यदि तुम सचमुच मौन हो गए हो तो तुम्हें इसकी फिक्र न रहेगी कि दूसरे क्या कहते हैं। और यदि दूसरों की राय अभी तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है तो तुम मौन नहीं हुए हो। सच तो यह है कि तुम इंतजार में हो कि वे कुछ कहें, कि वे प्रशंसा करें कि तुम मौन हो गए हो। क्या तुम्हारे मौन को उनके समर्थन की जरूरत है? तुम्हें उनके प्रमाणपत्र की जरूरत है? तब तुम आश्वस्त नहीं हो कि तुम मौन हो गए हो।
दूसरों के मत अर्थपूर्ण हैं, क्योंकि तुम खुद कुछ नहीं जानते हो। मत कभी ज्ञान नहीं है। तुम दूसरों के मत इकट्ठे किए जाते हो, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या हो, तुम कौन हो, तुम्हें क्या हो रहा है। तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ता है कि मुझे क्या हो रहा है।
तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ेगा? अगर तुम सच में मौन और शांत हो गए हो तो न कोई मित्र हैं और न कोई मत अर्थपूर्ण हैं। तब तुम हंस सकते हो। उन्हें कहने दो जो वे कहना चाहें। लेकिन नहीं, तुम प्रभावित होते हो। वे जो कुछ कहते हैं वह तुममें गहरे उतर जाता है, तुम उससे उत्तेजित हो जाते हो। तुम्हारा मौन झूठा है, आरोपित है, अभ्यासजन्य है। वह सहज रूप से तुममें नहीं खिला है। तुमने जबरदस्ती अपने को मौन कर लिया है, लेकिन भीतर अभी उबल रहे हो। यह मौन सतह पर ही है। अगर कोई कहता है कि तुम मौन नहीं हो, अगर कोई कहता है कि यह अच्छा नहीं है, या अगर कोई कहता है कि यह झूठा है, तो तुम अशांत हो जाते हो और तुम्हारा मौन खो जाता है। मौन खो गया है। इसीलिए तुम मुझसे यह पूछ रहे हो।
’और वे जो कहते हैं उसमें कुछ सार भी मालूम देता है।’
तुम गंभीर हो गए हो। पर गंभीर होने में गलत क्या है? अगर तुम गंभीर ही पैदा हुए हो, गंभीर होने को ही पैदा हुए हो, तो तुम गंभीर होओगे। तुम जबरदस्ती खेलपूर्ण नहीं हो सकते; अन्यथा तुम्हारा खेलपूर्ण होना ही गंभीर हो जाएगा और तुम उसको भी नष्ट कर दोगे। कई खिलाडी भी बड़े गंभीर होते है। वह अपने खेलों में इतने गंभीर हो जाते है कि खेल और ज्यादा चिंता और उपद्रव के कारण बन जाते हैं।
तंत्र सूत्र
ओशो
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