तुम बाहर की ज्योति के इतने आदी हो गये हो, तुम्हारी आंखें बाहर के
प्रकाश से इतनी ज्यादा भर गई हैं कि भीतर का सूक्ष्म-प्रकाश तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ता। तुम स्थूल के आदी हो गये हो। तुम जड़ के आदी हो गये हो।
और भीतर का प्रकाश तो बड़ा धीमा है, मद्धिम है। उसकी कोई चोट नहीं है। वह बड़ा अहिंसात्मक है, उसमें कोई त्वरा नहीं है, आग नहीं है। वह ऐसा है जैसे सुबह सूरज नहीं ऊगता, रात जा चुकी होती है, तब ब्रह्म-मुहूर्त में जैसा प्रकाश होता है। इसलिए तो हिंदुओं ने ब्रह्ममुहूर्त को ध्यान का समय चुना है। क्योंकि उस प्रकाश से भीतर के प्रकाश से थोड़ा तालमेल है।
सूरज ऊगा नहीं है; क्योंकि सूरज के ऊगते ही तप्त, त्वरा, तीव्रता पैदा हो जायेगी। सूरज ऊगा नहीं है, रात जा चुकी है, इस काल को हिंदू संध्या कहते हैं। इसलिए हिंदू अपनी प्रार्थना को भी संध्या कहते हैं। या फिर सांझ को जब सूरज डूब गया और अभी रात नहीं आ गई। बीच में एक मध्यकाल है, संधि है। उस मध्यकाल में जैसा प्रकाश होता है–तीव्रता शून्य। आग नहीं होती उस प्रकाश में, सिर्फ रोशनी होती है। ठंडा प्रकाश, ठीक वैसा प्रकाश तुम्हारे भीतर है।
लेकिन तुम बाहर के प्रकाश के इतने आदी हो गये हो। तुम्हें खयाल होगा, कभी गर्मी के दिनों में थके-मांदे रास्ते की यात्रा से, सूरज की तेज जलती आग के नीचे तुम घर लौटे हो। भीतर गये हो, एकदम अंधकार मालूम होता है। आंख बाहर के सूरज से इतनी आदी हो गई, फिर तुम थोड़ा विश्राम करते हो, सुस्ताते हो, धीरे-धीरे-धीरे आंख भीतर के प्रकाश को देखना शुरू करती है। धीरे-धीरे अंधेरा मिटता है, कमरे में एक रोशनी आती है।
ऐसे ही भीतर जब तुम पहली दफे आंख बंद करोगे, सिर्फ अंधेरा पाओगे। और यह अंधेरा बहुत घना मालूम होगा। क्योंकि जन्मों-जन्मों से तुम बाहर ही यात्रा कर रहे हो। क्षण भर तुम आंख बंद करते हो, अंधेरा पाकर आंख खोल कर फिर बाहर चले जाते हो। कहते हो, ये बुद्ध और महावीर पर भरोसा नहीं आता, भीतर तो अंधेरा है।
वक्त लगेगा। आंख को थोड़ा राजी होने दो। आंख को थोड़ा एडजस्ट–समायोजित होने दो। इसलिए ध्यान में समय लगता है। और प्रतीक्षा जरूरी है। जैसे-जैसे तुम्हें भीतर सांध्यकालीन प्रकाश दिखाई पड़ेगा, जिसमें आग नहीं है, सिर्फ रोशनी है, आभा है; वैसे-वैसे दीये से संबंध टूटेगा, प्रकाश से संबंध जुड़ेगा। गेयर बदलेगा भीतर, और एक बार ज्योति के साथ एक हुए फिर तुम्हारे तले कोई अंधेरा नहीं है। फिर न तुम केवल खुद प्रकाश से भरे रहोगे, तुम्हारा प्रकाश बाहर भी गिरेगा। तुम जिसके पास जाओगे उसको भी तुम्हारे प्रकाश का दान मिलेगा।
दिया तले अँधेरा
ओशो
और भीतर का प्रकाश तो बड़ा धीमा है, मद्धिम है। उसकी कोई चोट नहीं है। वह बड़ा अहिंसात्मक है, उसमें कोई त्वरा नहीं है, आग नहीं है। वह ऐसा है जैसे सुबह सूरज नहीं ऊगता, रात जा चुकी होती है, तब ब्रह्म-मुहूर्त में जैसा प्रकाश होता है। इसलिए तो हिंदुओं ने ब्रह्ममुहूर्त को ध्यान का समय चुना है। क्योंकि उस प्रकाश से भीतर के प्रकाश से थोड़ा तालमेल है।
सूरज ऊगा नहीं है; क्योंकि सूरज के ऊगते ही तप्त, त्वरा, तीव्रता पैदा हो जायेगी। सूरज ऊगा नहीं है, रात जा चुकी है, इस काल को हिंदू संध्या कहते हैं। इसलिए हिंदू अपनी प्रार्थना को भी संध्या कहते हैं। या फिर सांझ को जब सूरज डूब गया और अभी रात नहीं आ गई। बीच में एक मध्यकाल है, संधि है। उस मध्यकाल में जैसा प्रकाश होता है–तीव्रता शून्य। आग नहीं होती उस प्रकाश में, सिर्फ रोशनी होती है। ठंडा प्रकाश, ठीक वैसा प्रकाश तुम्हारे भीतर है।
लेकिन तुम बाहर के प्रकाश के इतने आदी हो गये हो। तुम्हें खयाल होगा, कभी गर्मी के दिनों में थके-मांदे रास्ते की यात्रा से, सूरज की तेज जलती आग के नीचे तुम घर लौटे हो। भीतर गये हो, एकदम अंधकार मालूम होता है। आंख बाहर के सूरज से इतनी आदी हो गई, फिर तुम थोड़ा विश्राम करते हो, सुस्ताते हो, धीरे-धीरे-धीरे आंख भीतर के प्रकाश को देखना शुरू करती है। धीरे-धीरे अंधेरा मिटता है, कमरे में एक रोशनी आती है।
ऐसे ही भीतर जब तुम पहली दफे आंख बंद करोगे, सिर्फ अंधेरा पाओगे। और यह अंधेरा बहुत घना मालूम होगा। क्योंकि जन्मों-जन्मों से तुम बाहर ही यात्रा कर रहे हो। क्षण भर तुम आंख बंद करते हो, अंधेरा पाकर आंख खोल कर फिर बाहर चले जाते हो। कहते हो, ये बुद्ध और महावीर पर भरोसा नहीं आता, भीतर तो अंधेरा है।
वक्त लगेगा। आंख को थोड़ा राजी होने दो। आंख को थोड़ा एडजस्ट–समायोजित होने दो। इसलिए ध्यान में समय लगता है। और प्रतीक्षा जरूरी है। जैसे-जैसे तुम्हें भीतर सांध्यकालीन प्रकाश दिखाई पड़ेगा, जिसमें आग नहीं है, सिर्फ रोशनी है, आभा है; वैसे-वैसे दीये से संबंध टूटेगा, प्रकाश से संबंध जुड़ेगा। गेयर बदलेगा भीतर, और एक बार ज्योति के साथ एक हुए फिर तुम्हारे तले कोई अंधेरा नहीं है। फिर न तुम केवल खुद प्रकाश से भरे रहोगे, तुम्हारा प्रकाश बाहर भी गिरेगा। तुम जिसके पास जाओगे उसको भी तुम्हारे प्रकाश का दान मिलेगा।
दिया तले अँधेरा
ओशो
No comments:
Post a Comment