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Thursday, January 14, 2016

द्रष्टा शाश्वत है

तुम एक प्रेम में पड़ गए। तुमने एक स्त्री को चाहा, एक पुरुष को चाहा, खूब चाहा। जब भी तुम किसी को चाहते हो, तुम चाहते हो तुम्हारी चाह शाश्वत हो जाए। जिसे तुमने प्रेम किया वह प्रेम शाश्वत हो जाए। यह हो नहीं सकता। यह वस्तुओं का स्वभाव नहीं। तुम भटकोगे। तुम रोओगे। तुम तड़पोगे। तुमने अपने विषाद के बीज बो लिए। तुमने अपनी आकांक्षा में ही अपने जीवन में जहर डाल लिया। यह टिकने वाला नहीं है। कुछ भी नहीं टिकता यहां। यहां सब बह जाता है। आया और गया। अब तुमने यह जो आकांक्षा की है कि शाश्वत हो जाए, सदा सदा के लिए हो जाए; यह प्रेम जो हुआ, कभी न टूटे, अटूट हो; यह श्रृंखला बनी ही रहे, यह धार कभी क्षीण न हो, यह सरिता बहती ही रहे बस, अब तुम अड़चन में पड़े। आकांक्षा शाश्वत की और प्रेम क्षणभंगुर का; अब बेचैनी होगी, अब संताप होगा। या तो प्रेम मर जाएगा या प्रेमी मरेगा। कुछ न कुछ होगा। कुछ न कुछ विध्‍न पड़ेगा। कुछ न कुछ बाधा आएगी।
ऐसा ही समझो, हवा का एक झोंका आया और तुमने कहा, सदा आता रहे। तुम्हारी आकांक्षा से तो हवा के झोंके नहीं चलते। वसंत में फूल खिले तो तुमने कहा सदा खिलते रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो फूल नहीं खिलते। आकाश में तारे थे, तुमने कहा दिन में भी रहें। तुम्हारी आकांक्षा से तो तारे नहीं संचालित होते। जब दिन में तारे न पाओगे, दुखी हो जाओगे। जब पतझड़ में पत्ते गिरने लगेंगे, और फूलों का कहीं पता न रहेगा, और वृक्ष नग्न खड़े होंगे दिगंबर, तब तुम रोओगे, तब तुम पछताओगे। तब तुम कहोगे, कुछ धोखा दिया, किसी ने धोखा दिया।
किसी ने धोखा नहीं दिया है। जिस दिन तुम्हारा और तुम्हारी प्रेयसी के बीच प्रेम चुक जाएगा, उस दिन तुम यह मत सोचना कि प्रेयसी ने धोखा दिया है; यह मत सोचना कि प्रेमी दगाबाज निकला। नहीं, प्रेम दगाबाज है। न तो प्रेयसी दगाबाज है, न प्रेमी दगाबाज है : प्रेम दगाबाज है।
जिसे तुमने प्रेम जाना था वह क्षणभंगुर था, पानी का बबूला था। अभी अभी बड़ा होता दिखता था। पानी के बबूले पर पड़ती सूरज की किरणें इंद्रधनुष का जाल बुनती थीं। कैसा रंगीन था! कैसा सतरंगा था! कैसे काव्य की स्फुरणा हो रही थी! और अभी गया। गया तो सब गए इंद्रधनुष! गया तो सब गए सुतरंग। गया तो गया सब काव्य! कुछ भी न बचा
देखो, रात तुम सपना देखते हो, सुबह पाते हो सपना झूठ था। फिर दिन भर खुली आंखों जगत का फैलाव देखते हो, हजार हजार घटनायें देखते हो। रात जब सो जाते हो तब सब भूल जाता है, सब झूठ हो जाता है।
दिन में तुम पति थे, पत्नी थे, मां थे, पिता थे, बेटे थे; रात सो गए, सब खो गया। न पिता रहे, न पत्नी, न बेटे। दिन तुम अमीर थे, गरीब थे; रात सो गए, न अमीर रहे न गरीब। दिन तुम क्या क्या थे! रात सो गए, सब खो गया। दिन में जवान थे, के थे, रात सो गए, न जवान रहे, न बूढ़े। सुंदर थे, असुंदर थे, सब खो गया। सफल असफल सब खो गया। रात ने दिन को पोंछ दिया।
जैसे सुबह रात को पोंछ देती है, वैसे ही रात दिन को पोंछ देती है। जैसे दिन के उगते ही रात सपना हो जाती है, वैसे ही रात के आते ही दिन भी तो सपना हो जाता है। इसे जरा गौर से देखो। दोनों ही तो भूल जाते हैं। दोनों ही तो मिट जाते हैं। लेकिन एक बना रहता है रात जो सपना देखता है वही जागृति में दिन का फैलाव देखता है। देखने वाला नहीं मिटता। रात सपने में भी मौजूद होता है।
कभी कभी सपना भी खो जाता है और इतनी गहरी तंद्रा, इतनी गहरी निद्रा होती है कि स्वप्न नहीं होते, सुषुप्ति होती है स्वप्नशुन्य, तब भी द्रष्टा होता है। सुबह तुमने कभी कभी उठ कर कहा है रात ऐसे गहरे सोए, ऐसे गहरे सोए कि सपने की भी खलल न थी। बड़ा आनंद आया। बड़े ताजे उठे।
तो जरूर कोई बैठा देखता रहा रात भी। कोई जाग कर अनुभव करता रहा रात भी। गहरी निद्रा में भी कोई जागा था। कोई किरण मौजूद थी। कोई प्रकाश मौजूद था। कोई होश मौजूद था। कोई देख रहा था। नहीं तो सुबह कहेगा कौन? तुम सुबह ही जाग कर अगर जागे होते तो रात की खबर कौन लाता? उस गहरी प्रसुप्ति की कौन खबर लाता? रात भी तुम कहीं जागते थे किसी गहरे तल पर। किसी गहरे अंतश्चेतन में कोई जागा हुआ हिस्सा था, कोई प्रकाश का छोटा सा पुंज था। वही याद रखे है; उसी की स्मृति है सुबह कि रात बड़ी गहरी नींद सोए। अपूर्व थी, आनंदपूर्ण थी।
क्षणभंगुर से हमारा जो संबंध हम बना लेते हैं और शाश्वत की आकांक्षा करने लगते हैं उससे दुख पैदा होता है। शाश्वत जरूर कुछ है; नहीं है, ऐसा नहीं। शाश्वत है। तुम्हारा होना शाश्वत है। अस्तित्व शाश्वत है। आकांक्षा कोई भी शाश्वत नहीं है। दृश्य कोई भी शाश्वत नहीं है। लेकिन द्रष्टा शाश्वत है
एक बात तय है, जागो कि सोओ, सपना देखो कि जगत देखो, सब बदलता रहता है, द्रष्टा नहीं बदलता। इसलिए द्रष्टा शाश्वत है। बचपन में भी द्रष्टा था, जवानी में भी द्रष्टा था, बुढ़ापे में भी द्रष्टा था। जवानी गई, बचपन गया, बुढ़ापा भी चला जाएगा, द्रष्टा बचा रहता है। तुम जरा गौर से छानो, तुम्हारे जीवन में तुम एक ही चीज को शाश्वत पाओगे, वह द्रष्टा है। कभी हारे, कभी जीते; कभी धन था, कभी निर्धन हुए; कभी महलों में वास था, कभी झोपड़े भी मुश्किल हो गए, लेकिन द्रष्टा सदा साथ था। जंगलों में भटको कि राजमहलों में निवास करो, हार तुम्हें गड्डों में गिरा दे कि जीत तुम्हें शिखरों पर बिठा दे, सिंहासन पर बैठो कि कौड़ी—कौड़ी को मोहताज हो जाओ, एक सत्य सदा साथ है : द्रष्टा। देखने वाला सदा साथ है।
अष्टावक्र महागीता 

ओशो 

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