेरे मित्र थे, उनको बहुत क्रोध की बीमारी थी। वे मुझसे कहे कि मैं तो बहुत परेशान हो गया हूं और अब मेरे वश के बाहर है यह बात। आप ही कुछ रास्ता मुझे बता दें। मुझे कुछ भी न करना पड़े, क्योंकि मैं तो हैरान हो गया हूं। मुझे अब आशा नहीं रही कि मैं कुछ कर सकता हूं इस क्रोध के बाहर हो सकता हूं।
मैंने उन्हें एक कागज पर लिख कर दे दिया एक छोटा सा वचन कि ‘अब मुझे क्रोध आ रहा है।’ और मैंने कहा इस कागज को अपनी खीसे में रखें और जब भी आपको क्रोध आए, निकाल कर कृपा करके इसको पढ़ लें और फिर वापस रख दें। मैंने कहा इतना तो आप कर ही सकते हैं। इससे ज्यादा तो……यह तो इतना अत्यल्प है कि इससे कम और करने के लिए क्या आपसे प्रार्थना की जाए। इस कागज को पढ़ लिया करें और वापस रख लिया करें। उन्होंने कहा ही, यह मैं कोशिश करूंगा।
कोई दो-तीन महीने बाद मुझे मिले। मैंने कहा क्या हिसाब? उन्होंने कहा मैं तो हैरान हो गया। इस कागज ने तो मंत्र का काम किया। क्रोध आता और मैं इसको निकालता……निकालता हूं तभी मेरे हाथ पैर ढीले हो जाते। हाथ खीसे में डाला और मुझे खयाल आया कि क्रोध आ रहा है। कुछ, कुछ बात ढीली हो जाती है, भीतर से वह पकड़ चली जाती है, वह जो ग्रिप है क्रोध की, वह जो प्राणों को पकड़ लेने की बात है पंजे में, वह बात एकदम ढीली पड़ जाती है। हाथ खीसे में गया और उधर हाथ ढीला पड़ा। और अब तो पढ़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्रोध आने का खयाल आता है कि वह भीतर खीसे में पड़ी चिट दिखाई पड़ने लगती है।
वह मुझसे पूछने लगे कि इस चिट का ऐसा कैसे परिणाम हुआ है, इसका क्या रहस्य है? मैंने कहा इसमें कोई भी रहस्य नहीं है, सीधी सी बात है। चित्त की जो भी विकृतियां हैं, चित्त की जो भी अराजकताएं हैं, चित्त का जो भी असंतुलन है वह मूर्च्छा में ही पकड़ता है, होश आया कि वह विलीन हो जाता है।
तो निरीक्षण के दो फल होंगे ज्ञान विकसित होगा इन सारी शक्तियों का, और जान मालिक बनाता है। और दूसरा परिणाम होगा कि ये शक्तियां जिस रूप में अभी पकड़ती हैं पागल की तरह, उस रूप में इनके पकड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो जाएगी, शिथिल हो जाएगी। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि पहले तो क्रोध आ जाता है तब आप निरीक्षण करते हैं, फिर धीरे- धीरे आप पाएंगे, क्रोध आता है और साथ ही निरीक्षण आ जाता है। फिर धीरे-धीरे आप पाएंगे, क्रोध आने को होता है और निरीक्षण आ जाता है। और जिस दिन क्रोध के पहले निरीक्षण का बोध आ जाता है उस दिन क्रोध के पैदा होने की कोई संभावना नहीं रह जाती, कोई विकल्प नहीं रह जाता।
पश्चात्ताप मूल्य का नहीं है, पूर्व बोध मूल्य का है। क्योंकि पश्चात्ताप होता है पीछे। पीछे कुछ भी नहीं किया जा सकता, पीछे रोना धोना बिलकुल ही व्यर्थ है, क्योंकि जो हो चुका उसे अब न करना असंभव है, जो हो चुका उसे अनडन करना असंभव है। क्योंकि अतीत की तरफ लौटने की कोई गुंजाइश नहीं, कोई मार्ग नहीं, कोई द्वार नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ, उसे बदला जा सकता है। पश्चात्ताप का मतलब ही यह है कि पीछे जो जलन पकड़ लेती है। वह उसका कोई मतलब नहीं है, वह बिलकुल नासमझी से भरा हुआ है। क्रोध किया वह गलती हो गई और फिर पश्चात्ताप किया वह दोहरी गलती हो रही है। वह व्यर्थ ही आप परेशान हो रहे हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। पूर्वबोध, पूर्वबोध तब विकसित होगा जब हम निरीक्षण करें, धीरे धीरे चित्त की सारी वृत्तियों का निरीक्षण करें।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
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