मैंने सुना है, लाला करोड़ीमल की छोटी सी दुकान थी। एक बार दुकान में से दस रुपये का नोट कम हो गया। तो उन्होंने अपने नौकर ननकू से कहा, आज सुबह से शाम तक दुकान में कोई कौवा भी नहीं आया। दुकान में तुम्हारे और मेरे अलावा कोई भी न था। तुम्हीं कहो, दस रुपये कहां जा सकते हैं? ननकू ने तपाक से अपनी जेब से पांच रुपये निकाल कर देते हुए कहा, हुजूर, यह लीजिए मेरा हिस्सा। मैं आपकी इज्जत खराब नहीं करना चाहता।
मूढ़ बोले तो फंसे, न बोले तो फंसे। मूढ़ फंसा ही हुआ है; कुछ भी करे। हर जगह उसकी मूढ़ता का दर्शन हो जाएगा।
इसलिए असली सवाल शांत बैठने, न बैठने का नहीं है, असली सवाल मूढ़ता को तोड्ने का है। असली सवाल जागने का है, अमूर्च्छा को लाने का है। ध्यान, तप, जप कामन आएंगे। क्योंकि मूढ़ जप भी करेगा तो मूढ़ता ही प्रकट होगी। तप भी करेगा तो मूढ़ता ही प्रकट होगी। तुम्हारे भीतर जो है वही तो प्रकट होगा। तुम कुछ भी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि भीतर के केंद्र पर ही क्रांति घटित न हो। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, उपर की व्यर्थ बातों में मत उलझना। सारी शक्ति भीतर लगाओ, जागने में लगाओ।
तुमने गौर से देखा कभी? मूढ़ अगर शांत बैठे तो सिर्फ जड़ मालूम होता है, मुर्दा मालूम होता है, प्रतिभाशून्य मालूम होता है, सोया—सोया मालूम होता है। ज्ञानी अगर शात बैठे तो उसकी शांति जीवंत होती है। तुम गौर से सुनो तो उसकी शांति का कलकल नाद तुम्हें सुनाई पड़ेगा। ज्ञानी शांत बैठे तो उसकी शांति नाचती होती, उत्सवमग्न होती। मूढ़ की शांति डबरे की भांति है। ज्ञानी की शांति कलरव करती बहती हुई सरिता की भांति है, गत्यात्मक है। मूढ़ की शांति कहीं नहीं जा रही, कब्र की शांति है। ज्ञानी की शांति कब की शाति नहीं है, जीवन का अहोभाव है, जीवन का महारास, जीवन का नृत्य, जीवन का संगीत है। मूढ़ की शांति में कोई संगीत नहीं। बस तुम शांति ही पाओगे। ज्ञानी की शांति संगतिपूर्ण है छंदोबद्ध, स्वच्छंद है।
तो ध्यान रखना, शांति को लक्ष्य मत बना लेना, नहीं तो बहुत जल्दी तुम मूढ़ की शांति में पड़ जाओगे। क्योंकि वह सस्ती है और सुगम है। कुछ भी करना नहीं। बैठ गए! इसीलिए तो तुम्हारे बहुत से साधु संन्यासी बैठ गए हैं। तुम उनके पारा जाकर मूढ़ता ही पाओगे। उनकी प्रतिभा निखरी नहीं है, और जंग खा गई। ऐसी शांति का क्या मूल्य है जो निष्क्रिय हो? ऐसी शांति चाहिए जो सृजनात्मक हो। ऐसी शांति चाहिए जो गुनगुनाए। ऐसी शांति चाहिए जिसमें फूल खिले। ऐसी शांति चाहिए जिसमें जीवन का स्पर्श अनुभव हो, और महाजीवन अनुभव हो; मरघट की नहीं। तुम्हारे मंदिर भी मरघट जैसे हो गए हैं। नहीं, कहीं भूल हो रही है।
अष्टावक्र ठीक कहते हैं, मूढ़ की बनावटी शांति भी शोभा नहीं देती।
ऐसा समइते कि कोई कुरूप स्त्री खूब गहने पहन ले। तुमने देखा? स्त्री और कुरूप हो जाती है, अगर कुरूप है और गहने पहन ले। और अक्सर ऐसा होता है, कुरूप स्त्रीयों को तो गहने पहनने का खूब भाव पैदा होता है। कुरूप स्त्रियां सोचती हैं कि शायद जो कुरूपता है वह गहनो में ढाक ली जाए। तो खूब रंग बिरंगे कपड़े पहनो, खुब गहने ढ़का लो। लेकिन कुरूपता हीरे जवाहरातों से नहीं मिटती, और कर दिखाई पड़ने लगती है। कितने ही बहुमूल्य वस्त्र पहन लो, करूपता वस्त्रों से नहीं मटती। इतना आसान नहीं।
और कोई सुंदर हो तो निर्वस्त्र भी, बिना वस्त्रों के भी सुंदर है, साधारण वस्त्रों में भी सुंदर है, बिना गहनों के भी सुंदर है, बिना आभूषणों के भी सुंदर है। हां, अगर व्यक्ति के हाथ में आभूषण हों तो आभूषण भी सुंदर हो जाते हैं। कुरूप व्यक्ति के हाथ में पड़े आभूषण भी कुरूप हो जाते हैं।
तम जैसे हो वही तुम्हारे जीवन पर फैल जाता है वही रंग। इसलिए असली , असल आभूषणों का नहीं है, असली सवाल अंत:सौंदर्य को जगाने का है। तुम्हारे भीतर एक सौंदर्य की आभा होनी चाहिए, जो तुम्हारे पोर पोर से बहे और झलके; तुम्हारे रोएं रोएं में जिसकी मौजूदगी हो; तुम्हारी श्वास श्वास में जिसकी महक हो।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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