जिसने भी जाना, सदा स्वयं से जाना।
गुरु हो, तो भी निमित्तमात्र है। गुरु न हो, तो भी चल जाएगा।
असली सवाल ध्यान रखना गुरु के होने, न होने का नहीं है। असली सवाल
स्वयं में प्रवेश का है। कुछ साहसी लोग अकेले भी स्वयं में प्रविष्ट हो
जाते हैं। कुछ को सहारे की जरूरत पड़ती है। जिनको सहारे की जरूरत पड़ती है,
वे भी प्रविष्ट तो अकेले ही होते हैं। सहारा निमित्तमात्र है।
सहारा वस्तुत: सत्य के मिलने में सहयोगी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी हिम्मत बढ़ाने में सहयोगी है।
जैसे तुम डरते हो गहरे पानी में जाने में। और कोई कहता है घबड़ाओ मत, मैं
किनारे पर खड़ा हूं। तुम जाओ। जरूरत होगी, तो मैं हूं। मैं कूद पड़गा। बचा
लूंगा। तुम जाते हो।
जरूरत कभी पड़ती नहीं। क्योंकि वह गहराई तुम्हारी ही गहराई है। उसमें
ड़बकर आदमी मिटता नहीं, पहली दफा होता है। इसलिए ड़बने में कोई खतरा ही
नहीं है। न ड़बो, तो ही झंझट है। डूबगए, तब तो कोई खतरा नहीं है। डूबगए, तो
पहुंच गए। लेकिन जिसने गहराई नहीं जानी, वह डरता है।
गुरु इतना ही करता है कि तुम्हारे झूठे डर को…….। तुमसे अगर वह कहे कि
यह डर झूठा है, घबड़ाओ मत; कोई कभी डूबा नहीं है। या डूबभी गए जो, वे पहुंच
गए ड़बकर, तो शायद तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, क्या पक्का भरोसा कि कोई
कभी डूबा नहीं! और न डूबा हो कोई, मुझे तो लगता है कि मैं डूबजाऊंगा। मैं
असहाय, मैं अल्प शक्तिवान, इस विराट सागर में अकेला जाऊं—नहीं होगा। या अगर
गुरु कहे तुमसे सच्ची बात—कि डूबगए, तो पहुंच गए। ड़बना सौभाग्य है।
मृत्यु महाजीवन का द्वार है। तब तो तुम इस आदमी को बिलकुल ही छोड़कर भाग
जाओगे। यहां रुकना भी खतरनाक है! मिटने कोई नहीं आता गुरु के पास; होने आता
है। लेकिन होने की प्रक्रिया मिटना है।
तो गुरु ये बातें नहीं कहता। इन बातों को छिपाकर रखता है। यह तो तुम
जानोगे, तब जानोगे। तुम्हें आश्वासन देता है. घबड़ाओ मत, मैं तो खड़ा हूं।
देखते नहीं मुझे कि इतनी गहराइयों में तैरता हूं। तुम ड़बोगे, तो मैं बचा
लूंगा।
यह एक झूठ को दूसरे झूठ से सहारा देकर तुम्हें हिम्मत, तुम्हें साहस
देने की चेष्टा है। यह उपाय है। इस भांति तुम उतर जाते हो। उतर गए, तो तुम
स्वयं जानोगे कि बचाने की कोई जरूरत न थी। बचाना तो महंगा पड़ जाता। उतरकर
तो ड़बना ही है। ड़बकर गहराई हो जाना है। उसी गहराई में समाधि है, निर्वाण
है।
तो गुरु को तुम्हें बचाने कभी जाना नहीं पड़ता। गुरु तो तुम्हें इस बहाने भेज रहा है कि बचा लूंगा, घबडाओ मत, जाओ तो।
एक दफा गए, तो खुद ही स्वाद लग जाएगा। और ड़बने का स्वाद लग गया, तो राज
समझ में आ गया। जब तुम पा लोगे, तब तुम कहोगे अरे! यह तो अपने से हो गया!
तब तुम जानोगे भलीभांति कि गुरु को कुछ भी न करना पड़ा।
फिर भी तुम अनुग्रह मानोगे, यद्यपि गुरु ने कुछ भी नहीं किया। इतना तो
किया कि तुम एक व्यर्थ की बात से डरे थे, तुम्हें सहारा दिया। उस समय सहारा
बड़ा जरूरी था।
अब यह जरा जटिल मामला है। सहारा गुरु देता भी नहीं, क्योंकि सहारे की
कोई जरूरत नहीं है। और देता भी है। क्योंकि तुम झूठ हो। तुम अंधेरे में खड़े
हो। तुम्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हें सहारे की जरूरत है, तो तुम्हें
सहारा देता है। यद्यपि सहारे की जरूरत कभी नहीं पड़ती।
तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें
सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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