पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान,
समाधि हैं। महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जानेवाले प्राथमिक चरण
हैं। समाधि फूल है। शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन प्राणायाम
ही जीवन भर करते रहते हैं। जीवन भर वही करते रहते हैं। समाधि का फूल तो
भूल ही जाता है, ये क्रियाएं अपने आप में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। साधन
साध्य बन जाते हैं। मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है। सांख्य की भ्रांति
यहां खड़ी होती है कि मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई
जरूरत ही नहीं। और योग की भांति यहां खड़ी होती है कि मार्ग इतना
महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मंजिल भी छोड़नी पड़े मार्ग के लिए तो हम
मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं पकड़ सकते। क्रियाओं से पस्त आदमी के
सामने अगर परमात्मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले
पूजापाठ कर लूं।
योग की एक भ्रांति भी, यह भ्रांति भी हजारों लोगों को भटकाती
है; क्रियाएं ही। सांख्य की भांति तो कभी कभी पैदा होती है, क्योंकि सांख्य
का व्यक्तित्व कभी कभी पैदा होता है। इसलिए बहुत लोग उस झंझट में नहीं
पड़ते। कृष्णमूर्ति जिंदगी भर से बोलते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में मैं नहीं
समझता कि पांच हजार लौगों से ज्यादा उनको सुनने व समझने वाले लोग हैं। और
ये पांच हजार भी वे ही लोग हैं जो तीस साल से निरंतर उनको सुने जा रहे हैं।
इनकी जिंदगी में कहीं कोई क्रांति घटित होती मालूम नहीं होती। हां, शब्द
इनके पास आ जाते हैं। क्रांतिकारी शब्द इनके पास आ जाते हैं। और ये उन को
दोहराकर, दोहरा दोहराकर जीने लगते हैं। और रोज रोज इनको खटका भी लगा रहता
है कि वह बात भीतर घटित नहीं हुई है, वह फूल खिला नहीं है।
लेकिन योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है। क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग
जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल क्रिया में उत्सुक हो जाते हैं।
स्वाभाविक है। क्योंकि बिना क्रिया के आदमी जिंदगी में कुछ भी तो नहीं
पाता, तो धर्म को भी पाएगा तो क्रिया से ही पाएगा। जैसे धन पाया जाता है
प्रयास से, वैसा ही धर्म भी पाया जाएगा। परमात्मा को भी पाना है तो कुछ
करके ही तो पाना होगा। यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन खतरा इसका,
दूसरा अधूरा हिस्सा इसका खतरा है। और वह यह कि ये सब क्रियाएं इतने जोर से
मन को यसित कर लेती हैं और मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना
मुश्किल हो जाता है।
कैवल्य उपनिषद
ओशो
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