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Friday, September 4, 2015

तुम क्या हो?

                          अगर इसी वक्‍त मैं पूछूं कि तुम क्या हो तो तुम इस प्रश्न का उत्तर दो ढंग से दोगे। एक उत्तर शाब्दिक होगा जिसमें तुम अपने अतीत का वर्णन करोगे। तुम कहोगे कि मेरा अमुक नाम है, मैं अमुक
परिवार का हूं मेरा अमुक धर्म है, मैं अमुक देश का रहने वाला हूं। तुम कहोगे कि मैं शिक्षित हूं या अशिक्षित हूं मैं धनी हूं या गरीब हूं। ये सब के सब अतीत के अनुभव हैं; और तुम ये सब नहीं हो। तुम उनसे होकर गुजरे हो, वे तुम्हारी राह में आए हैं, लेकिन तुम्हारा अतीत इकट्ठा होता जाता है। यह शाब्दिक उत्तर होगा, लेकिन यह सही उत्तर नहीं होगा। यह तुम्हारा मन बोल रहा है, तुम्हारा झूठा अहंकार तर्क दे रहा है।

                   अगर तुम अभी अपने पूरे अतीत को अलग हो जाने दो, अगर तुम अपने मां बाप, अपने परिवार, अपने धर्म और देश को, जो कि सब के सब आकस्मिक हैं; भूल जाओ और सिर्फ अपने साथ रहो, तो तुम कौन हो? कोई नाम रूप तुम्हारी चेतना में नहीं प्रकट होगा; सिर्फ यह बोध रहेगा कि तुम हो। तुम यह नहीं कह सकोगे कि तुम कौन हो; तुम इतना ही कहोगे कि मैं हूं। जिस क्षण तुम कौन का उत्तर दोगे, तुम अतीत में चले गए।

                    तुम मात्र चैतन्य हो, एक शुद्ध मन, एक निर्दोष दर्पण। अभी, इसी क्षण तुम हो। तुम क्या हो? मात्र एक बोध कि मैं हूं।’मैं’ भी जरूरी नहीं है, तुम जितने गहरे जाओगे उतने ही अधिक हूंपन को, अस्तित्व को अनुभव करोगे। अस्तित्व शुद्ध मन है। लेकिन इस अस्तित्व का कोई आकार नहीं है, यह निराकार है। इस अस्तित्व का कोई नाम नहीं है, यह अनाम है।

                    लेकिन जो तुम वस्तुत: हो, उससे तुम्हारा परिचय देना कठिन होगा। समाज में दूसरों से संबंधित होने के लिए तुम्हें नाम रूप की जरूरत पड़ेगी। तुम्हारा अतीत तुम्हें नाम रूप देता है। नाम और रूप उपयोगी है; उनके बिना जीना कठिन होगा। वे जरूरी है; लेकिन तुम वे सब नहीं हो। वे सिर्फ लेबल हैं। लेकिन इस उपयोगिता के कारण मौलिक मन नाम और रूप के साथ तादात्म्य कर लेता है।

तंत्र सूत्र

ओशो 

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