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Thursday, January 14, 2016

भृत्यै: पुत्रै: कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजै:। विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृति मनाक्।।

समझना। वह जो ज्ञानी पुरुष है, अगर अपने नौकर भी उसका अपमान कर दें तो भी नाराज नहीं होता। क्यों नौकर को ही विशेष रूप से सूत्र में कहा है? क्योंकि नौकर अंतिम है, जिससे तुम अपेक्षा करते हो कि तुम्हारा अपमान कर देगा। नौकर और तुम्हारा अपमान कर दे? नौकर तो तुम्हारा खरीदा हुआ है, स्तुति के लिए ही है। वह तुम्हारी निंदा कर दे? असंभव। वह हंसकर धिक्कार कर दे। यह असंभव है। तुम और सबका धिक्कार चाहे स्वीकार भी कर लो, अपने नौकर का धिक्कार तो स्वीकार न कर सकोगे। तुम उसे कहोगे, नमकहराम! तुम उसे कहोगे कि जिस दोने में खाया, जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। तुम कहोगे, जिसका नमक खाया उसका बजाया नहीं। नमकहराम! तुम बड़े नाराज हो जाओगे।
इसलिए पहला अष्टावक्र कहते हैं, नौकर भी अगर धिक्कार कर दे और साधारण धिक्कार नहीं, हंसकर धिक्कार कर दे। हंसी और भी जहर हो जाती है धिक्कार में मिल जाए तो; व्यंगात्मक हो जाती है, गहरी चोट करती है। फिर अपने नौकर से? यह तो अंतिम है जिससे तुम अपेक्षा करते हो। हां, तुम्हारा मालिक अगर धिक्कार कर दे तो तुम बरदाश्त कर लो करना पड़े। महंगा है न बरदाश्त करना। मालिक गाली भी दे तो भी तुम्हें धन्यवाद देना पड़ता है।
नौकर प्रशंसा भी करे तो भी तुम कहां धन्यवाद देते हो? तुम अखबार पढ़ रहे तो बैठे अपने कमरे में, नौकर गुजर जाता, तुम इतना भी स्वीकार नहीं करते कि कोई गुजरा। तुम नौकर में व्यक्तित्व ही कहां मानते? नौकर की कहीं कोई आत्मा होती है? कोई दूसरा गुजरता तो तुम उठ कर खड़े होते। कोई दूसरा आता तो तुम कहते, आओ, बैठो, विराजो। नौकर गुजर जाए तो तुम्हारे ऊपर कुछ भी भाव नहीं आता। तुम अपना अखबार पढ़ते रहते हो, जैसे कोई भी नहीं गुजरा। नौकर को तुम स्वीकार ही नहीं करते कि वह मनुष्य है। तो नौकर अगर अपमान कर दे, धिक्कार कर दे, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी।
अष्टावक्र कहते हैं, ‘योगी नौकर से, पुत्रों से.,.।’
अपने पुत्र से तो कोई धिक्कार की संभावना नहीं मानता। बेटा अपना और हंस दे, धिक्कार कर दे? तुम सबको माफ कर सकते हो लेकिन अपने बेटे को तो न कर सकोगे। क्योंकि बेटा तो तुम्हारा ही विस्तार है। तुम्हारा ही एक रूप, तुम्हीं पर हंस दे? यह तो जैसा अपना ही हाथ अपने को चांटा मारने लगे तो तुम कैसे बरदाश्त कर सकोगे? यह तो बहुत ज्यादा हो जाएगा।
‘पत्नियों से…।’
अष्टावक्र ने जब ये सूत्र कहे तब पत्नी आज जैसी तो नहीं थी, आधुनिक तो नहीं थी। पत्नी तो खरीदी हुई थी। स्त्री धन—संपत्ति थी। ये सूत्र इतने पुराने हैं कि तब अगर कोई अपनी स्त्री को मार भी डालता था तो भी अपराध नहीं था। अपनी स्त्री मारी। किसी से कुछ प्रश्न ही नहीं है, अदालत का कोई सवाल नहीं है। अपनी थःई, मारी। तुम अपनी कुर्सी तोड़ डालो, तुम अपने मकान को गिरा डालो, तुम अपने नोट में आग लगा दो, तुम्हारी मर्जी। तुमने अपनी पत्नी मार डाली, तुम जानो।
मैं एक घर में रहता था रायपुर में, कोई दों चार ही दिन मुझे वहां हुए थे, कि बगल में एक रात कोई एक बजे मेरी नींद खुली। वह पति अपनी पत्नी को मार रहा है। दोनों मकानों की छतें मिलती थीं तो मैं छत उतर कर उसके मकान में गया। मैंने उस आदमी को रोकने की कोशिश की कि तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो? रुको। वह बोला, आप कौन हैं बीच में बोलने वाले? यह मेरी पत्नी है। मैं चाहे इसे बचाऊं, चाहे मारूं, आप कौन हैं बीच में बोलने वाले?
वह ठीक बोल रहा है, शास्त्र की भाषा बोल रहा है। मनु महाराज की भाषा बोल रहा है। जैसे पत्नी उसकी कोई चीज है! वह इस बुरी तरह मार रहा है, उसके सिर से खून बह रहा है। और मुझसे कहता है, आप बीच में न पड़े। आप कौन हैं बीच में बोलने वाले? यह मेरी पत्नी है।
अष्टावक्र कहते हैं, अपनी पत्नी से, पोतों से, संबंधियों से हंसकर धिक्कारे जाने पर भी जरा विकार को प्राप्त नहीं होता।’
क्योंकि जिसे ज्ञान घटा, न कोई अपना रहा, न कोई पराया। कौन बेटा, कौन बाप? जिसे ज्ञान घटा, कौन मालिक, कौन नौकर? जिसे ज्ञान घटा, कौन पत्नी, कौन पति? जिसे ज्ञान घटा, एक ही बचा। और जिसे ज्ञान घटा वह तो मिट गया। वह घाव ही न रहा जिस पर चोट लगती है धिक्कार की, अपमान की, असम्मान की, कोई हंस दे इस बात की। वह घाव ही भर गया, वह घाव ही न रहा। अहंकार न रहा तो अपमान जरा भी पीड़ा नहीं देता।
अष्टावक्र महागीता 
ओशो 

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