मैंने कहा सुबह आपसे कि कृष्ण जैसा शिक्षक अर्जुन की बुद्धि को समझकर
बात करता है। अगर अर्जुन ने बुद्ध से पूछा होता कि अगर मैं भ्रष्ट हो जाऊं,
तो कहां पहुंचूंगा? तो पता है आपको, बुद्ध क्या कहते? जहां तक संभावना तो
यह है कि बुद्ध कुछ कहते ही नहीं, तू जान। लेकिन अगर हम बहुत ही खोजबीन
करें बुद्ध साहित्य में, तो सिर्फ एक घटना मिलती है। बुद्ध की नहीं मिलती,
बोधिधर्म की मिलती है, बुद्ध के एक शिष्य की।
वह चीन गया। चीन के सम्राट ने उसका स्वागत किया। और चीन के सम्राट ने
उसका स्वागत करके कहा, बोधिधर्म, हे महाभिक्षु, तुमसे मैं कुछ बातें जानना
चाहता हूं। मैंने हजारों बुद्ध के मंदिर बनाए, लाखों प्रतिमाएं स्थापित
कीं। मुझे इसका क्या फल मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। सम्राट ने
कहा, कुछ भी नहीं! आप समझे, मैंने क्या कहा? मैंने अरबों रुपए खर्च किए,
इसका फल मुझे क्या मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। क्योंकि तूने फल
की आकांक्षा की, उसी में तूने सब खो दिया। वह सब व्यर्थ हो गया तेरा किया
हुआ। दो कौड़ी का हो गया तेरा किया हुआ। उसने कहा, क्या बातें कर रहे हैं?
मैंने इतना पवित्र कार्य किया, सच होली वर्क, ऐसा पवित्र कार्य! बोधिधर्म
ने कहा, तू मूढ़ है। देअर इज़ नथिंग ऐज होली, एवरीथिंग इज़ जस्ट एंप्टी–कोई
पवित्र-अवित्र नहीं है; सब खाली है, सब शून्य है।
सम्राट ने कहा, आप कृपा करके किसी और राज्य में पदार्पण करें। क्योंकि
या तो आप ऐसी बात कह रहे हैं, जो हमारी बुद्धि में नहीं पड़ती; और या फिर
आपकी बुद्धि ही ठीक नहीं है। आप न मालूम क्या कह रहे हैं! बोधिधर्म ने कहा,
मैं लौट जाता हूं। लेकिन ध्यान रख, आखिर में मैं ही काम पडूंगा।
वह लौट गया। नौ-दस वर्ष बाद जब सम्राट वू की मृत्यु हो रही थी, तब उसे
बड़ी घबड़ाहट होने लगी। उसे लगा, अब मेरा क्या होगा? मैंने इतने मंदिर बनाए
जरूर; मैंने इतने भिक्षुओं को भोजन कराया जरूर; मैंने इतनी मूर्तियां बनाईं
जरूर; मैंने इतने शास्त्र छपवाए जरूर; लेकिन मेरी आकांक्षा तो यही थी कि
लोग कहें कि तू कितना महान धर्मी है! मेरे अहंकार के सिवाय और तो मैंने कुछ
न चाहा! ये सारे मंदिर, ये सारे तीर्थ, ये सारी मूर्तियां, मेरे अहंकार के
आभूषण से ज्यादा कहां हैं? तब वह घबड़ाया। मौत करीब आने लगी, तब वह घबड़ाया।
तब वह चिल्लाया, हे बोधिधर्म! अगर तुम कहीं हो, तो लौट आओ; क्योंकि शायद
तुम्हीं ठीक कहते थे। अगर मैं तुम्हारी सुन लेता, तो शायद मैं कुछ कर सकता,
जो मुझे मुक्त कर देता। ये तो मैंने नए बंधन ही निर्मित किए हैं।
अगर बुद्ध होते, तो अर्जुन को ऐसा न कहते। लेकिन बुद्ध और अर्जुन की
मुलाकात नहीं हो सकती थी। वह इंपासिबल है, वह असंभव है। क्योंकि बुद्ध को
युद्ध के मैदान पर नहीं लाया जा सकता था। और अर्जुन बुद्ध के बोधिवृक्ष के
नीचे हाथ जोड़कर, नमस्कार करके, जिज्ञासा करने नहीं जा सकता था। वे टाइप अलग
थे। अर्जुन जंगल में किसी गुरु के पास जिज्ञासा करने जाता, इसकी संभावना
कम थी। अगर जाता भी कहीं बुद्ध के पास, तो वृक्ष के ऊपर बैठकर पूछता, नीचे
नहीं।
कृष्ण को भी उसके अहंकार को बीच-बीच में तृप्ति देनी पड़ती है। कहते हैं,
हे महाबाहो, हे विशाल बाहुओं वाले अर्जुन! तो अर्जुन बड़ा फूलता है। ठीक
है। कृष्ण से भी सुनने को राजी हो गया इसीलिए कि कृष्ण सारथी हैं उसके,
मित्र हैं, सखा हैं; कंधे पर हाथ रख सकता है; चाहे तो कह सकता है कि सब
व्यर्थ की बातें कर रहे हो! इसलिए सुनने को राजी हो गया।
तो बुद्ध और अर्जुन की मुलाकात नहीं हो सकती थी, वह असंभव दिखती है।
अर्जुन जाता न बुद्ध के पास, और बुद्ध को युद्ध के मैदान पर न लाया जा सकता
था।
इसलिए कृष्ण अर्जुन को जो कह रहे हैं, पूरे वक्त अर्जुन को देखकर कह रहे
हैं। वे कह रहे हैं, बहुत सुख मिलेंगे अर्जुन, अगर तू अच्छे काम करते हुए
मर जाता है असफल, तो स्वर्गों में पैदा हो जाएगा।
अगर बुद्ध से वह कहता कि स्वर्गों में पैदा होऊंगा, तो वे कहेंगे,
स्वर्ग सपने हैं। स्वर्ग कहीं हैं ही नहीं। भटकना मत। जिसने स्वर्ग चाहा,
वह नरक में पहुंच गया। स्वर्ग की चाह नरक में ले जाने का मार्ग है, बुद्ध
कहते, यह बात ही मत कर। अर्जुन का तालमेल नहीं बैठ सकता था बुद्ध से।
कृष्ण एक-एक कदम अर्जुन को…इसको कहते हैं, परसुएशन। अगर गीता में हम
कहें कि इस जगत में परसुएशन की, फुसलाने की, एक व्यक्ति को इंच-इंच ऊपर
उठाने की जैसी मेहनत कृष्ण ने की है, वैसी किसी शिक्षक ने कभी नहीं की है।
सभी शिक्षक सीधे अटल होते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, यह बात है। खरीदना है?
नहीं खरीदना, बाहर हो जाओ।
शिक्षक सख्त होते हैं। शिक्षक को मित्र की तरह पाना बड़ा मुश्किल है।
अर्जुन को शिक्षक मित्र की तरह मिला है, सखा की तरह मिला है। उसके कंधे पर
हाथ रखकर बात चल रही है। इसलिए कई दफा वह भूल में भी पड़ जाता है और व्यर्थ
के सवाल भी उठाता है।
एक फायदा होता, बुद्ध जैसा आदमी मिलता, अगर बोधिधर्म जैसा मिलता, तो
बोधिधर्म तो हाथ में डंडा रखता था। वह तो अर्जुन को एकाध डंडा मार देता
खोपड़ी पर, कि तू कहां की फिजूल की बकवास कर रहा है!
गीता दर्शन
ओशो
No comments:
Post a Comment