एक आदमी दिल्ली के पास से भागा चला जा रहा था, और उसने किसी को पूछा कि
दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा अगर आप सीधे ही भागे चले जाते हैं तो
सारी पृथ्वी का चक्कर लगाएंगे तब दिल्ली उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि दिल्ली
की तरफ आपकी पीठ है। और अगर आप पीछे लौट पड़ते हैं तो दिल्ली से ज्यादा
निकट और कोई भी गांव नहीं है। दिल्ली केवल लौटने, पीछे देखने की बात है और
आप दिल्ली पहुंच जाते हैं। वह आदमी भागे जा रहा है जिस दिशा में, उस दिशा
में पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करे तो ही पहुंच सकता है। और लौट पड़े तो
पहुंचा ही हुआ है, अभी और यहीं पहुंच सकता है।
हम जिन दिशाओं में बहे जाते हैं उन दिशाओं में ही बहते रहें तो हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते, पृथ्वी की परिक्रमा लेकर भी नहीं पहुंच सकते। क्योंकि पृथ्वी छोटी है और चित्त बड़ा है। पृथ्वी की परिक्रमा एक आदमी पूरी भी कर ले, लेकिन चित्त की परिक्रमा असंभव है, वह बहुत बड़ा है, बहुत विराट है, बहुत अनंत है। पृथ्वी की परिक्रमा पूरी भी हो जाएगी एक दिन, वह आदमी वापस दिल्ली आ सकता है, लेकिन चित्त और भी बड़ा है पृथ्वी से, उसकी पूरी परिक्रमा बहुत लंबी है। तो फिर लौटने का बोध, दिशा परिवर्तन का, वापस लौटने का, रूपांतरण का बोध-तीसरी बात ध्यान में रखने की है।
अभी हम जैसे भी बहे जा रहे हैं, हम गलत बहे जा रहे हैं। तो गलत का क्या सबूत है? गलत का सबूत है कि हम जितने बहते हैं उतने खाली होते हैं, जितने बहते हैं उतने दुखी होते हैं, जितने बहते हैं उतने अशांत होते हैं, जितने बहते हैं उतने अंधकार से भरते हैं, तो निश्चित ही हम गलत बहे जा रहे हैं।
आनंद एकमात्र कसौटी है जीवन की। जिस जीवन में आप बहे जा रहे हैं अगर वहां आनंद उपलब्ध नहीं होता है, तो जानना चाहिए आप गलत बहे जा रहे हैं। दुख गलत होने का प्रमाण है और आनंद ठीक होने का प्रमाण है, इसके अतिरिक्त कोई कसौटियां नहीं हैं। न किसी शास्त्र में खोजने की जरूरत है, न किसी गुरु से पूछने की जरूरत है। कसने की जरूरत है कि मैं जहां बहा जा रहा हूं वहां मुझे आनंद बढ़ता जा रहा है, गहरा होता जा रहा है, तो मैं ठीक जा रहा हूं। और अगर दुख बढ़ता जा रहा है, पीड़ा बढ़ती जा रही है, चिंता बढ़ती जा रही है, तो मैं गलत जा रहा हूं।
इसमें किसी को मान लेने का भी सवाल नहीं है। अपनी जिंदगी में खोज कर लेने का सवाल है कि हम रोज दुख की तरफ जाते हैं या रोज आनंद की तरफ जाते हैं। अगर आप अपने से पूछेंगे तो कठिनाई नहीं होगी। बूढ़े भी कहते हैं कि हमारा बचपन बहुत आनंदित था। इसका मतलब क्या हुआ कि वे गलत बह गए? क्योंकि बचपन तो शुरुआत थी जिंदगी की, और वे आनंदित थे और अब वे दुखी हैं। शुरुआत आनंद थी और अंत दुख ला रहा है तो जीवन गलत बहा। होना उलटा चाहिए था। होना यह चाहिए था कि बचपन में जितना आनंद था वह रोज रोज बढ़ता चला जाता। बुढ़ापे में आदमी कहता कि बचपन सबसे दुख की स्थिति थी, क्योंकि वह तो जीवन का प्रारंभ था, वह तो जीवन की पहली कक्षा थी।
अंतरयात्रा शिविर
ओशो
हम जिन दिशाओं में बहे जाते हैं उन दिशाओं में ही बहते रहें तो हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते, पृथ्वी की परिक्रमा लेकर भी नहीं पहुंच सकते। क्योंकि पृथ्वी छोटी है और चित्त बड़ा है। पृथ्वी की परिक्रमा एक आदमी पूरी भी कर ले, लेकिन चित्त की परिक्रमा असंभव है, वह बहुत बड़ा है, बहुत विराट है, बहुत अनंत है। पृथ्वी की परिक्रमा पूरी भी हो जाएगी एक दिन, वह आदमी वापस दिल्ली आ सकता है, लेकिन चित्त और भी बड़ा है पृथ्वी से, उसकी पूरी परिक्रमा बहुत लंबी है। तो फिर लौटने का बोध, दिशा परिवर्तन का, वापस लौटने का, रूपांतरण का बोध-तीसरी बात ध्यान में रखने की है।
अभी हम जैसे भी बहे जा रहे हैं, हम गलत बहे जा रहे हैं। तो गलत का क्या सबूत है? गलत का सबूत है कि हम जितने बहते हैं उतने खाली होते हैं, जितने बहते हैं उतने दुखी होते हैं, जितने बहते हैं उतने अशांत होते हैं, जितने बहते हैं उतने अंधकार से भरते हैं, तो निश्चित ही हम गलत बहे जा रहे हैं।
आनंद एकमात्र कसौटी है जीवन की। जिस जीवन में आप बहे जा रहे हैं अगर वहां आनंद उपलब्ध नहीं होता है, तो जानना चाहिए आप गलत बहे जा रहे हैं। दुख गलत होने का प्रमाण है और आनंद ठीक होने का प्रमाण है, इसके अतिरिक्त कोई कसौटियां नहीं हैं। न किसी शास्त्र में खोजने की जरूरत है, न किसी गुरु से पूछने की जरूरत है। कसने की जरूरत है कि मैं जहां बहा जा रहा हूं वहां मुझे आनंद बढ़ता जा रहा है, गहरा होता जा रहा है, तो मैं ठीक जा रहा हूं। और अगर दुख बढ़ता जा रहा है, पीड़ा बढ़ती जा रही है, चिंता बढ़ती जा रही है, तो मैं गलत जा रहा हूं।
इसमें किसी को मान लेने का भी सवाल नहीं है। अपनी जिंदगी में खोज कर लेने का सवाल है कि हम रोज दुख की तरफ जाते हैं या रोज आनंद की तरफ जाते हैं। अगर आप अपने से पूछेंगे तो कठिनाई नहीं होगी। बूढ़े भी कहते हैं कि हमारा बचपन बहुत आनंदित था। इसका मतलब क्या हुआ कि वे गलत बह गए? क्योंकि बचपन तो शुरुआत थी जिंदगी की, और वे आनंदित थे और अब वे दुखी हैं। शुरुआत आनंद थी और अंत दुख ला रहा है तो जीवन गलत बहा। होना उलटा चाहिए था। होना यह चाहिए था कि बचपन में जितना आनंद था वह रोज रोज बढ़ता चला जाता। बुढ़ापे में आदमी कहता कि बचपन सबसे दुख की स्थिति थी, क्योंकि वह तो जीवन का प्रारंभ था, वह तो जीवन की पहली कक्षा थी।
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