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Saturday, January 30, 2016

सारा खेल मन का है, कैसे हम देखते हैं!

बुद्ध का एक शिष्य हुआ पूर्ण कश्यप। वह निश्चित ही पूर्ण हो गया था, इसलिए उसे बुद्ध पूर्ण कहते हैं। फिर एक दिन बुद्ध ने उससे कहा कि पूर्ण, अब तू पूर्ण सच में ही हो गया। अब मेरे साथ-साथ डोलने की कोई जरूरत न रही। अब तू जा। अब तू गांव-गाव, नगर-नगर घूम और डोल। मेरी खबर ले जा। मेरे पास तूने जो पाया है, उसे लुटा।


पूर्ण ने कहा : भगवान, किस दिशा में जाऊं? आप इशारा कर दें। बुद्ध ने कहा : तू खुद ही चुन ले। अब तू खुद ही समर्थ है। अब मेरे इशारे की भी कोई जरूरत न रही।

तो पूर्ण ने कहा कि जाऊंगा–‘सूखा’ नाम का एक इलाका था बिहार में-वहां जाऊंगा। बुद्ध ने कहा, तू खतरा मोल ले रहा है। वह जगह भली नहीं। लोग सज्जन नहीं। लोग बड़े दुष्ट हैं और लोग सताने में रस लेते हैं। लोग तुझे परेशान करेंगे। इन पीत-वस्त्रों में उन्होंने भिक्षु कभी देखा नहीं। वे बड़े जंगली हैं। तू वहा मत जा।


पर पूर्ण ने कहा, इसीलिए तो उनको मेरी जरूरत है। किसी को तो जाना ही होगा। कब तक वे जंगली रहें? कब तक उनको पशुओं की तरह रहने दिया जाए? मुझे जाना होगा। आज्ञा  दें।


बुद्ध ने कहा, जा; मगर मेरे दो-तीन सवालों के जवाब दे दे। पहला  अगर वे तुझे गालियां दें, अपमान करें, तो तुझे क्या होगा ‘ तो पूर्ण ने कहा, यह भी आप मुझसे पूछते हैं, क्या होगा? आप भलीभांति जानते हैं कि मैं प्रसन्न होऊंगा। क्योंकि मेरे मन में यह भाव उठेगा, कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, मारते नहीं। मार भी सकते थे।


बुद्ध ने कहा, ठीक। मगर अगर मारे न, मारने ही लगें, तो तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा, आप पूछते हैं? आप भलीभांति जानते हैं कि पूर्ण प्रसन्न होगा, कि धन्यभाग कि मारते हैं, मार ही नहीं डालते। मार भी डाल सकते थे।


बुद्ध ने कहा, आखिरी सवाल, पूर्ण। अगर मार ही डालें, तो मरते वक्त तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा, आप, और पूछते हैं? आपको भलीभांति मालूम है कि जब मैं मर रहा होऊंगा तो मेरे मन में होगा, धन्यभाग, उस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी।


बुद्ध ने कहा, अब तू जा। अब तुझे जहां जाना है, तू जा। अब तुझे कोई गाली नहीं दे सकता। अब तुझे कोई मार नहीं सकता। अब तुझे कोई मार डाल नहीं सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे गाली न देंगे; गाली तो वे देंगे, लेकिन तुझे अब कोई गाली नहीं दे सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे मारेंगे नहीं; मारेंगे, लेकिन तुझे अब कोई मार नहीं सकता। और कौन जाने, कोई तुझे मार भी डाले; लेकिन अब तू अमृत है। अब तेरी मृत्यु संभव नहीं।

 
‘उसने मुझे डांटा, उसने मुझे मारा, मुझे जीत लिया, मेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में नहीं बनाए रखते हैं, उनका वैर शात हो जाता है।’


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

बुद्धि के पार

तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा अनुभव होना चाहिए जो बुद्धि से अतीत अनुभव है। जो बाहर से नहीं आया है। बुद्धि में तो जो भी आया है बाहर से आया है। किताब पढ़ी, किसी को सुना, किसी से बात की, स्कूल विश्वविद्यालय सीखा, वही सब तुम्हारी बुद्धि में भरा है। बुद्धि तो एक कंप्यूटर है जिसमें बाहर से सूचनाएं डाली जाती हैं। बुद्धि तो एक टेपरिकॉर्ड है, एक ग्रामोफोन रेकॉर्ड है, जिसमें बाहर से सूचनाएं भर दी जाती हैं फिर बुद्धि उसे दोहराती रहती है।


और बड़ा मजा है। हम इसी को बड़ा मूल्य देते हैं। जो जितना अच्छा ग्रामोफोन रेकॉर्ड है उसको हम कहते हैं उतना ही बुद्धिमान। विश्वविद्यालय उसे स्वर्णपदक देते हैं। और उसने प्रमाण क्या दिया है बुद्धि का? एक ही प्रमाण दिया है कि जो भी साल भर शिक्षकों ने उसकी खोपड़ी में भरा था, उसने परीक्षा की कॉपी पर उसका वमन कर दिया, उल्टी कर दी। परीक्षा की कॉपी पर ठीक उसने वैसा ही का वैसा, बिना पचा । पच जाता तो वमन कैसे करता? सम्हाले रहा, सम्हाले रहा, सम्हाले रहा, फिर सारी परीक्षा की कॉपी गंदी कर दी। स्वर्णपदक मिल गया उसको। उसका बड़ा सम्मान है।


उसने कौन सी कुशलता दिखाई? यह कोई बुद्धि की कुशलता है? हां, इतना कहा जा सकता है, उसके पास अच्छी स्मृति है। मगर स्मृति और बुद्धि बड़ी भिन्न बातें हैं। मनोवैज्ञानिक जिसको बुद्धि का माप कहते हैं, इंटेलिजंस कोशिएंट कहते हैं, वह वस्तुतः बुद्धि का माप नहीं है, केवल स्मृति का माप है। और याददाश्त का अच्छा होना और बुद्धि का अच्छा होना पर्यायवाची नहीं हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जिनकी याददाश्त बहुत अच्छी होती है उनके पास बुद्धि जैसी चीज नहीं होती। और जिनके पास बुद्धि जैसी चीज होती है उनकी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं होती।


तुमने बहुत कहानियां सुनी होंगी कि बड़े बड़े बुद्धिमान और याददाश्त उनकी बड़ी कमजोर। इमेन्युअल कांट की याददाश्त इतनी कमजोर कि एक सांझ अपने घर आया, द्वार पर दस्तक दिया। सांझ है, सूरज ढल गया है, घूमकर लौटा है अपने ही घर। नौकर ने छज्जे से झांका, समझा कि कोई आया होगा मालिक को मिलने। तो उसने कहा, मालिक घूमने गए हैं, थोड़ी देर बाद आना तो वह वापिस लौट आया। कोई मील—भर चलने के बाद उसे याद आया कि हद हो गई! मालिक तो मैं ही हूं!

नाम सुमिर मन बाँवरे 

ओशो 


Thursday, January 28, 2016

पैगंबर अपने गाव में नहीं पूजा जाता



जीसस सबसे बड़े यहूदी थे पृथ्वी के। उनसे बड़ा कोई यहूदी न पहले हुआ, न पीछे हुआ। लेकिन यहूदियों ने ही छोड़ दिया। फांसी लगा दी। बुद्ध सबसे बड़े हिंदू थे। और हिंदुओं ने ही उनका त्याग कर दिया। और हिंदुस्तान से बुद्ध धर्म को उखाड़ फेंका। पता नहीं मनुष्य कब समझदार होगा! कब इसकी आंखें खुलेंगी! यह अपने घर में आयी संपदा को अस्वीकार करने की इसकी पुरानी आदत है।


जीसस ने कहा है : पैगंबर अपने गाव में नहीं पूजा जाता, अपने लोगों के द्वारा नहीं पूजा जाता। इससे पैगंबर की कुछ हानि होती है, सो नहीं। पैगंबर की क्या हानि होनी है! लेकिन वे लोग, जो सर्वाधिक लाभान्वित हो जाते, सबसे ज्यादा वंचित रह जाते हैं।


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

‘जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को काटकर खूंटे को भी उखाड़ फेंका है, उस बुद्धपुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’



नद्धा अर्थात क्रोध, सांकल अर्थात मोह, रस्सी अर्थात लोभ और खूंटा अर्थात काम। जिसने काम, क्रोध, मोह, लोभ इन चार को उखाड़ फेंका है।


‘जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को काटकर खूंटे को भी उखाड़ फेंका है…।’ सबकी जड़ खूंटे में है काम में। काम के कारण ही और सब चीजें पैदा होती हैं। इसे खयाल रखना। इसलिए काम मूल जड़ है। शेष शाखाएं हैं वृक्ष की; फूल पत्ते हैं। असली चीज जड़ है काम। क्यों?


क्योंकि जब तुम्हारे काम में कोई बाधा डालता है, तो क्रोध पैदा होता है। जब तुम्हारा काम सफल होने लगता है, तो लोभ पैदा होता है। जब तुम्हारा काम सफल हो जाता है, तो मोह पैदा होता है।


समझो उदाहरण के लिए, तुम एक स्त्री को पाना चाहते हो। और एक दूसरे सज्जन प्रतियोगिता करने लगे। तो क्रोध पैदा होगा। तुम प्रतियोगी को मारने को उतारू हो जाओगे। भयंकर ईर्ष्या जगेगी। आग की लपटें उठने लगेंगी। अगर तुम स्त्री को पा लो, तो तुम चाहोगे कि जो तुम्हारी हो गयी है, वह अब सदा के लिए तुम्हारी हो। कहीं कल किसी और की न हो जाए। तो लोभ पैदा हुआ। अब तुम्हारे भीतर स्त्री को परिग्रह बना लेने की इच्छा हो गयी कि वह मेरी हो जाए। सब तरफ द्वार दरवाजे बंद कर दोगे। दीवाल के भीतर उसे बिठा दोगे। एक पींजडे में बिठा दोगे और ताला लगा दोगे कि अब किसी और की कभी न हो जाए। लोभ पैदा हुआ। फिर जिससे सुख मिलेगा, उससे मोह पैदा होगा। फिर उसके बिना एक क्षण न रह सकोगे। जहां जाओगे, उसी की याद आएगी। चित्त उसी के आसपास मंडराका। और इन सबके खूंटे में क्या है? काम है।

तो बुद्ध कहते हैं. जिसने नद्धा क्रोध उखाड़ फेंका; सांकल तोड़ दी मोह उखाड़ फेंका; रस्सी तोड दी लोभ उखाड़ फेंका। और इतना ही नहीं; जो खूंटे को भी काटकर फेंक दिया है, उखाड़कर फेंक दिया है, उस बुद्धपुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूं।'


जिसके भीतर काम नहीं रहा, उसके भीतर ही राम का आविर्भाव होता है। यह काम की ऊर्जा ही जब और सारे विषयों से मुक्त हो जाती है, तो राम बन जाती है। राम कुछ और ऊर्जा नहीं है, वही ऊर्जा है। हीरा जब पड़ा है कूड़े करकट में और मिट्टी में दबा है, तो काम। और जब हीरे को निखारा गया, साफ—सुथरा किया गया और किसी जौहरी ने हीरे को पहलू दिए तो राम।

काम और राम एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं। काम की ही अंतिम ऊंचाई राम है। और राम का ही सबसे नीचे गिर जाना काम है।

एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 

कहानी

एक यहूदी फकीर ने देश के सबसे बड़े धर्मगुरु को अपनी लिखी किताब भेजी। जिस शिष्य के हाथ भेजी, उसने कहा. आप गलत कर रहे हैं। न भेजें, तो अच्छा। क्योंकि वे आपके विरोध में हैं। वे आपको शत्रु मानते हैं।


यह फकीर पहुंचा हुआ व्यक्ति था। लेकिन स्वभावत: धर्मगुरु इसको दुश्मन माने, यह स्वाभाविक है। क्योंकि जब भी कोई पहुंचा हुआ फकीर होगा, तथाकथित धर्म, तथाकथित धर्मगुरु, तथाकथित पुरोहित पंडे, स्थिति स्थापक सब उसके विरोध में हो जाएंगे।


वह सबसे बड़ा धर्मगुरु था और उसके मन में बड़ा क्रोध था इस आदमी के प्रति, क्योंकि यह आदमी पहुंच गया था। यही अड़चन थी। यही जलन थी।


लेकिन फकीर ने कहा अपने शिष्य को;  तू जा। तू सिर्फ देखना; ठीक ठीक देखना कि क्या वहा होता है और ठीक ठीक मुझे आकर बता देना।


वह किताब लेकर गया। फकीर का शिष्य जब पहुंचा धर्मगुरु के बगीचे में, धर्मगुरु अपनी पत्नी के साथ बैठा बगीचे में गपशप कर रहा था। इसने किताब उसके हाथ में दी। उसने किताब पर नाम देखा, उसी वक्त किताब को फेंक दिया। और कहा कि तुमने मेरे हाथ अपवित्र कर दिए; मुझे स्नान करना होगा। निकल जाओ बाहर यहां से!


शिष्य तो जानता था यह होगा।


तभी पत्नी बोली. इतने कठोर होने की भी क्या जरूरत है! तुम्हारे पास इतनी किताबें हैं तुम्हारे पुस्तकालय में, इसको भी रख देते किसी कोने में। न पढना था, न पढ़ते। लेकिन इतना कठोर होने की क्या जरूरत है! और फिर अगर फेंकना ही था, तो इस आदमी को चले जाने देते, फिर फेंक देते। इसी के सामने इतना अशिष्ट व्यवहार करने की क्या जरूरत है!


शिष्य ने यह सब सुना; अपने गुरु को आकर कहा। कहा कि पत्नी बड़ी भली है। उसने कहा. किताब को पुस्तकालय में रख देते। हजारों पुस्तकें हैं, यह भी पड़ी रहती। उसने कहा कि अगर फेंकना ही था, तो जब यह आदमी चला जाता, तब फेंक देते। इसी के सामने यह दुर्व्यवहार करने की क्या जरूरत थी! लेकिन धर्मगुरु बड़ा दुष्ट आदमी है। उसने किताब को ऐसे फेंका, जैसे जहर हो; जैसे मैंने सांप बिच्छू उसके हाथ में दे दिया हो।


तुम्हें पता है, उस यहूदी फकीर ने क्या कहा! उसने अपने शिष्य को कहा. तुझे कुछ पता नहीं है। धर्मगुरु आज नहीं कल मेरे पक्ष में हो सकता है। लेकिन उसकी पत्नी कभी नहीं होगी।


यह बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है।


पत्नी व्यावहारिक है न प्रेम, न घृणा। एक तरह की उपेक्षा है कि ठीक, पड़ी रहती किताब। या फेंकना था, बाद में फेंक देते। उपेक्षा है। न पक्ष है, न विपक्ष है। जो विपक्ष में ही नहीं है, वह पक्ष में कभी न हो सकेगा।

उस यहूदी फकीर ने ठीक कहा कि पत्नी पर मेरा कोई वश नहीं चल सकेगा। यह धर्मगुरु तो आज नहीं कल मेरे पक्ष में होगा। और यही हुआ।


जैसे ही शिष्य चला गया, वह धर्मगुरु थोड़ा शांत हुआ, फिर उसे भी लगा कि उसने दुर्व्यवहार किया। आखिर फकीर ने अपनी किताब भेजी थी इतने सम्मान से, तो यह मेरी तरफ से अच्छा नहीं हुआ। उठा, किताब को झाड़ा पोंछा। अब पश्चात्ताप के कारण किताब को पढा कि अब ठीक है; जो हो गयी भूल, हो गयी। लेकिन देखूं भी तो कि इसमें क्या लिखा है!


पढा तो बदला। पढा तो देखा कि ये तो परम सत्य हैं इस किताब में। वही सत्य हैं, जो सदा से कहे गए हैं। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म, सदा से कहा गया धर्म इसमें है। अभी किताब फेंकी थी; घडीभर बाद झुककर उस किताब को नमस्कार भी किया।


उस यहूदी फकीर ने ठीक ही कहा कि धर्मगुरु पर तो अपना वश चलेगा कभी न कभी। लेकिन उसकी पत्नी पर अपना कोई वश नहीं है। उसकी पत्नी को हम न बदल सकेंगे। मनोविज्ञान की बड़ी जटिल राहें हैं। 


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो
 

निंदा की कला

तुम ध्यान रखना, निंदा का एक मनोविज्ञान है। क्यों लोग निंदा पसंद करते हैं? तुम अगर किसी से कहो कि अ नाम का आदमी संत हो गया है, कोई मानेगा नहीं। पच्चीस दलीलें लोग लाएगे कि नहीं, संत नहीं है। सब धोखा घडी है। सब पाखंड है। और तुम किसी के संबंध में कहो कि फला आदमी चोर हो गया है; तो कोई विवाद न करेगा। वह कहेगा. हमें पहले से ही पता है। वह चोर है ही। क्या हमें बता रहे हो! वह महाचोर है। तुम्हें अब पता चला! तुम्हारी आंखें अंधी थीं।


तुमने कभी देखा : निंदा जब तुम किसी की करो, तो कोई प्रमाण नहीं मांगता। और प्रशंसा जब करो, तो हजार प्रमाण मांगे जाते हैं। और, और भी एक कठिनाई है कि प्रशंसा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और निंदा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण होते हैं। क्योंकि निंदा तो क्षुद्र जगत की बात है, उसके लिए प्रमाण हो सकते हैं।


समझो किसी आदमी की तुम निंदा कर रहे हो कि उसने चोरी की। तो चार आदमी गवाह की तरह खड़े किए जा सकते हैं कि इन्होंने उसे चोरी करते देखा। लेकिन तुम कहते हो कि कोई आदमी जाग गया, प्रबुद्ध हो गया, इसके लिए कहां गवाह खोजोगे! कहां से गवाह मौजूद करोगे? कौन कहेगा कि हां, मैंने इसको बुद्ध होते देखा! यह बात तो देखने की नहीं है। यह तो बुद्ध ही कोई हो, तो देख सके, जो स्वयं बुद्ध हो, वह देख सके। दूसरा तो कोई इसका गवाह नहीं हो सकता।


मजे की बात देखना। जो प्रशंसा योग्य तत्व हैं, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और उनके लिए लोग प्रमाण पूछते हैं। और जो निंदा है, उसके लिए हजार प्रमाण होते हैं, लेकिन कोई प्रमाण पूछता ही नहीं। प्रमाण के बिना ही स्वीकार कर लेते हैं लोग। लोग निंदा स्वीकार करना चाहते हैं। लोग तैयार ही हैं कि निंदा करो।


तुम्हारे अखबार निंदा से भरे होते हैं। तुम अखबार पढ़ते ही इसीलिए हो कि आज किस किस की बखिया उधेडी गयी। अखबार में जिस दिन निंदा नहीं होती, उस दिन तुम उसे उदासी से सरकाकर एक तरफ रख देते हो कि कुछ खास बात ही नहीं है। जब अखबार में हत्या की खबर होती है, चोरी की, किसी की स्त्री के भगाने की, तलाक की, आत्महत्या की, तब तुम एकदम चश्मा ठीक करके एकदम अखबार पर झुक जाते हो कि एक शब्द चूक न जाए! इसलिए बेचारा अखबार छापने वाला आदमी निंदा की तलाश में घूमता रहता है।


पत्रकारों की दृष्टि ही मिथ्या हो जाती है, क्योंकि उनका धंधा ही खराब है। उनके धंधे का मतलब ही यह है कि जनता जो चाहती है, वह लाओ खोजबीन कर। अच्छे से अच्छे आदमी में कुछ बुरा खोजो। सुंदर से सुंदर में कोई दाग खोजो। चांद की फिकर छोड़ो। चांद पर वह जो काला धब्बा है, उसकी चर्चा करो। क्योंकि लोग धब्बे में उत्सुक हैं, चांद में उत्सुक नहीं हैं। चांद की बात करो, तो कोई अखबार खरीदेगा ही नहीं।


इसलिए जो पत्रकारिता है, वह मूलत: निंदा के रस की ही कला है। कैसे खोज लो कहीं से भी कुछ गलत कैसे खोज लो! और जब तुम खोजने का तय ही किए बैठे हो, तो जरूर खोज लोगे। क्योंकि जो आदमी जो खोजने निकला है, उसे मिल जाएगी।


यह दुनिया विराट है। इसमें अंधेरी रातें हैं और उजाले दिन हैं। इसमें गुलाब के फूल हैं और गुलाब के काटे हैं। जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह कहेगा कि दुनिया बड़ी बुरी है। यहां दो रातों के बीच में एक छोटा सा दिन है। दो अंधेरी रातें, और बीच में छोटा सा दिन! और जो प्रशंसा खोजने निकला है, वह कहेगा कि दुनिया बड़ी प्यारी है। परमात्मा ने कैसी गजब की दुनिया बनायी है. दो उजाले दिन, बीच में एक अंधेरी रात!


जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह गुलाब की झाड़ी में काटो की गिनती कर लेगा। और स्वभावत: काटो की गिनती जब तुम करोगे, तो कोई न कोई काटा हाथ में गड़ जाएगा। तुम और क्रोधाग्नि से भर जाओगे। अगर कांटा हाथ में गड़ गया और खून निकल आया, तो तुम्हें जो एकाध फूल खिला है झाड़ी पर, वह दिखायी ही नहीं पड़ेगा। तुम अपनी पीड़ा से दब जाओगे। तुम गालिया देते हुए लौटोगे।


जो आदमी फूल को देखने निकला है, वह फूल से ऐसा भर जाएगा कि उसे काटे भी प्यारे मालूम पड़ेंगे। वह फूल से ऐसा रसविमुग्ध हो जाएगा कि उसे यह बात दिखायी पड़ेगी कि काटे जरूर भगवान ने इसीलिए बनाए होंगे कि फूलों की रक्षा हो सके। ये फूलों के पहरेदार हैं।


सब तुम पर निर्भर है, कैसे तुम देखते हो, क्या तुम देखने चले हो।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

जीओ, जागो और जीओ

मैंने तुमसे कहा सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और दुर्भाग्य से अधिक लोग शूद्र की तरह ही मरते हैं। ध्यान रखना, फिर दोहराता हूं सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं। ब्राह्मण की तरह कोई पैदा नहीं होता। क्योंकि ब्राह्मणत्व उपलब्ध करना होता है, पैदा नहीं होता कोई। ब्राह्मणत्व अर्जन करना होता है। ब्राह्मणत्व साधना का फल है।


शूद्र की तरह सब पैदा होते हैं, क्योंकि सभी शरीर के साथ तादात्म्य में जुड़े पैदा होते हैं। शूद्र हैं, इसीलिए पैदा होते हैं। नहीं तो पैदा ही क्यों होते? शूद्रता के कारण पैदा होते हैं। क्योंकि अभी शरीर से मोह नहीं गया। इसलिए पुराना शरीर छूट गया, तत्‍क्षण जल्दी से नया शरीर ले लिया। राग बना है, मोह बना है, तृष्णा बनी है फिर नए गर्भ में प्रविष्ट हो गए। फिर पैदा हो गए।


तुम्हें कोई पैदा नहीं कर रहा है। तुम अपनी ही वासना से पैदा होते हो। मरते वक्त जब तुम घबडाए होते हो, और जोर से पकड़ते हो शरीर को, और चीखते हो और चिल्लाते हो, और कहते हो बचाओ मुझे। थोड़ी देर बचा लो। तब तुम नए जन्म का इंतजाम कर रहे हो।


जो मरते वक्त निश्चित मर जाता है, जो कहता है. धन्य है! यह जीवन समाप्त हुआ। धन्य कि इस शरीर से मुक्ति हुई। धन्य कि इस क्षणभंगुर से छूटे। जो इस विश्राम में विदा हो जाता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है।


तुम जन्म का बीज अपनी मृत्यु में बोते हो। जब तुम मरते हो, तब तुम नए जन्म का बीज बोते हो। और तुम जिस तरह की वासना करते हो, उस तरह के जन्म का बीज बोते हो। तुम्हारी वासना ही देह धरेगी। तुम्हारी वासना ही गर्भ लेगी।


बुद्ध ने कहा है तुम नहीं जन्मते, तुम्हारी वासना जन्मती है। तो जब वासना नहीं, तब तुम्हारा जन्म समाप्त हो जाता है।


सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं। लेकिन शूद्र की तरह मरने की कोई जरूरत नहीं है। स्मरणपूर्वक कोई जीए, होशपूर्वक कोई जीए; एकांत में, मौन और ध्यान में कोई जीए, तो ब्राह्मण की तरह मर सकता है। और जो ब्राह्मण की तरह मरा, वह संसार में नहीं लौटता है, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है।


ये सारे धम्मपद के सूत्र, कैसे कोई ब्रह्म को उपलब्ध कर ले, कैसे कोई ब्राह्मण हो जाए, इसके ही सूत्र थे। धम्मपद का अर्थ होता है. ब्राह्मण तक पहुंचा देने वाला मार्ग, धर्म का मार्ग, जो तुम्हें ब्राह्मणत्व तक पहुंचा दे।
सुनकर ही समाप्त मत कर देना। जीना। इंचभर जीना, हजार मीलों के सोचने से बेहतर है। क्षणभर जीना, शाश्वत, हजारों वर्षों तक सोचने से बेहतर है। कणभर जीना, हिमालय जैसे सोचने से बेहतर है, मूल्यवान है।

एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 

बातचीत!

बोलना तो तभी सार्थक है, जब कुछ जाना हो : जब कुछ अनुभव हुआ हो। जब कोई बात तुम्हारे भीतर प्रखर होकर साफ हो गयी हो। जब तुम्हारे भीतर ज्योति जली हो और तुम्हारे पास अपनी आंखें हों, तब बोलना। तब तक तो अच्छा है, चुप ही रहना। तुम अपना कूड़ा करकट दूसरे पर मत फेंकना। तुम्हीं दबे हो, औरों पर कृपा करो। मत किसी को दबाओ अपने कूड़े करकट से।


लेकिन लोग बड़े उत्सुक होते हैं! लोग अकेले अकेले में घबडाने लगते हैं। राह खोजने लगते हैं कि कोई मिल जाता। किसी से दो बात कर लेते। बात करने का मतलब कुछ कचरा वह हमारी तरफ फेंकता, कुछ कचरा हम उसकी तरफ फेंकते। न हमें पता है, न उसे पता है। इसको लोग बातचीत कहते हैं!


यह बातचीत महंगी है। क्योंकि दूसरा भी अपने अज्ञान को छिपाता है और अपनी बातों को इस तरह से कहता है, जैसे जानता हो। तुम भी अपने अज्ञान को छिपाते हो और अपनी बातों को इस तरह से कहते हो, जैसे तुमने जाना है। दोनों एक दूसरे को धोखा दे रहे हो। और अगर दूसरे नै मान लिया तुम्हारी बात को, तो गड्डे में गिरेगा। तुम खुद गड्डे में गिरते रहे हो। तुम्हारी बात मानकर जो चलेगा, वह गड्ढे में गिरेगा।


इसलिए तो कोई किसी की सलाह नहीं मानता। तुमने देखा, दुनिया में सबसे ज्यादा चीज जो दी जाती है, वह सलाह है। और सबसे कम जो चीज ली जाती है, वह भी सलाह है।


कोई किसी की मानता नहीं। बाप की बेटा नहीं मानता। भाई की भाई नहीं मानता। मित्र की मित्र नहीं मानता। अध्यापक की शिष्य नहीं मानता।


एक लिहाज से अच्छा है कि लोग किसी की मानते नहीं। अरे, गिरना है तो कम से कम अपने ही गड्डे में गिरो। दूसरे की सलाह लेकर दूसरे के गड्डे में क्यों गिरना! अपने गड्डे में गिरोगे, तो शायद कुछ अनुभव भी होगा। अपनी तरफ से गिरोगे, अपने हाथ से गिरोगे, तो शायद निकलने की संभावना भी है। अवश, दूसरे की सलाह से गिरोगे, तो निकलने की संभावना भी न रह जाएगी।


मैं तुमसे कहना चाहता हूं : अपने ही पैर से चलकर जो नर्क तक पहुंचा है, वह वापस भी लौट सकता है। जो दूसरों के कंधों पर चढ़कर पहुंच गया है, वह गौडा है। वह वापस कैसे लौटेगा त्र: उसका लौटना बहुत असंभव हो जाएगा।


और नर्क तक ले जाने वाले लोग तो तुम्हें बहुत मिल जाएंगे। एक ढूंढो, हजार मिल जाएंगे। लेकिन नर्क से स्वर्ग तक लाने वाला तो बहुत मुश्किल है। नर्क में कहां पाओगे ऐसा आदमी जो तुम्हें स्वर्ग तक ले जाए? यहां से नर्क तक जाने के लिए तो सब गाडियां बिलकुल भरी हैं, लबालब भरी हैं। लेकिन नर्क से इस तरफ आने वाली गाड़ियां चलती कहां हैं! उनको चलाने वाला नहीं है कोई। अच्छा ही है कि कोई किसी की सलाह नहीं मानता।


एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 
 

तीन तरह के लोग

दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। पहले, जिन्हें हम मूढ़ कहें, बुद्धिहीन कहें। वे अनुभव से भी नहीं सीखते हैं। बार बार अनुभव हो, तब भी नहीं सीखते हैं। वे पुन: पुन: वही भूल करते हैं। वे भूलें भी नयी नहीं करते हैं! वे भूलें भी पुरानी ही दोहराते हैं। उनके जीवन में नया कुछ होता ही नहीं। उनका जीवन कोल्हू के बैल जैसा होता है। बस, उसी में डोलता रहता है। वही चक्कर काटता रहता है। गाड़ी के चाक जैसा घूमता रहता है।


एक आदमी अपनी पत्नी से बहुत पीड़ित था। और कई बार अपने मित्रों से कह चुका था कि अगर यह मेरी स्त्री मर जाए, तो मैं दुबारा सपने में भी विवाह की न सोचूंगा। फिर स्त्री मर गयी, संयोग की बात। और पाच—सात दिन बाद ही वह आदमी नयी स्त्री की तलाश करने लगा। तो उसके मित्रों ने पूछा. अरे! अभी पांच सात दिन ही बीते। और तुम तो कहते थे, सपने में न सोचूंगा। उन्होंने कहा. छोड़ो भी। जाने भी दो। उस समय की बात उस समय की थी। सब बदल गया अब। सभी स्त्रियां एक जैसी थोड़े ही होती हैं। उसने दुख दिया, तो सभी दुख देंगी, ऐसा थोड़े ही है।


उसने फिर विवाह कर लिया और फिर दुख पाया। तब वह अपने मित्रों से बोला कि तुम ठीक ही कहते थे। अब यह भी अनुभव हो गया कि सभी स्त्रियां एक जैसी हैं। कुछ भेद नहीं पड़ता। सब संबंधों में दुख है। और यह विवाह का संबंध तो महादु:ख है। अब कभी नहीं। अगर भगवान एक अवसर और दे, तो अब कभी न करूंगा विवाह।


पुरानी कहानी है, भगवान ने सुन लिया होगा। एक अवसर और दिया! पत्नी फिर मर गयी। साधारणत: पहली पत्नी नहीं मरती! अक्सर तो ऐसा होता है कि पत्नी पति को मारकर ही मरती है।


तुमने देखा, विधवाएं दिखायी पड़ती हैं। स्त्रियों की शारीरिक उम्र पुरुषों से ज्यादा है; पांच साल ज्यादा है, औसत। अगर आदमी सत्तर साल जीएगा, तो स्त्री पचहत्तर साल जीएगा। और एक मूढ़ता के कारण कि जब हम विवाह करते हैं, तो हम पुरुष की उम्र तीन चार पांच साल ज्यादा..। लड़का होना चाहिए इक्कीस का और लड़की होनी चाहिए सोलह की या अठारह की। तो पांच साल का तो स्वाभाविक भेद है, पांच साल का भेद हम खड़ा कर देते हैं। तो पुरुष दस साल पीछे पिछड़ जाता है। तो अगर पुरुष मरेगा, तो उसके दस साल बाद तक उसकी पत्नी के जिंदा रहने की संभावना है।


तो पहली पत्नी ही नहीं मरती! पहली भी मरी। दूसरी मरी। यह कथा सतयुग की होगी। कलयुग में ये बातें कहां! दूसरी स्त्री के मरने के पांच  सात दिन बाद ही वह आदमी फिर स्त्री तलाश करने लगा। मित्रों ने कहा : अरे भई! अब तो सम्हलो। वह आदमी मुस्कुराया और उसने कहा : सुनो। अब मुझे एक बात समझ में आ गयी मन में कि आशा की हमेशा अनुभव पर विजय होती है। अब मुझे फिर आशा बंध रही है कि कौन जाने, तीसरी स्त्री भिन्न हो,! अरे! किसने जाना!


आशा पर अनुभव नहीं जीत पाता; अनुभव पर आशा जीत जाती है

दूसरे वे लोग हैं, जिन्हें हम बुद्धिमान कहें। वे अनुभव से सीखते हैं। अनुभव के बिना नहीं सीखते। बुद्धिमान को पुनरुक्ति नहीं करनी पड़ती। एक ही अनुभव काफी होता है। मगर एक अनुभव जरूरी होता है। बिना अनुभव के नहीं बुद्धिमान सीख सकता। मगर एक काफी है। एक बार चख लिया समुद्र के पानी को, तो सारे समुद्रों का पानी चख लिया। बात समाप्त हो गयी। उस स्वाद ने निर्णय दे दिया। अब दुबारा यही भूल नहीं करेगा।


मूढ़ बंधी बंधायी भूलें करता है। कुछ सीखता ही नहीं। इसका मतलब हुआ वही वही भूलें करने का मतलब हुआ कि कुछ सीखता नहीं कि भूलों को बदल ले। नयी भूलें करे। पुरानी छोड़े। कुछ नए उपाय करे।


बुद्धिमान एक भूल को एक बार करता है। ऐसा नहीं कि बुद्धिमान भूलें नहीं करता। मगर जब करता है, तो नयी भूलें करता है। इसलिए बुद्धिमान विकासमान होता है। वह आगे बढ़ता है। हर अनुभव उसे नया ज्ञान दे जाता है।


तीसरे व्यक्ति होते हैं, जिनको प्रज्ञावान कहा जाता है। वे बुद्धिमान से आगे होते हैं। वे अनुभव में नहीं गुजरते। वे अनुभव को बाहर से ही देखकर जाग जाते हैं। वे दूसरों का अनुभव देखकर भी जाग जाते हैं। उन्हें स्वयं ही अनुभव में जाने की जरूरत नहीं होती।


पहला आदमी ऐसा कि जब गिरेगा आग में, तो एक बार गिरेगा, दो बार गिरेगा। रोज जलेगा; फिर फिर गिरेगा। दूसरा आदमी ऐसा कि एक बार जल जाएगा, तो सम्हल जाएगा। और तीसरा आदमी ऐसा कि दूसरों को गिरते देखकर, जलते देखकर ही सम्हल जाएगा। उसको प्रज्ञावान कहा है।


 एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 


जो आत्माएं रुक जाती हैं क्या वे किसी के शरीर में प्रवेश करके उसे परेशान भी कर सकती हैं?



सकी भी संभावना है। क्योंकि वे आत्माएं, जिनको शरीर नहीं मिलता है, शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। निकृष्ट आत्माएं शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। श्रेष्ठ आत्माएं शरीर के बिना अत्यंत प्रफुल्लित हो जाती हैं। यह फर्क ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ आत्मा शरीर को निरंतर ही किसी न किसी रूप में बंधन अनुभव करती है और चाहती है कि इतनी हलकी हो जाए कि शरीर का बोझ भी न रह जाए। अंततः वह शरीर से भी मुक्त हो जाना चाहती है, क्योंकि शरीर भी एक कारागृह मालूम होता है। अंततः उसे लगता है कि शरीर भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है, जो न करने योग्य हैं। इसलिए वह शरीर के लिए बहुत मोहग्रस्त नहीं होता। निकृष्ट आत्मा शरीर के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। क्योंकि उसका सारा रस, सारा सुख, शरीर से ही बंधा होता है।


शरीर के बिना कुछ आनंद लिये जा सकते हैं। जैसे समझें, एक विचारक है। तो विचारक का जो आनंद है, वह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है। तो अगर एक विचारक की आत्मा भटक जाए, शरीर न मिले, तो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होती, क्योंकि विचार का आनंद तब भी लिया जा सकता है। लेकिन समझो कि एक भोजन करने में रस लेने वाला आदमी है, तो शरीर के बिना भोजन करने का रस असंभव है। तो उसके प्राण बड़े छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे प्रवेश कर जाए। और उसके योग्य गर्भ न मिलता हो, तो वह किसी कमजोर आत्मा में—कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्मा, जो अपने शरीर की मालिक नहीं है उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता है, किसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में।


और ध्यान रहे, भय का एक बहुत गहरा अर्थ है। भय का अर्थ है जो सिकोड़ दे। जब आप भयभीत होते हैं, तब आप सिकुड़ जाते हैं। जब आप प्रफुल्लित होते हैं, तो आप फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति भयभीत होता है, तो उसकी आत्मा सिकुड जाती है और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती है, जहां, कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है। एक नहीं, बहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में प्रवेश कर सकती है। और करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैं, वे शरीर से बंधे हैं। वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है। इसकी पूरी संभावना है, इसके पूरे तथ्य हैं, इसकी पूरी वास्तविकता है। इसका यह मतलब हुआ कि एक तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है। जो भयभीत है, उसे खतरा हो सकता है। क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है। वह अपने मकान में, अपने घर के एक कमरे में रहता है, बाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं। बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं।



कभी कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैं, कभी कभी। लेकिन उनका प्रवेश बहुत दूसरे कारणों से होता है। कुछ कृत्य हैं करुणा के, जो शरीर के बिना नहीं किए जा सकते। जैसे समझें कि एक घर में आग लगी है और कोई उस घर को आग से बचाने को नहीं जा रहा है। भीड़ बाहर घिरी खड़ी है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती कि आग में बढ़ जाए। और तब अचानक एक आदमी बढ़ जाता है और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया। मेरी तो हिम्मत न थी। वह बढ़ जाता है और आग बुझाने लगता है और आग बुझा लेता है। और किसी को बचा कर बाहर निकल आता है। और वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यह, किसी और ने मुझसे यह करवा लिया है। ऐसी किसी घडी में जहां, कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत न जुटा पाता हो, कोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है। लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं।


निकृष्ट आत्मा निरंतर शरीर के लिए आतुर रहती है। उसके सारे रस उनसे बंधे हैं। और यह बात भी ध्यान में रख लेनी चाहिए कि मध्य की आत्माओं के लिए कोई बाधा नहीं है, उनके लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध हैं।


इसीलिए श्रेष्ठ आत्मायें कभी कभी सैकड़ों वर्षों के बाद ही पैदा हो पाती हैं। और यह भी जानकर हैरानी होगी कि जब श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होती हैं, तो करीब करीब पूरी पृथ्वी पर श्रेष्ठ आत्माएं एक साथ पैदा हो जाती हैं। जैसे कि बुद्ध और महावीर भारत में पैदा हुए आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले। बुद्ध, महावीर दोनों बिहार में पैदा हुए। और उसी समय बिहार में छह और अदभुत विचारक थे। उनका नाम शेष नहीं रह सका, क्योंकि उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। और कोई कारण न था, वे बुद्ध और महावीर की ही हैसियत के लोग थे। लेकिन उन्होंने बड़े हिम्मत का प्रयोग किया। उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए।

 उनमें एक आदमी था प्रबुद्ध कात्यायन, एक आदमी था अजित केसकंबल, एक था संजय विलट्ठीपुत्र, एक था मक्सली गोशाल, और लोग थे। उस समय ठीक बिहार में एक साथ आठ आदमी एक ही प्रतिभा के, एक ही क्षमता के पैदा हो गए। और सिर्फ बिहार में, एक छोटे से इलाके में सारी दुनिया के। ये आठों आत्माएं बहुत देर से प्रतीक्षारत थीं। और मौका मिल सका तो एकदम से भी मिल गया।


और अक्सर ऐसा होता है कि एक श्रृंखला होती है अच्छे की भी और बुरे की भी। उसी समय यूनान में सुकरात पैदा हुआ थोड़े समय के बाद, अरस्तू पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। उसी समय चीन में कंक्यूशियस पैदा हुआ, लाओत्से पैदा हुआ, मेन्शियस पैदा हुआ, च्चांगत्से पैदा हुआ। उसी समय सारी दुनिया के कोने कोने में कुछ अदभुत लोग एकदम से पैदा हुए। सारी पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गई।


ऐसा प्रतीत होता है कि ये सारे लोग प्रतीक्षारत थे, प्रतीक्षारत थीं उनकी आत्माएं और एक मौका आया और गर्भ उपलब्ध हो सके। और जब गर्भ उपलब्ध होने का मौका आता है, तो बहुत से गर्भ एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे कि फूल खिलता है एक। फूल का मौसम आया है, एक फूल खिला और आप पाते हैं कि दूसरा खिला और तीसरा खिला। फूल प्रतीक्षा कर रहे थे और खिल गए। सुबह हुई, सूरज निकलने की प्रतीक्षा थी और कुछ फूल खिलने शुरू हुए। कलियां टूटी, इधर फूल खिला उधर फूल निकला। रात भर से फूल प्रतीक्षा कर रहे थे, सूरज निकला और फूल खिल गए।


ठीक ऐसा ही निकृष्ट आत्माओं के लिए भी होता है। जब पृथ्वी पर उनके लिए योग्य वातावरण मिलता है, तो एक साथ एक श्रृंखला में वे पैदा हो जाते हैं। जैसे हमारे इस युग में भी हिटलर और स्टैलिन और माओ जैसे लोग एकदम से पैदा हुए। एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा हुए, जिनको हजारों साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी। क्योंकि स्टैलिन या हिटलर या माओ जैसे आदमियों को भी जल्दी पैदा नहीं किया जा सकता। अकेले स्टैलिन ने रूस में कोई साठ लाख लोगों की हत्या की अकेले एक आदमी ने। और हिटलर ने अकेले एक आदमी नेंकोई एक करोड़ लोगों की हत्या की।


हिटलर ने हत्या के ऐसे साधन ईजाद किए, जैसे पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं किए। हिटलर ने इतनी सामूहिक हत्या की, जैसी कभी किसी आदमी ने नहीं की। तैमूरलंग और चंगेजखां सब बचकाने सिद्ध हो गए। हिटलर ने गैस चेंबर्स बनाए। उसने कहा, एक एक आदमी को मारना तो बहुत महंगा है। एक एक आदमी को मारो, तो गोली बहुत महंगी पड़ती है। एक एक आदमी को मारना महंगा है, एक एक आदमी को कब्र में दफनाना महंगा है। एक एक आदमी की लाश को उठाकर गांव के बाहर फेंकना बहुत महंगा है। तो कलेक्टिव मर्डर, सामूहिक हत्या कैसे की जाए! लेकिन सामूहिक हत्या भी करने के उपाय हैं। अभी अहमदाबाद में कर दी या कहीं और कर दी, लेकिन ये बहुत महंगे उपाय हैं। एक एक आदमी को मारो, बहुत तकलीफ होती है, बहुत परेशानी होती है, और बहुत देर भी लगती है। ऐसे एक  एक को मारोगे, तो काम ही नहीं चल सकता। इधर एक मारो, उधर एक पैदा हो जाता है। ऐसे मारने से कोई फायदा नहीं होता।


हिटलर ने गैस चेंबर बनाए। एक एक चेंबर में पांच पांच हजार लोगों को इकट्ठा खड़ा करके बिजली का बटन दबाकर एकदम से वाष्पीभूत किया जा सकता है। बस, पांच हजार लोग खड़े किए, बटन दबा और वे गए। एकदम गए और इसके बाद हाल खाली। वे गैस बन गए। इतनी तेज चारों तरफ से बिजली गई कि वे गैस हो गए। न उनकी कब्र बनानी पड़ी, न उनको कहीं मार कर खून गिराना पड़ा।


खून जून गिराने का हिटलर पर कोई नहीं लगा सकता जुर्म। अगर पुरानी किताबों से भगवान चलता होगा, तो हिटलर को बिलकुल निर्दोष पाएगा। उसने खून किसी का गिराया ही नहीं, किसी की छाती में उसने छुरा मारा नहीं, उसने ऐसी तरकीब निकाली जिसका कहीं वर्णन ही नहीं था। उसने बिलकुल नई तरकीब निकाली, गैस चेंबर। जिसमें आदमी को खड़ा करो, बिजली की गर्मी तेज करो, एकदम वाष्पीभूत हो जाए, एकदम हवा हो जाए, बात खतम हो गई। उस आदमी का फिर नामोल्लेख भी खोजना मुश्किल है, हड्डी खोजना भी मुश्किल है, उस आदमी की चमड़ी खोजना मुश्किल है। वह गया। पहली दफा हिटलर ने इस तरह आदमी उड़ाए जैसे पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है। पानी कहां, गया, पता लगाना मुश्किल है। ऐसे सब खो गए आदमी। ऐसे गैस चेंबर बनाकर उसने एक करोड़ आदमियों को अंदाजन गैस चेंबर में उड़ा दिया।


ऐसे आदमी को जल्दी गर्भ मिलना बड़ा मुश्किल है। और अच्छा ही है कि नहीं मिलता। नहीं तो बहुत कठिनाई हो जाए। अब हिटलर को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी फिर। बहुत समय लग सकता है हिटलर को दोबारा वापस लौटने के लिए। बहुत कठिन है मामला। क्योंकि इतना निकृष्ट गर्भ अब फिर से उपलब्ध हो। और गर्भ उपलब्ध होने का मतलब क्या है? गर्भ उपलब्ध होने का मतलब है, मां और पिता, उस मां और पिता की लंबी श्रृंखला दुष्टता का पोषण कर रही है लंबी श्रृंखला। एकाध जीवन में कोई आदमी इतनी दुष्टता पैदा नहीं कर सकता है कि उसका गर्भ हिटलर के योग्य हो जाए। एक आदमी कितनी दुष्टता करेगा? एक आदमी कितनी हत्याएं करेगा? हिटलर जैसा बेटा पैदा करने के लिए, हिटलर जैसा बेटा किसी को अपना मां बाप चुने इसके लिए सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों की लंबी कठोरता की परंपरा ही कारगर हो सकती है। यानी सैकड़ों, हजारों वर्ष तक कोई आदमी बूचड़खाने में काम करते ही रहे हों, तब नस्ल इस योग्य हो पाएगी, वीर्याणु इस योग्य हो पाएगा कि हिटलर जैसा बेटा उसे पसंद करे और उसमें प्रवेश करे।



ठीक वैसा ही भली आत्मा के लिए भी है। लेकिन सामान्य आत्मा के लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। क्योंकि उसकी इतनी भीड़ है और उसके लिए चारों तरफ इतने गर्भ तैयार हैं और उसकी कोई विशेष मांगें भी नहीं हैं। उसकी मांगें बड़ी साधारण हैं। वही खाने की, पीने की, पैसा कमाने की, काम— भोग की, इज्जत की, आदर की, पद की, मिनिस्टर हो जाने की, इस तरह की सामान्य इच्छाएं हैं। इस तरह की इच्छाओं वाला गर्भ कहीं भी मिल सकता है, क्योंकि इतनी साधारण कामनाएं हैं कि सभी की हैं। हर मां —बाप ऐसे बेटे को चुनाव के लिए अवसर दे सकता है। लेकिन अब किसी आदमी को एक करोड़ आदमी मारने हैं, किसी आदमी को ऐसी पवित्रता से जीना है कि उसके पैर का दबाव भी पृथ्वी पर न पड़े, और किसी आदमी को इतने प्रेम से जीना है कि उसका प्रेम भी किसी को कष्ट न दे पाए, उसका प्रेम भी किसी के लिए बोझिल न हो जाए, तो फिर ऐसी आत्माओं के लिए तो प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।


 मैं मृत्यु सिखाता हूँ 


ओशो 

एक मित्र ने सुबह की चर्चा के बाद पूछा है कि क्या कुछ आत्माएं शरीर छोड़ने के बाद भटकती रह जाती हैं?


कुछ आत्माएं निश्चित ही शरीर छोड़ने के बाद एकदम से दूसरा शरीर ग्रहण नहीं कर पाती हैं। उसका कारण? उसका कारण है। और उसका कारण शायद आपने कभी न सोचा होगा कि यह कारण हो सकता है। दुनिया में अगर हम सारी आत्माओं को विभाजित करें, सारे व्यक्तित्वों को, तो वे तीन तरह के मालूम पड़ेंगे। एक तो अत्यंत निकृष्ट, अत्यंत हीन चित्त के लोग; एक अत्यंत उच्च, अत्यंत श्रेष्ठ, अत्यंत पवित्र किस्म के लोग; और फिर बीच की एक भीड़ जो दोनों का तालमेल है, जो बुरे और भले को मेल मिलाकर चलती है। जैसे कि अगर डमरू हम देखें, तो डमरू दोनों तरफ चौड़ा है और बीच में पतला होता है। डमरू को उलटा कर लें। दोनों तरफ पतला और बीच में चौड़ा हो जाए तो हम दुनिया की स्थिति समझ लेंगे। दोनों तरफ छोर और बीच में मोटा डमरू उलटा। इन छोरों पर थोड़ीसी आत्माएं हैं।


निकृष्टतम आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में और श्रेष्ठ आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में। बीच की आत्माओं को जरा भी देर नहीं लगती। यहां, मरे नहीं, वहां, नई यात्रा शुरू हो गई। उसके कारण हैं। उसका कारण यह है कि साधारण, मीडियाकर मध्य की जो आत्माएं हैं, उनके योग्य गर्भ सदा उपलब्ध रहते हैं।


मैं आपको कहना चाहूंगा कि जैसे ही आदमी मरता है, मरते ही उसके सामने सैकड़ों लोग संभोग करते हुए, सैकड़ों जोड़े दिखाई पड़ते हैं, मरते ही। और जिस जोड़े के प्रति वह आकर्षित हो जाता है वहां, वह गर्भ में प्रवेश कर जाता है। लेकिन बहुत श्रेष्ठ आत्माएं साधारण गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकतीं। उनके लिए असाधारण गर्भ की जरूरत है, जहॉं असाधारण संभावनाएं व्यक्तित्व की मिल सकें। तो श्रेष्ठ आत्माओं को रुक जाना पड़ता है। निकृष्ट आत्माओं को भी रुक जाना पडता है, क्योंकि उनके योग्य भी गर्भ नहीं मिलता। क्योंकि उनके योग्य मतलब अत्यंत अयोग्य गर्भ मिलना चाहिए वह भी साधारण नहीं।


श्रेष्ठ और निकृष्ट, दोनों को रुक जाना पड़ता है। साधारण जन एकदम जन्म ले लेता है, उसके लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए निरंतर बाजार में गर्भ उपलब्ध हैं। वह तत्काल किसी गर्भ के प्रति आकर्षित हो जाता है।


सुबह मैंने बारदो की बात की थी। बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से यह भी कहा जाता है कि अभी तुझे सैकड़ों जोड़े भोग करते हुए, संभोग करते हुए दिखाई पड़ेंगे। तू जरा सोच कर, जरा रुक कर, जरा ठहर कर, गर्भ में प्रवेश करना। जल्दी मत करना, ठहर, थोड़ा ठहर! थोड़ा ठहर कर किसी गर्भ में जाना। एकदम मत चले जाना।


जैसे कोई आदमी बाजार में खरीदने गया है सामान। पहली दुकान पर ही प्रवेश कर जाता है। शो रूम में जो भी लटका हुआ दिखाई पड़ जाता है, वही आकर्षित कर लेता है। लेकिन बुद्धिमान ग्राहक दस दुकान भी देखता है। उलट पुलट करता है, भाव ताव करता है, खोज बीन करता है, फिर निर्णय करता है। नासमझ जल्दी से पहले ही जो चीज उसकी आंख के सामने आ जाती है, वहीं चला जाता है।


मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 
तो बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से कहा जाता है कि सावधान! जल्दी मत करना। जल्दी मत करना। खोजना, सोचना, विचारना, जल्दी मत करना। क्योंकि सैकड़ों लोग निरंतर संभोग में रत हैँ। सैकड़ों जोड़े उसे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। और जो जोड़ा उसे आकर्षित कर लेता है, और वही जोड़ा उसे आकर्षित करता है जो उसके योग्य गर्भ देने के लिए क्षमतावान होता है।
तो श्रेष्ठ और निकृष्ट आत्माएं रुक जाती हैं। उनको प्रतीक्षा करनी पड़ती है कि जब उनके योग्य गर्भ मिले। निकृष्ट आत्माओं को उतना निकृष्ट गर्भ दिखाई नहीं पड़ता, जहां, वे अपनी संभावनाएं पूरी कर सकें। श्रेष्ठ आत्मा को भी नहीं दिखाई पड़ता।
निकृष्ट आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम प्रेत कहते हैं। और श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम देवता कहते हैं। देवता का अर्थ है, वे श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक गईं। और प्रेत का अर्थ है, भूत का अर्थ है, वे आत्माएं जो निकृष्ट होने के कारण रुक गईं। साधारण जन के लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध है। वह तत्काल मरा और प्रवेश कर जाता है। क्षण भर की भी देरी नहीं लगती। यहा समाप्त नहीं हुआ, और वहां, वह प्रवेश करने लगता है।

एक मित्र ने पूछा है कि यदि ध्यान से समाधि में जाया जा सकता है और समाधि से परमात्मा को जाना जा सकता है तो फिर आजकल के मंदिरों में जाना व्यर्थ है? और उन्हें हटा देना चाहिए?

मंदिरों में जाना तो व्यर्थ है, हटाने की कोशिश भी उतनी ही व्यर्थ है। जिनमें भगवान है ही नहीं, उनको हटाने की झंझट में भी किसी को नहीं पड़ना चाहिए। वे बेचारे जहां, हैं, हैं। उन्हें हटाने का क्या सवाल है? और अक्सर यह दिक्कत होती है। जैसे कि मोहम्मद ने लोगों को कहा कि मूर्ति में परमात्मा नहीं है। तो मुसलमानों ने सोचा कि मूर्तियों को मिटा डालना चाहिए। और तब एक बड़े मजे का काम शुरू हुआ दुनिया में—स्व तरफ मूर्तियों को बनाने वाले पागल हैं और दूसरी तरफ मूर्तियों को मिटाने वाले पागलों की जमात खड़ी हो गई। अब मूर्ति को बनाने वाला मूर्ति को बनाने में परेशान है और मूर्ति को मिटाने वाला दिन रात इस उधेड़बुन में लगा है कि मूर्ति को कैसे मिटा दें।


अब कोई पूछे कि मोहम्मद ने यह कब कहा था कि मूर्ति के तोड़ देने में भगवान है। मूर्ति में न होगा, लेकिन मूर्ति के तोड़ देने में है, यह किसने कहा? और अगर मूर्ति के तोड़ देने में भगवान है तो फिर मूर्ति के होने में भी क्या कठिनाई है? उसमें भी भगवान हो सकता है। अगर न होगा, तो तोड्ने में कैसे हो जाएगा।


मैं नहीं कहता हूं कि मंदिरों को हटा देना चाहिए। मैं यह कहता हूं कि इस सत्य को जानना चाहिए कि वह सब जगह है। और जब हम इस सत्य को जानेंगे, तो सब कुछ ही उसका मंदिर हो जाएगा। तब मंदिर और गैरमंदिर को अलग करना मुश्किल होगा। तब जहां, हम खड़े होंगे वहां, उसका मंदिर होगा, जहां, आंख उठाएंगे वहां, उसका मंदिर होगा, जहां, बैठेंगे वहां, उसका मंदिर होगा। तब दुनिया में तीर्थ न रह जाएंगे, क्योंकि पूरी दुनिया उसका तीर्थ होगी। तब उसकी अलग अलग मूर्तियां डालना व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि तब जो भी है, उसकी ही मूर्ति होगी। मैं जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि जाकर मंदिर मिटाने में लगें, या मंदिर हटाने में लगें, या किसी को समझाने जाएं कि मंदिर मत जाओ। क्योंकि मैंने यह कभी नहीं कहा कि मंदिर में भगवान नहीं है। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि जो मंदिर में ही देखता है, उसे भगवान का कोई पता नहीं है।

जिसे भगवान का पता होगा, उसे तो सब जगह भगवान होगा। मंदिर में भी, नहीं मंदिर हैं वहा भी। तब वह फर्क कैसे करेगा कि कौनसा मंदिर है और कौनसा मंदिर नहीं है। क्योंकि मंदिर हम उसे कहते हैं, जहां, भगवान है। और जब सब जगह भगवान है, तो सभी जगह मंदिर है। फिर अलग से मंदिर बनाने की जरूरत न रह जाएगी। और मंदिर तोड्ने की भी कोई जरूरत न रह जाएगी।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 

ईश्वर

क्या ईश्वर भी बहुत प्रकार के हैं? हिंदू का ईश्वर अलग ढंग का है। और मूर्ति तोड़ दी जाए तो हिंदू के ईश्वर का अपमान हो जाता है। और मुसलमान का ईश्वर और प्रकार का है। और अगर मस्जिद तोड़ दी जाए, आग लगा दी जाए, तो उसके ईश्वर का अपमान हो जाता है।

ईश्वर तो उसका नाम है जो है। मस्जिद में भी वह उतना ही है जितना मंदिर में। बूचड़खाने में भी वह उतना ही है जितना मंदिर में। और शराब घर में भी उतना ही है जितना मस्जिद में। चोर के भीतर वह उतना ही है, जितना महात्मा के भीतर है। रत्ती भर कम नहीं है। हो भी नहीं सकता। आखिर चोर के भीतर कौन होगा, अगर परमात्मा न होगा? वह राम के भीतर उतना ही है, जितना रावण के भीतर। रत्ती भर कम नहीं हो सकता रावण के भीतर। वह हिंदू के भीतर भी उतना ही है, जितना मुसलमान के भीतर।


लेकिन वह जो हमारा गृह उद्योग है भगवान बनाने का, उस गृह उद्योग को बड़ा धक्का लग जाएगा अगर हम यह मान लें कि सभी के भीतर वही है। तो हमें अपना अपना ईश्वर थोपे चले जाना चाहिए। अगर एक फूल में हिंदू भी ईश्वर देखे और मुसलमान भी, तो भी झगड़ा हो सकता है, क्योंकि उस फूल में हिंदू अपना ईश्वर ढालेगा, मुसलमान अपना ईश्वर ढालेगा। हिंदू मुसलमान तो जरा दूर की बातें हैं, पास पास की दुकानों में भी झगड़े होते हैं। ये दुकानें तो जरा फासले पर हैं। काशी और मक्का में काफी फासला है, लेकिन काशी में राम के और कृष्ण के मंदिर में इतना फासला नहीं है। वहा भी झगड़ा इतना ही होता है।


 

मैं मृत्यु सिखाता हूँ 


ओशो 

संकल्प शक्ति

एक आदमी ने तय किया कि आज खाना नहीं खाएंगे। इसका जो मूल्य है, वह खाना नहीं खाने में उतना नहीं है, जितना इसके संकल्प में है। लेकिन उसने अगर मन में भी एक दफा खाना खा लिया, तो बात खतम हो गई, बेकार हो गया सब मामला। खाना नहीं खाएंगे, उसका मतलब ही यही है कि खाना नहीं ही खाएंगे, मन में भी नहीं। अगर दिन भर एक आदमी बारह घंटे भी मनपूर्वक बिना खाना खाए रह गया, तो उसने एक बड़ा संकल्प पार किया। इस खाना नहीं खाने का कोई मूल्य नहीं है, यह तो सिर्फ खूंटी है जिस पर उसने संकल्प को टांगा। लेकिन बारह घंटे के बाद इस आदमी की क्वालिटी बदल जाएगी।


और जब मैं देखता हूं कि एक आदमी वर्षों से उपवास कर रहा है, उसकी कोई क्वालिटी नहीं बदली, तो मैं जानता हूं कि वह मन में खाता रहा होगा। क्यालिटी तो बदलनी चाहिए थी। जिंदगी हो गई इसको खाना नहीं खाते, यह उपवास करता है, वह उपवास करता है, लेकिन इसके गुण में कहीं भी कोई अंतर नहीं पड़ा है। यह आदमी वही का वही है। ताला लगाकर जाता है और फिर लौटकर ताला हिला कर देखता है कि बंद है या नहीं।


एक आदमी को मैं जानता हूं। मेरे घर के सामने ही वे रहते हैं। वे उपवास करते हैं, पूजापाठ करते हैं, लेकिन संकल्प के ऐसे कमजोर हैं कि मैंने उन्हें कई दफा देखा है कि वे ताला लगाकर गए, दस कदम से वापस लौटे, फिर उन्होंने उसे हिलाया। तो मैंने उनसे पूछा कि आप क्या करते हैं! आप ही ताला लगा कर गए। वे कहते हैं, मुझे कभी कभी शक हो जाता है कि पता नहीं, मैंने देखा कि नहीं, जरा और देख लें। एक दफा देखने में हर्जा क्या है। उन्होंने कहा, एक दफा लौटकर देख लेने में हर्ज क्या है। मैंने कहा, और दूसरी दफा खयाल नहीं आता कि पता नहीं मैंने एक दफा लौटकर देखा कि नहीं। उन्होंने कहा, आपको यह कैसे पता चला? आता तो है मुझे, लेकिन मैं संकोच के वश लौटता नहीं हूं। मुझे दूसरी दफे क्या, तीसरी दफे भी खयाल आता है कि मैंने देखा कि नहीं।


अब यह एक आदमी है। यह उपवास कर रहा है, यह सब कर रहा है, लेकिन इसे पता ही नहीं है कि उपवास का मतलब क्या था। उसका मतलब इतना ही था कि एक डिसीसिवनेस आ जाए, एक निर्णायक शक्ति आ जाए। आदमी निर्णय ले सके और लौटे नहीं। और जो आदमी भी ऐसा निर्णय ले सकता है, जो प्वाइंट आफ नो रिटर्न सिद्ध हो, जिससे लौटना नहीं होता, तो उस आदमी की जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता जो सोया हुआ रह जाए, सब जाग ही जाता है।


मैं मृत्यु सिखाता हूँ


ओशो 

मुक्ति सौंदर्य है और बंधन गुलामी

हर आदमी कहता है, बचपन में दुख नहीं था। अगर लौट सकता हो आदमी, फौरन लौट जाए। वह तो लौट नहीं सकता है, इसलिए रुका रह जाता है। कहता है बचपन में दुख नहीं था। अगर उसका वश चले तो वह कहे कि मां के गर्भ में बिलकुल दुख नहीं था। अगर लौट सके तो लौट जाए, लेकिन लौट नहीं सकता। फिर आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जीवन के चुनाव में हम पीछे लौट सकते हैं। हम मूर्च्छा में लौट सकते हैं। हम तरकीबें खोज सकते हैं कि हम मूर्च्छित हो जाएं।


और वह जो दूर से आवाजें आती हैं, उन आवाजों के शब्द भी हमारी समझ में नहीं आते। क्योंकि आनंद हम जानते नहीं कि किस चीज का नाम है! कौन सी चिड़िया है जिसको आनंद कहें! दुख हम जानते हैं, अच्छी तरह जानते हैं। और हम यह भी जानते हैं कि जितना सुख पाने की कोशिश की, उतना दुख पाया। अब यह भी डर लगता है कि आनंद पाने की कोशिश में कहीं और झंझट में न पड़ जाएं। जितना सुख पाने की कोशिश की उतना दुख पाया, तो यह आनंद हमें सुख का निकटतम मालूम पड़ता है कि कुछ सुख की ही गहन अनुभूति होगी। मगर झंझट से भी डरते हैं, क्योंकि सुख पाने की जितनी कोशिश की उतना दुख पाया, कहीं आनंद पाने की कोशिश में और भी मुसीबत न हो जाए, कहीं कोई महा दुख न मिल जाए। इसलिए सुन लेते हैं, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेते हैं। उस पार के लोगों को कहते हैं, तुम भगवान हो, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो, बड़े अच्छे हो। हम तुम्हारी पूजा करेंगे, लेकिन हमें पीछे लौटना है।


अज्ञात का भय मालूम पड़ता है। जो थोड़े  बहुत सुख हमने जमा रखे हैं, कहीं वे भी न छूट जाएं। वे सब छूटते मालूम पड़ते हैं आगे बढ़ो तो। क्योंकि हमने उसी सेतु पर जो कि सिर्फ पार होने के लिए था, घर बना लिया है, वहीं रहने लगे हैं। वहीं हमने सब इंतजाम कर लिया है। अपना बैठकखाना जमा लिया है उसी सेतु पर। अब कोई हमें कहता है, आगे आ जाओ, तो हमें डर लगता है कि इस सब का क्या होगा! यह सब छोड़ कर जाना पड़ेगा आगे! तो हम कहते हैं, जरा वक्त आने दो, बूढ़े होने दो, मौत करीब आने दो। जब यह सब छूटने लगेगा, तब हम एकदम से आ जाएंगे, क्योंकि फिर कोई डर नहीं रहेगा।


लेकिन जितनी मौत करीब आती है, उतनी पकड़ गहरी होती है। क्योंकि जितनी मौत करीब आती है उतना डर लगता है कि छूट न जाए, तो मुट्ठी जोर से कसते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी निपट कृपण हो जाता है, जवान आदमी उतना कृपण नहीं होता। उसकी कृपणता बढ़ जाती है बूढ़े की सब तरफ से। वह एकदम जोर से पकड़ता है। वह कहता है, अब जाने का वक्त हुआ, कहीं सब छूट न जाए। अगर ढीला पड़ा, कहीं हाथ न छूट जाए, इसलिए जोर से पकड़ लेता है। यह जोर की पकड़ ही बूढे आदमी को कुरूप कर जाती है, अन्यथा बूढ़े आदमी के सौंदर्य का कोई मुकाबला न हो। हम सुंदर बच्चे जानते हैं, फिर उनसे कम सुंदर जवान जानते हैं, और सुंदर के तो बहुत कम हैं। कभी कभी घटना घटती है। क्योंकि जैसे जैसे कृपणता बढ़ती है और पकड़ बढ़ती है, वैसे वैसे सब कुरूप होता जाता है।


खुले हाथ सुंदर हैं, बंधी हुई मुट्ठी कुरूप हो जाती है। मुक्ति सौंदर्य है और बंधन गुलामी। सोचता तो है कि छोड़ देंगे कल, जब मौका छोड़ने के लिए आ जाएगा तब छोड़ देंगे। लेकिन जो आदमी उस मौके की प्रतीक्षा करता है कि वह जब उससे छीना जायेगा तब छोड़ेगा, वह आदमी छोड़ना ही नहीं चाहता। और जब छीना जाता है तब पीड़ा आती है, और जब छोडा जाता है तो पीड़ा नहीं आती।


में मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 


चुनाव

एक वृक्ष अफ्रीका का वृक्ष सैकड़ों फुट ऊपर चला जाएगा। वह धूप की तलाश कर रहा है। अफ्रीका का वृक्ष लंबा हो जाएगा। हिंदुस्तान का वृक्ष उतना लंबा नहीं होगा, क्योंकि उतने घने जंगल नहीं हैं। जब घना जंगल होता है तो वृक्ष को अपनी जिंदगी बचाने के लिए ऊंचाई ऊंचाई ऊंचाई खोजनी पड़ती है, ताकि दूसरे वृक्षों के पार जाकर वह सूरज की रोशनी ले सके। अगर वह नहीं खोजता ऊंचाई, तो मर जाएगा। वह उसकी जिंदगी का सवाल है।


तो वृक्ष थोड़ा सा चुनाव कर रहा है। घना जंगल होगा, तो वृक्ष चौड़े कम होने लगेंगे, लंबे ज्यादा होने लगेंगे, कोनीकल हो जाएंगे। क्योंकि चौड़ा होना खतरनाक है, चौड़े में मर जाएंगे, इधर उधर के वृक्षों में उलझ जाएंगी शाखाएं और सूरज तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। अब सूरज तक पहुंचना है तो शाखाएं मत निकालो, अब तो एक ही पीड़ को लंबा करो। यह भी चुनाव है। यह भी वृक्ष चुन रहा है। इसी वृक्ष को अगर तुम ऐसे मुल्क में ले आओ जहां घने जंगल नहीं हैं, तो उसकी लंबाई कम हो जाएगी।


कुछ वृक्ष थोड़ा बहुत सरकते भी हैं। साल में दस पांच फीट सरक जाते हैं। उसका मतलब है, वह कुछ जड़ों को चलाते हैं पैरों की तरह। जिस तरफ उनको जाना है उस तरफ की जड़ों को मजबूत करके पकड़ लेते हैं, और जहां से छोड़ना है वहां की जड़ों को ढीला करके छोड़ देते हैं, तो थोड़ा सा सरक जाते हैं। दलदली जमीन हो तो उनको आसानी मिल जाती है। थोड़ासा सरकने लगते हैं।


कुछ वृक्ष और तरह की भी तैयारियां करते हैं, पक्षियों को लुभाते हैं, क्योंकि कुछ वृक्ष मांसाहारी हैं। तो पक्षियों को लुभाते हैं, फंसाते हैं और पक्षी आ जाएं, तो फौरन पत्ते बंद कर लेते हैं। और पक्षियों को लुभाने के उन्होंने बड़े इंतजाम किए हुए हैं। उनके ऊपर थालियों जैसे पत्ते होंगे। थालियों में बड़ा सुगंधित रस होगा। वह रस अपनी थालियों में भरे रहेंगे। स्वभावत: उनका रस दूर दूर से सुगंध की वजह से पक्षियों को खींचेगा। पक्षी उस रस को पीने आकर बैठे नहीं कि चारों तरफ के पत्ते उस थाली पर बंद होकर पक्षी को दबा लेंगे। उसका खून पी जाएगा वृक्ष। अब नहीं कहा जा सकता कि यह चुनाव नहीं कर रहा है। यह चुनाव कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ इंतजाम भी कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ खोज भी कर रहा है।


पशु और भी ज्यादा चुनाव कर रहे हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं। लेकिन इन सबके चुनाव मनुष्य के चुनाव की दृष्टि से बहुत साधारण हैं।

मनुष्य के सामने और बड़े चुनाव हैं, क्योंकि उसकी चेतना और भी विकसित हो गई है। अब वह शरीर से ही नहीं चुनता है, अब वह मन से भी चुनता है। और अब वह जगत में पृथ्वी की यात्रा ही नहीं चुनता, पृथ्वी के ऊपर वर्टिकल यात्रा भी चुनता है। वह भी उसका चुनाव है। लेकिन है हाथ में सदा।


अब इस संबंध में अभी खोजबीन होनी बाकी है, लेकिन मुझे लगता है कि जिस दिन भी खोजबीन होगी, यह बात पाई जा सकेगी। कुछ वृक्ष हो सकते हैं, जो सुसाइडल हों, जो जीना न चुनें और जहां घना जंगल है, वहां भी छोटे रह जाएं और मर जाएं। अब यह खोजबीन होनी बाकी है। आदमी में तो हमें साफ दिखाई पड़ता है कि कुछ लोग सुसाइडल हैं। वे जीने को नहीं चुनते, मरने को चुनते रहते हैं। उनको जहां भी कांटा दिखाई पड़े, वह बिलकुल दीवाने की तरह काटे की तरफ जाते हैं। फूल दिखाई पड़े, तो उन्हें जंचते ही नहीं। उन्हें जहां हार दिखाई पड़े, वहा वह बिलकुल हिप्नोटाइज होकर सरकते हैं। जहां जीत दिखाई पड़े, वहा वे पच्चीस बहाने बनाते हैं। जहां विकास की संभावना हो, उसके खिलाफ वे हजार तर्क इकट्ठे कर लेते हैं। जहां पतन का सुनिश्चित विश्वास हो उनको, वहां वे बिलकुल बेधड़क बढ़े चले जाते हैं।

यह सब चुनाव है। और यह चुनाव जितना मनुष्य जागरूक होता चला जाएगा उतना ही यह चुनाव आनंद की ओर अग्रसर होने लगेगा। जितना मूर्च्छित होगा, उतना दुख की तरफ अग्रसर होता रहेगा।

तो जब मैं कहता हूं कि चुनना ही पड़ेगा। भाप बनने के उपाय हैं, लेकिन भाप की जगह तुम्हें पहुंचना पड़ेगा। बर्फ बनने के उपाय हैं, बर्फ की जगह तुम्हें पहुंचना पड़ेगा। जिंदा रहने के उपाय हैं, लेकिन जिंदगी की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। मरने के उपाय हैं, मरने की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। चुनाव तुम्हारा है। और तुम और प्रकृति दो नहीं हो। तुम ही प्रकृति हो।


 

सपनो की व्याख्या

एक कहानी तुमसे कहूं। एक झेन फकीर हुआ। सुबह उठा…….और उस फकीर का स्वप्नों के विश्लेषण पर बड़ा भरोसा था। हैं भी स्वप्न बड़े काम के। वे आदमी के संबंध में बड़ी खबरें लाते हैं। और चूंकि आदमी झूठा है, इसलिए स्वप्न से खबर मिल सकती है, झूठी चीजों से खबर मिल सकती है।

उस फकीर का भी सपने में बड़ा रस था। और वह अपने शिष्यों से, साधकों से सपने पूछा करता था। क्योंकि हो सकता है, एक साधक आकर तो यह कहे कि मुझे भगवान को खोजना है, और रात सपने देखे हीरे की खदान खोजने का। इसका भगवान से कोई मतलब नहीं है। हो सकता है, यह भगवान को भी इसीलिए खोज रहा हो कि अगर भगवान मिल जाएं, तो जरा हीरे की खदान का पता पूछ लें। क्योंकि इसका सपना इसकी खबर दे रहा है कि इसकी असली खोज क्या है।

तो वह फकीर अपने साधकों के सपनों की डायरी रखवाता था कि डायरी लिखो। सच में अगर लोग अपनी आत्मकथाओं में जागने का समय छोड़ दें, सिर्फ नींद के समय की आत्मकथाएं लिखें तो दुनिया ज्यादा अच्छी हो सकेगी। और हम आदमियों के बाबत ज्यादा सच्ची बातें जान सकेंगे। दिन तो बड़ी झूठी दुनिया है। क्योंकि झूठा आदमी उसे बिलकुल आयोजित करता है। सपने में फिर भी एक सचाई है, क्योंकि वह अनआयोजित है, अनप्लांड है, अपने आप होता है। उसकी एक सचाई है। अगर हम सारी दुनिया के महात्माओं के सपनों को पकड़ लें, तो इतने महात्मा हमें दुनिया में दिखाई न पड़े, जितने दिखाई पड़ते हैं। इनमें से अधिक हिस्सा अपराधियों का मिलेगा। ही, ऐसे अपराधियों का, जो बाजार में जाकर अपराध नहीं करते, मन में कर लेते हैं।


तो वह फकीर अपने साधकों को पूछता रहता था। एक दिन सुबह वह उठा, उठकर बैठा ही था अपने बिस्तर पर कि उसका एक फकीर साधक वहां से निकल रहा था। उसने कहा कि रुक, रात मैंने एक सपना देखा, जरा व्याख्या कर। करेगा व्याख्या? उस साधक ने कहा, जरा रुके, मैं व्याख्या ले आऊं। उसने कहा, व्याख्या ले आऊं! फिर भी वह रुका। वह फकीर भीतर गया और वहा से एक पानी का जग लेकर आ गया। उसने कहा, जरा थोड़ा हाथ मुंह धो डालें। जब टूट ही गया है, तो अब क्या व्याख्या! हाथ मुंह धो डालें, जिससे कि जो भ्रम भी रह गया है थोड़ा सा सपने का, सपने का जो थोड़ासा स्वर भी रह गया है, वह साफ हो जाए।


उस फकीर ने कहा, बैठ जा! तेरी व्याख्या जंचती है। फिर दूसरा फकीर गुजर रहा था। उसने उसको बुलाया और कहा, सुन, रात मैंने एक सपना देखा है। इसने कुछ थोड़ी व्याख्या की है, यह पानी का जग रखा है। तू व्याख्या करेगा? उसने कहा, अभी आया, दो क्षण रुके। वह भागा हुआ गया और एक चाय का कप ले आया। उसने कहा, आप एक कप चाय पी लें और बात खतम। क्योंकि जब नींद ही खुल गई, हाथ मुंह ही धो डाला गया, तब मुझे क्यों फंसाते हैं? उस फकीर ने कहा, बैठ तेरी बात जंचती है। लेकिन अगर आज तुमने व्याख्या की होती, तो आश्रम के बाहर कर देता। तुम बच गए, बाल बाल बच गए, अगर आज तुमने व्याख्या की होती तो आश्रम के बाहर कर देता। क्योंकि जब सपना टूट ही चुका तो क्या व्याख्या करनी है!


लेकिन जब तक सपना चल रहा है, तब तक व्याख्या करनी है। मेरी सब व्याख्याएं सपने कीव्याख्याएं हैं। और सपने की व्याख्याएं सच नहीं हो सकतीं। मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम! सपने की व्याख्या क्या खाक सच होगी, जब सपना ही सच नहीं होता! लेकिन सपने की व्याख्या सपने के तोड्ने में सहयोगी हो सकती है। और वही टूट जाए तो तुम जाग जाओगे। जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तुम नहीं कहोगे कि सपना सच था, नहीं कहोगे कि व्याख्या सच थी। तुम कहोगे, एक खेल था जो समाप्त हुआ। और उस खेल के दो पहलू थे। सपने में रमने का एक पहलू था, सपने को तोड्ने का एक पहलू था। सपने में रमने का नाम संसार है, सपने को तोड्ने वाली व्याख्याओं का नाम संन्यास है बाकी हैं सब दोनों सपने के भीतर की बातें। सपने में रमने का नाम संसार है, सपने को तोड्ने की चेष्टा संन्यास है, लेकिन हैं दोनों सपने की बातें। और जब सपना टूट जाएगा, तो न संसार होगा, न संन्यास होगा। तब जो होगा, वह सत्य है।




में मृत्यु सिखाता हूँ

ओशो 


साधना क्या है ?

चेखव की एक छोटीसी कहानी है। दो पुलिस के सिपाही एक रास्ते से गुजर रहे हैं। एक छोटीसी होटल है। वहां बड़ी भीड़ है। एक आदमी ने एक कुत्ते की टांग पकड़ रखी है। और वह कह रहा है, इसको मार ही डालेंगे। इसने मुझे काटा है, यह औरों को भी काट चुका है। और भीड़ में सब मजा ले रहे हैं, वे कह रहे हैं, मार ही डालो। वे पुलिस वाले भी दोनों जाकर खड़े हो गए हैं। और पुलिस वालों को भी कुत्ते सताते हैं। पुलिस वालों पर कुत्ते विशेष ध्यान रखते हैं। तो उन कुत्तों से वे पुलिस वाले भी परेशान थे। उन्होंने कहा, यह बहुत अच्छा कर रहे हो, यह काम करने योग्य ही था। इस कुत्ते को मार ही डालो, यह हमें भी रात में हैरान करता है।


तभी बगल वाले पुलिस वाले ने कहा कि जरा खयाल रखना, यह तो मुझे ऐसा लगता है कि अपने बड़े साहब का कुत्ता है। तो वह पहला सिपाही जो कह रहा था कि मार ही डालो, उसने फौरन उस आदमी की गर्दन पकड ली जो कुत्ते को पकड़े था। उसने कहा, बदमाश। ट्राफिक में भीड इकट्ठी की है तूने? और यहां यह उपद्रव मचा रहा है? थाने चल! और दूसरे पुलिस वाले ने जल्दी से उस कुत्ते को उठाया और कंधे पर ले लिया और पुचकारने लगा। और जब उसने उसको पुचकारा और जब उस आदमी को पकड़ लिया, सारी भीड़ हैरान हो गई कि क्या हो गया। अभी यह कह रहा था, मार डालो!


लेकिन दूसरे ही क्षण उस कुत्ते को गौर से देखकर दूसरे साथी ने कहा, नहीं, यह तो साहब वाला कुत्ता नहीं मालूम पड़ता। तो उस सिपाही ने जल्दी से कुत्ते को नीचे पटका और उस आदमी को कहा, पकड़ इस कुत्ते को, मार डाल इसको। यह कुत्ता बड़ा खतरनाक है। लेकिन जब तक उस आदमी ने उस कुत्ते को पकड़ा, उस पहले सिपाही ने फिर उससे कहा कि भई, कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता है। यह दिखता तो बिलकुल मालिक का ही कुत्ता है।


तो ऐसी वह कहानी चलती है और उस कुत्ते के बाबत कई दफा रुख बदलता है, क्योंकि कई दफे प्रयोजन बदल जाता है। कुत्ता वही है, आदमी वही है, सिपाही वही है, सब वही है। चीजें जैसी हैं वे बिलकुल वैसी हैं, लेकिन कहानी दो चार दफे रुख बदल लेती है, क्योंकि हर बार प्रयोजन बदल जाता है। कभी वह मालिक का कुत्ता हो जाता है, कभी नहीं रह जाता है। जब वह नहीं रह जाता तो व्यवहार एकदम बदलना पड़ता है। जब वह मालिक का हो जाता है, तब उसको एकदम पुचकारना पड़ता है और व्यवहार बदलना पड़ता है।


हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। मन है, तो हम ऐसे ही जीएंगे। तो जो मैं कह रहा हूं कि साधना… साधना है क्या? साधना है इस मन से छुटकारा। लेकिन जब छुटकारा हो जाएगा, तो फिर साधना का क्या करोगे? इसी मन के साथ उसको भी दफना देना पड़ेगा। यह मन जाएगा उसी के साथ। उससे कहना पड़ेगा, इस साधना को भी लेते जाओ, यह तुम्हारी ही वजह से है। तुम्हारे कारण ही यह साधना पकड़नी पड़ी थी, अब तुम्हीं जा रहे हो तो कृपा करके इसको ले जाओ।


और जब कोई आदमी मन और साधना दोनों से मुक्त हो जाता है, बीमारी और औषधि दोनों से। ध्यान रहे, अगर सिर्फ बीमारी से मुक्त होता है और औषधि जारी रहती है, तब अभी मुक्ति मत समझना। और कई दफे बीमारी उतनी खतरनाक सिद्ध नहीं होती है जितना औषधि का पकड़ जाना खतरनाक सिद्ध होता है। क्योंकि बीमारी दुखद है, उसे छोड़ना आसान पड़ता है। औषधि सुखद है, उसे छोड़ने का मन ही नहीं होता। पर औषधि क्या कुछ बड़ी वांछनीय चीज है! बीमार के लिए है। स्वस्थ के लिए औषधि का कोई अर्थ होता है? स्वस्थ के लिए कोई भी अर्थ नहीं होता। चूंकि तुमने बीमार होने की जिद की है, इसलिए औषधि भी लेने की मजबूरी झेलनी पड़ती है। लेकिन अगर बीमार होने की जिद नहीं कर रहे हो, तो औषधि बेमानी है।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 



सत्य वहां है जहां तुम्हारी शर्त छूट जाती है

एक आदमी धन कमाना शुरू करता है। वह धन कमाता है इसलिए कि आराम से जीयेगे। फिर वर्षों लग जाते हैं धन कमाने में। और धन कमाने में सब आराम खोना पड़ता है, नहीं तो कमायेगा कैसे? सोचा था कि धन कमाएंगे, आराम से जीएंगे। लक्ष्य था आराम से जीएंगे और आराम से जीना हो तो बिना धन के तो जी नहीं सकते। तो धन कमाने में लगा था और धन कमाना हो तो आराम तो नहीं किया जा सकता। आराम छोड़ना पड़ेगा, तब धन कमाया जा सकता है। तो वर्षों तक वह आदमी, समझ लो बीस पच्चीस वर्ष तक सब आराम छोड्कर धन कमा लेता है। अब वह धन तो कमा लेता है, लेकिन आराम करने की आदत छूट गई है। न आराम करने की आदत पकड़ गई।


अब बड़ी मुश्किल हो गई। पच्चीस साल का अभ्यास हो गया। अब उसको आप कहो कि घर बैठो, तो वह कहता है, घर कैसे बैठें! उसके चपरासी पहुंचते हैं दफ्तर में नौ बजे, वह आठ बजे पहुंच जाता है। उसके क्लर्क भाग जाते हैं पांच बजे, वह सात बजे लौटता है। अब वह यह भूल ही गया है कि जो सीडी एक दिन चढने के लिए पकड़ी थी, वह उतरने के लिए ही पकड़ी थी। किसी तल पर जाकर आराम करने उतर जाना था। किसी जगह जाकर जहां धन हो जाए, वहां फिर चुपचाप खिसक जाना था, क्योंकि वह चाहता यही था कि धन से आराम कर सकें।


अब बड़ी मुश्किल हो गई। धन कमाने में आराम खोया, आराम खोने में न  आराम की आदत बन गई। अब न आराम की आदत पकड़ गई। अब वह सोचता है कि आराम कर कैसे सकता हूं। अब वह धन कमाए जाता है। अब वह सीडी पर ही चढ़े जाता है। अब इह सीढ़ी से उतरता ही नहीं। अब उसकी छत कभी आती ही नहीं। अब वह चढ़ता ही जाता है। सीढ़ी पर सीडी बनाए चला जाता है, बनाए चला जाता है। उसे अब तुम कितना ही कहो, बस अब बहुत सीडी बन चुकी, अब उतर आओ। वह कहता है, यह कैसे हो सकता है! अगर आराम करना है, तो सीडी बनानी ही पड़ेगी। अब वह बनाता जाता है।


लेकिन यह धन के साथ ही होता होता तो बहुत दिक्कत न थी। यह धर्म के साथ भी यही होता है। हमारा मन वही है। हमारा मन वही का वही है।


अब एक आदमी धर्म की दुनिया में उतरता है, त्याग करना शुरू करता है। तो वह इसीलिए त्याग करना शुरू करता है कि एक ऐसी जगह आ जाए कि मन पर कोई पकड़ न रह जाए। क्योंकि जहां तक पकड़ है, वहां तक बंधन होगा। तो वह कहता है, सब छोड़ दो। जिस जिस का बंधन हो, उसको छोड़ दो। तो वह छोड़ना शुरू करता है। यह हुई सीढ़ी। अब वह छोड़ता जाता है। वह मकान छोड़ता है, दुकान छोड़ता है, परिवार छोड़ता है, धन छोड़ता है, कपड़े छोड़ता है, वह छोड़ता चला जाता है।


अब बीस पच्चीस साल में उसकी छोड़ने की आदत इतनी मजबूत हो जाती है कि अब वह इस छोड़ने की आदत को नहीं छोड़ पाता। अब यह जड़ पत्थर की तरह उसकी छाती पर बैठ जाती है। अब वह कोई न कोई तरकीब निकालता रहता है कि और क्या छोड़े। अब वह सीडी उसकी चल पड़ी। अब वह कहता है कि खाना छोड़ दें, पानी छोड़ दें, कि नमक छोड़े, कि घी छोड़े, कि शक्कर छोड़े। अब वह इसमें तरकीबें निकालता जाता है। अब वह कहता है कि नींद छोड़े, कि स्नान छोड़े। अब वह छोड़ने की ही तरकीबें निकालता चला जाता है। आखिरी दम वह वहां तक भी पहुंच जाता है कि शरीर छोड़े। हत्या करें, आत्महत्या करें, कि क्या करें। वह सब करता चला जाता है, संथारा कर लें।


ये दोनों एक ही तरह के आदमी हैं। एक ने छोड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं, एक ने पकड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं। लेकिन सीढ़ियों से कोई भी उतरने को राजी नहीं है। और मेरी दृष्टि में सत्य वहा है, जहां सीढ़ियां समाप्त हो जाती हैं और तुम समतल पर आ जाते हो; न जहां चढ़ना है, न जहां उतरना है। सत्य वहां है, जहां तुम्हारी पकड़ छूट जाती है, जहां तुम्हारी शर्त छूट जाती है।


 सत्य वहां है, जहां तुम अभ्यासित चित्त से चीजों को नहीं देखते, अभ्यासशून्य चित्त से चीजों को देखने लग जाते हो।


मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 


‘’किसी कटोरे को उसके पार्श्‍व-भाग या पदार्थ को देखे बिना देखो।‘’


किसी विषय को पूरा का पूरा देखो, उसे टुकड़ो में मत बांटो। क्‍यो? इसलिए कि जब तुम किसी चीज को हिस्‍सों में बांटते हो तो आंखों को हिस्‍सों में देखने का मौका मिलता है। चीज को उसकी समग्रता में देखो। तुम यह कह सकते हो।


मैं तुम सभी को दो ढंग से देख सकता हूं। मैं एक तरफ से देखता हुआ आगे बढ़ सकता हूं। पहले अ को देखू, तब ब को तब स को, और इस तरह आगे बढूं। लेकिन जब मैं अ, और ब या स को देखता हूं तो मैं उपस्‍थित नहीं रहता हूं। यदि उपस्‍थित भी रहूँ तो किनारे पर, परिधि पर उपस्‍थित रहता हूं। और उस हालत में मेरी दृष्‍टि एकाग्र और समग्र नहीं रहती है। क्‍योंकि जब मैं ब को देखता हूं तो अ से हट जाता हूं। और जब से को देखता हूं तो आ पूरी तरह खो जाता है। मेरी निगाह से बाहर चला जाता है। इस समूह को देखने का एक ढंग यह है। लेकिन मैं इस पूरे समूह को व्‍यक्‍तियों में, इकाइयों में बांटे बगैर भी पूरे का पूरा देख सकता हूं।



इसका प्रयोग करो। पले किसी चीज को अंश-अंश में देखो। एक अंश के बाद दूसरे अंश को। और तब अचानक उसे पूरे का पूरा देखो। उसे टुकड़ो-टुकड़ो में मत बांटो। जब तुम किसी चीज को पूरे का पूरा देखते हो, तो आंखों को गति करने की जरूरत नहीं रहती। आंखों को गति करने का मौका न मिले, इस उदेश्‍य से ही ये शर्तें रखी गई है।


पदार्थ कटोरे का भौतिक भाग है। और रूप उसका अभौतिक भाग है। और तुम पदार्थ से अपदार्थ की और गति करते हो। यह सहयोगी होगा; प्रयोग करो। किसी व्‍यक्‍ति के साथ भी प्रयोग कर सकते हो। कोई पुरूष या किसी स्‍त्री खड़ी है, उसे देखो। उस स्‍त्री या पुरूष को पूरे का पूरा समग्ररतः: अपनी दृष्‍टि में समेटो।


शुरू-शुरू में यह कुछ अजीब सा लगेगा। क्‍योंकि तुम इसके आदी नहीं हो। लेकिन अंत में यह बहुत सुंदर अनुभव होगा। और तब यह मत सोचो कि शरीर सुंदर है या असुंदर, गोरा है या काला, मर्द है या औरत। सोचो मत; रूप को देखो, सिर्फ रूप को, पदार्थ को भूल जाओ।


‘’थोड़े ही क्षणों में बोध को उपलब्‍ध हो जाओ।‘’


तुम एकाएक स्‍वयं के प्रति, अपने प्रति बोध कसे भर जाओगे। किसी चीज को देखते हुए तुम अपने को जान लोगे। क्‍यों? क्‍योंकि आंखों को बाहर गति करने की गुंजाइश नहीं है। रूप को समग्रता में लिया गया है। इसलिए तुम उसके अंशों में नहीं जा सकते। पदार्थ को छोड़ दिया गया है; शुद्ध रूप को लिया गया है। अब तुम उसके पदार्थ सोना, चाँदी, लकड़ी वगैरह के सबंध में नहीं सोच सकते । रूप शुद्ध है; उसके संबंध में सोचना संभव नहीं है। रूप बस रूप है; उसके संबंध में क्‍या सोचोगे।



स्‍वय के प्रति जागना जीवन का सर्वाधिक आनंदपूर्ण क्षण है। यही समाधि है। जब पहली बार तुम स्‍वयं के बोध से भरते हो तो उसके जो सौंदर्य, जो आनंद होता है, उसकी तुलना तुम किसी भी जानी हुई चीज से नहीं कर सकते हो। सच तो यह है कि पहली बार तुम स्‍वयं होते हो, आत्म वान होते हो। पहली बार तुम जानते हो कि मैं हूं। तुम्‍हारा होना बिजली की कौंध की तरह पहल बार प्रकट होता है। लेकिन यह क्‍यों होता है।


तुम ने देखा होगा, खासकर बच्‍चों की किताबों में या किसी मनोविज्ञान की किताब में मुझे आशा है कि हरेक ने कहीं न कही देखा होगा एक बूढ़ी स्‍त्री का चित्र। इस चित्र में, जिन रेखाओं से वह चित्र बना है, उसके भीतर ही एक सुंदर युवती का चित्र भी छिपा है। चित्र एक ही है। रेखाएं भी वही है। लेकिन आकृतियां दो है एक बूढी स्‍त्री की और दूसरी युवती की।


उस चित्र की देखो तो एक साथ दोनों चित्रों को नहीं देख पाओगे। एक बार में उनमें से एक का ही बोध तुम्‍हें हो सकता है। अगर बूढी स्‍त्री दिखाई देगी तो वह जवान स्‍त्री नहीं दिखाई देगी, वह छिपी रहेगी। तुम उसे ढूंढना भी चाहोगे तो कठिन होगा; प्रयास ही बाधा बन जाएगा। कारण कि तुम बूढी स्‍त्री के प्रति बोधपूर्ण हो गए हो, तुम उसे न ढूंढ सकोगे। तो इसके लिए तुम्हें एक तरकीब करनी होगी।


बूढी स्‍त्री को एकटक देखो; युवती को बिलकुल भूल जाओ। बूढी स्‍त्री विदा हो जाएगी और उसके पीछे छिपी युवती को तुम देख लोगे। क्‍यों? अगर तुमने उसको ढूंढने की कोशिश की तो तुम चूक जाओगे।


तुम्‍हारी आंखें किसी एक बिंदू पर रुकी नहीं रह सकती है। अगर तुम बूढ़ी स्‍त्री के चित्र पर टकटकी लगाओगे, तो तुम्‍हारी आंखें थक जायेगी। तब वे अकस्‍मात उस चित्र से हटने लगेंगी। और इस हटने के क्रम में ही तुम दूसरे चित्र को देख लोगे। जो उस बूढी स्‍त्री के चित्र के बाजू में छिपा था। उन्‍हीं रेखाओं में छिपा था।


लेकिन चमत्‍कार यह है कि अब तुम्‍हें युवा स्‍त्री का बोध होगा तो बूढ़ी स्‍त्री तुम्‍हारी आंखों से ओझल हो जाएगी। पर अब तुम्‍हें पता है कि दोनों वहां है। शुरू में तो चाहे तुम को विश्‍वास नहीं होता कि वहां एक युवती छिपी है। लेकिन अब तो तुम जानते हो कि बूढी स्‍त्री छिपी है। क्‍योंकि तुम उसे पहले देख चुके हो। अब तुम जानते हो कि बूढ़ी स्‍त्री वहां है। लेकिन जब तक युवती को देखते रहोगे, तुम साथ-साथ बूढ़ी स्‍त्री को नहीं देख सकोगे। और जब बूढ़ी स्‍त्री को देखोगें तो युवती गायब हो जाएगी। दोनों चित्र युगपत नहीं देखे जा सकते। एक बार में एक ही देखा जा सकता है।


बाहर और भीतर को देखने के संबंध में भी यही बात घटित होती है, तुम दोनों को एक साथ नहीं देख सकते। जब तुम कटोरे या किसी चीज को देखते हो तो तुम बाहर देखते हो। चेतना बाहर गति करती है। नदी बाहर बह रही है। तुम्‍हारा ध्‍यान कटोरे पर है; उसे एकटक देखते रहो। यह टकटकी ही भीतर जाने की सुविधा बना देगी। तुम्‍हारी आंखें थक जाएंगी। वे गति करना चाहेंगी। बाहर जाने का कोई उपाय न देखकर नदी अचानक पीछे मुड़ जाएगी। वही एकमात्र संभावना बची है। तुम ने अपनी चेतना को पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया। और जब तुम अपने प्रति जागरूक होगे तो कटोरा विदा हो जाएगा। कटोरा वहां नहीं होगा।


यही वजह है कि शंकर या नागार्जुन कहते है कि सारा जगत माया है। उन्‍होंने ऐसा ही जाना। जब हम अपने को जानते है तो जगत नहीं रहता। हकीकत में जगत माया नहीं है; वह है। लेकिन समस्‍या यह है कि तुम दोनों जागतों को एक साथ नहीं सकते हो। जब शंकर अपने में प्रवेश करते है, अपनी आत्‍मा को जान लेते है, जब वे साक्षी हो जाते है। तो संसार नहीं रहता है। वे भी सही है। वे कहते है वह माया है; यह भासता है, है नहीं।


तो तथ्‍य के प्रति जागों। जब तुम संसार को जानते हो तो तुम नहीं हो। तुम हो, लेकिन प्रच्‍छन्‍न हो; और तुम विश्‍वास नहीं कर सकते कि मैं प्रच्‍छन्‍न हूं। तुम्‍हारे लिए संसार अतिशय मौजूद है। और अगर तुम अपने को सीधे देखने की कोशिश करोगे तो यह कठिन होगा। प्रयत्‍न ही बाधा बन जा सकता है।


इस लिए तंत्र कहता है कि अपनी दृष्‍टि को कहीं भी संसार में, किसी भी विषय पर स्‍थित करो। और वहां से मत हटो। वहां टिके रहो। टिके रहने का यह प्रयत्‍न ही सह संभावना पैदा कर देगा कि चेतना प्रतिक्रमण करने लगे। पीछे लौटने लगे। पीछे लौटने लगे। तब तुम स्‍वयं के प्रति बोध से भरोंगे।


लेकिन जब तुम स्‍वयं के प्रति जागोगे तो कटोरा नहीं रहेगा। कटोरा तो है लेकिन वह तुम्‍हारे लिए नहीं रहेगा। इस लिए शंकर कहते है कि संसार माया है। जब तुम स्‍वयं को जान लेते हो तो जगत नहीं रहता है। स्‍वप्‍नवत विलीन हो जाता है।


लेकिन चार्वाक, ऐपिकुरस और मार्क्‍स, वे भी सही है। वे कहते है कि जगत सत्‍य है। और आत्‍मा मिथ्‍या है। वह कहीं मिलती नहीं है। वे कहते है विज्ञान सही है। विज्ञान कहता है कि केवल पदार्थ है, केवल विषय है; विषयी नहीं है। वे भी सही है। क्‍योंकि उनकी आंखे अभी विषय पर टिकी है। वैज्ञानिक का ध्‍यान निरंतर विषयों से बंधा होता है। वह आत्‍मा को बिलकुल भूल बैठता है।


शंकर और मार्क्‍स दोनों एक अर्थ में सही है। और एक अर्थ में गलत है। अगर तुम संसार से बंधे हो, अगर तुम्‍हारी दृष्‍टि संसार पर टीकी है। तो आत्‍मा माया मालूम होगी। स्‍वप्‍न वत लगेगी। और अगर तुम भीतर देख रहे हो तो संसार स्‍वप्‍नवत हो जाएगा। संसार और आत्‍मा दोनों सत्‍य है। लेकिन दोनों के प्रति युगपत सजग नहीं हुआ जा सकता। यही समस्‍या है, और इसमे कुछ भी नहीं किया जा सकता। या तो तुम बूढी स्‍त्री से मिलोंगे या युवती से। उनमें से एक सदा माया रहेगी।


यह विधि सरलता से उपयोग की जा सकती है। और यह थोड़ा समय लेगी। लेकिन यह कठिन नहीं है। एक बार तुम चेतना की प्रतिगति को, पीछे लौटने की प्रक्रिया को ठीक से समझ लो, तो इस विधि का प्रयोग कहीं भी कर सकते हो। किसी बस या रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए भी यह संभव है। कही भी संभव है। और कटोरा या किसी खास विषय की जरूरत नहीं है। किसी भी चीज से काम चलेगा। किसी भी चीज को एकटक देखते रहो। देखते ही रहो। और अचानक तुम भीतर मुड़ जाओगे और रेलगाड़ी या बस खो जाएगी।


निश्‍चित ही तब तुम अपनी आंतरिक यात्रा से लौटोगे तो तुम्‍हारी बाहरी यात्रा भी काफी हो चुकेगी। लेकिन रेलगाड़ी खो जायेगी। तुम एक स्‍टेशन से दूसरे स्‍टेशन पहुंच जाओगे। और उनके बीच रेलगाड़ी नहीं, अंतराल रहेगा। रेलगाड़ी तो थी; अन्‍यथा तुम दूसरे स्‍टेशन पर कैसे पहुंचते। लेकिन वह तुम्‍हारे लिए नहीं थी।


जो लोग इस विधि का प्रयोग कर सकते है वह इस संसार में सरला से रहा सकते है। याद रहे, वे किसी भी क्षण किसी भी चीज को गायब करा सकते है। तुम अपनी पत्‍नी या अपने पति से तंग आ गए हो, तुम उसे विलीन करा सकते हो। तुम्‍हारी पत्‍नी तुम्‍हारे बाजू में ही बैठी है, और वह नहीं है। यह माया हो गई है। प्रच्‍छन्‍न हो गई है। सिर्फ टकटकी बांधकर और अपनी चेतना को भीतर ले जाकर उसे तुम अपने लिए अनुपस्‍थित कर सकते हो। और ऐसा कई बार हुआ है।


मुझ सुकरात की याद आती है, उसकी पत्‍नी जेनथिप्‍पे उसके लिए बहुत चिंतित रहा करती थी। और कोई भी पत्‍नी उसकी जगह वैसे ही परेशान रहती। सुकरात को पति के रूप में बर्दाश्‍त कना महा कठिन काम है। सुकरात शिक्षक के रूप में ठीक है; लेकिन पति के रूप में नहीं।


एक दिन की बात है, और इस घटना के चलते सुकरात की पत्‍नी दो हजार वर्षों से निरंतर निंदित रही है। लेकिन मेरे विचार में यह निंदा उचित नहीं है। उसने कोई भूल नहीं की थी। सुकरात बैठा था और उसने इस विधि जैसा ही कुछ किया होगा। इसका उल्‍लेख नहीं है; यह मरा अनुमान है। उसकी पत्‍नी उसके लिए ट्रे में चाय लेकिर आई। उसने देखा सुकरात वहां नहीं है। और इसलिए, कहा जाता है कि, उसने सुकरात के चेहरे पर चाय उड़ेल दी। और अचानक वह वापस आ गया। आजीवन उसके चेहरे पर जलने के दाग पड़े रहे।


इस घटना के कारण सुकरात की पत्‍नी बहुत निंदित हुई। लेकिन कोई नहीं जानता है कि सुकरात उस क्‍या कर रहा था। क्‍योंकि कोई पत्‍नी अचानक ऐसा नहीं कर सकती। उसकी कोई जरूरत नहीं है। उसने अवश्‍य कुछ किया होगा। कोई ऐसी बात अवश्‍य हुई होगी। जिस वजह से जेनथिप्‍पे को उस पर चाय उड़ेल देनी पड़ी। वह जरूर किसी आंतरिक समाधि में चला गया होगा। और गरम चाय की जलन के कारण समाधि से वापस लोटा होगा। इस जली के कारण ही उसकी चेतना लौटी होगी। ऐसा हुआ होगा, यह मेरा अनुमान है। क्‍योंकि सुकरात के संबंध में ऐसी ही अनेक घटनाओं का उल्‍लेख मिलता है।


एक बार ऐसा हुआ कि सुकरात अड़तालीस घंटे तक लापता रहा। सब जगह उसकी खोजबीन की गई। सारा एथेंस सुकरात को तलाशता रहा। लेकिन वह कहीं नहीं मिला। और जब मिला तो वह नगर से बहुत दूर किसी वृक्ष के नीचे खड़ा था। उसका आधा शरीर बर्फ से ढक गया था। बर्फ गिर रही थी और वह बर्फ हो गया था। वह खड़ा था और उसकी आंखें खुली थी। लेकिन वे आंखें किसी भी चीज को देख नहीं रही थी।


जब लोग उसके चारों और जमा हो गए और उन्‍होंने उसकी आंखों में झाँका तो उन्‍हें लगा कि वह मर गया है। उसकी आंखें पत्‍थर जैसी हो गई थी। वे देख रही थी पर किसी खास चीज को नहीं देख रही थी। वे स्‍थिर थी, अचल थी। फिर लोगों ने उसकी छाती पर हाथ रखा और तब उन्‍हें भरोसा हुआ कि वह जीवित है। उसकी छाती हौले-हौले धड़क रही थी। तब उन्‍होंने उसे हिलाया-डुलाया और उसकी चेतना वापस लौटी।


होश में आने पर उससे पूछताछ की गई। पता चला कि अड़तालीस घंटों से वह यहां था और उसे इन घंटों का पता ही नी चला। मानो ये घंटे उसके लिए घटित नहीं हुए। इतनी देर वह देश काल से इस जगत में नहीं था। तो लोगों ने पूछा कि तुम इतनी देर से क्‍या कर रहे थे। हम तो समझे कि तुम मर गए। अड़तालीस घंटे।


सुकरात ने कहा: ‘’मैं तारों को एकटक देख रहा था और तब अचानक ऐसा हुआ कि तारे खो गए। और तब, मैं नहीं कह सकता, सारा संसार ही विलीन हो गया। लेकिन शीतल, शांत और आनंदपूर्ण अवस्‍था में रहा कि अगर उसे मृत्‍यु कहा जाए तो वह मृत्‍यु हजारों जिंदगी के बराबर है। अगर यह मृत्‍यु है तो मैं बार-बार मृत्‍यु में जाना पसंद करूंगा।


संभव है, यह बात उसकी जानकारी के बिना घटित हुई हो; क्‍योंकि सुकरात ने योगी था न तांत्रिक। सचेतन रूप से वह किसी आध्‍यात्‍मिक साधना से संबंधित नहीं था। लेकिन वह बड़ा चिंतक था। और हो सकता है यह बात आकस्‍मिक घटित हुई हो कि रात में वि तारों को देख रहा हो और अचानक उसकी निगाह अंतर्मुखी हो गई हो।
तुम भी यह प्रयोग कर सकते हो। तारे अद्भुत है और सुंदर है। जमीन पर लेट जाओ, अंधेरे आसमान को देखो और तब अपनी दृष्‍टि को किसी एक तारे पर स्‍थिर करो। उस पर अपने को एकाग्र करो। उस पर टकटकी बाँध दो। अपनी चेतना को समेटकर एक ही तारे को साथ जोड़ दो; शेष तारों को भूल जाओ। धीरे-धीरे अपनी दृष्‍टि को समेटो, एकाग्र करो।


दूसरे सितारे दूर हो जाएंगे। और धीरे-धीरे विलीन हो जायेगे। और सिर्फ एक तारा बच रहेगा। उसे एकटक देखते जाओ। देखते जाओ। एक क्षण आएगा जब वह तारा भी विलीन हो जाएगा। और जब वह तारा विलीन होगा तब तुम्‍हारा स्‍वरूप तुम्‍हारे सामने प्रकट हो जाएगा।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

‘’शिव कहते है: बादलों के पार नीलाकाश को देखने मात्र से शांति को, सौम्‍यता को उपलब्‍ध होओ।‘’

मैं तुम्‍हें देखता हूं; तुम दुःखी हो। और तब सहसा वह दुःख मुझे में प्रविष्‍ट हो जाता है। अगर कोई दुःखी आदमी तुम्‍हारे कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी दुःखी हो जाते हो। क्‍या हो जाता है? क्‍योंकि तुम्‍हारी आंखें दर्पण की भांति है। इस लिए ही  दुःख तुममें प्रतिबिंबित हो जाता है। कोई व्‍यक्‍ति दिल खोलकर हंसता है और अचानक तुम भी हंसी से भर जाते हो।


लेकिन हुआ क्‍या? तुम दर्पण की तरह हो; तुम चीजों को प्रतिबिंबित करते हो। तुम कोई सुंदर चीज देखते हो; वह चीज तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम कोई कुरूप चीज देखते हो; वह चीज भी तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम जो कुछ भी देखते हो वह तुम्‍हारे भीतर गहरे रूप से प्रविष्‍ट हो जाता है; वह तुम्‍हारी चेतना का हिस्‍सा बन जाता है।


अगर तुम रिक्‍तता को, शून्‍य को देख रहे हो तो कुछ भी प्रतिबिंबित होने जैसा नहीं है। या है तो सिर्फ अनंत नीलाकाश है। और अगर यह असीम नीलाकाश तुममें प्रतिबिंबित हो जाए, अगर तुम अपने अंतस में उस आकाश को अनुभव कर सको। तो तुम शांत हो जाओगे। सौम्‍य हो जाओगे। आकाश शांत और सौम्‍य है। और अगर तुम शून्‍य को अनुभव कर सको जहां नीलिमा। आकाश सब कुछ विलीन हो जाता है। तो तुम्‍हारे अंतस में भी वह शून्‍य प्रतिबिंबित होगा। और शून्‍य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? तनावग्रस्‍त कैसे हो सकते हो? शून्‍य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? शून्‍य में मन ठहर जाता है। और मन के विदा होते ही मन जो तनाव और चिंता है, संगत-असंगत विचारों से भरा है उसके विदा होते ही तुम शांति को उपलब्‍ध हो जाते हो।


एक बात और। शून्‍य जब अंतस में प्रतिबिंबित होता है, तो निर्वासना बन जाता है। अचाह बन जाता है। चाह ही तनाव है। चाह करते ही तुम चिंताग्रस्‍त हो जाते हो। तुम्‍हें एक सुंदर स्‍त्री दिखाई पड़ती है। और अचानक कामवासना पैदा हो जाती है। तुम्‍हें एक सुंदर मकान दिखाई पड़ता है और तुम उसे पाना चाहते हो। तुम्‍हारे पास से एक सुंदर कार निकलती है और तुम्‍हें इच्‍छा पकड़ती है कि मैं भी इस कार में बैठकर चलू। बस वासना पैदा हो गई। और वासना के साथ ही मन चिंतित हो उठता है। कि उसे कैसे पाया जाए, क्‍या किया जाए। मन आशावान हो उठता है या निराशा; लेकिन दोनों हालातों में वह सपने देख रहा है। कई बातें हो सकती है।


जब चाह पैदा होती है तो तुम उपद्रव में पड़ते हो। मन अनेक खंडों में टूट जाता है और अनेक योजनाएं, सपने और प्रक्षेपण शुरू हो जाते है। बस पागलपन शुरू हुआ। चाह पागलपन का बीज है।


लेकिन शून्‍य कोई विषय नहीं है। वह बस शून्‍य है। तुम शून्‍य को देखते हो तो कोई चाह नहीं पैदा होती। हो नहीं सकती है। तुम शून्‍य पर अधिकार करना नहीं चाहते; न तुम शून्‍य को प्रेम करना चाहते हो। शून्‍य में मन की सब गति रूक जाती है। कोई कामना नहीं उठती। और जहां चाह नहीं है वहीं शांति है। तुम सौम्‍य और शांत हो जाते हो। तुम्‍हारे भीतर सहसा शांति का विस्‍फोट होता है। तुम आकाश वत हो गए।


दूसरी बात कि तुम जिस चीज का भी मनन चिंतन करते हो, तुम उसके जैसे ही हो जाते हो। तुम वहीं हो जाते हो। क्‍योंकि मन अनंत रूप धारण कर सकता है। तुम जो भी चाहते हो, मन उसके ही रूप ले लेता है; तुम वही बन जाते हो। जो आदमी धन-दौलत के पीछे भागता है, उसका मन धन-दौलत ही बन जाता है। उसे हिलाओ तुम उसके भीतर रुपयों की झनझनाहट सुनोंगे। और कुछ नहीं सुनोंगे। तुम जो भी चाहते हो तुम वहीं हो जाते हो। इसलिए अपनी चाह के प्रति सावधान रहो; क्‍योंकि तुम वही हो जाते हो।


आकाश सर्वथा रिक्‍त है, खाली है। उससे ज्‍यादा रिक्‍त और क्‍या हो सकता है। और वह दूसरे तुम्‍हारे बिलकुल निकट है। उसके लिए कुछ खर्चा करना की भी जरूरत नहीं है। और उसे पाने के लिए तुम्‍हें हिमालय या तिब्‍बत या कहीं भी नहीं जाना है। विज्ञान ने, टेक्नोलॉजी ने सब कुछ नष्‍ट कर दिया है। लेकिन आकाश बचा हुआ है। तुम उसका उपयोग कर सकते हो। इसके पहले कि वे उसे नष्‍ट कर दें। तुम उसका उपयोग कर लो। किसी भी दिन वे उसे नष्‍ट कर देंगे।

 
उसे देखो, उसमे प्रवेश करो। उसमें गहरे डुबो। लेकिन याद रहे, यह देखना निर्विचार देखना हो। तब तुम अपने अंतस में उसी आकाश को अनुभव करोगे। उसी आयाम को अनुभव करोगे। तब वह विराट, वहीं नीलिमा, वही शून्‍य तुम्हारे भीतर होगा।


तंत्र सूत्र 


ओशो

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