हमारे केंद्र में तीन साधक साक्षी के मार्ग पर गतिमान हैं।
उनमें से मैं भी हूं। मैं इन लोगों से कहता हूं कि अब हमारे लिए कोई भी
ध्यान करने की जरूरत नहीं है। अब तो होशपूर्वक सदा सब काम करना ही ध्यान
है। लेकिन अन्य दो मित्रों का कहना है कि नटराज ध्यान करने से होश और भी
बढ़ेगा। मैंने सब ध्यान बंद कर दिया है। कृपा कर इस दिशा में हमारा
मार्गदर्शन करें।
पूछा है सागर के स्वामी सत्य भक्त भारती ने। सत्य भक्त!
तुममें मैं मूढ़ता को रोज रोज बढ़ते देख रहा हूं। तुम जितने प्रश्न पूछते
हो!… मैंने अब तक उनका कोई उत्तर नहीं दिया। जानकर ही नहीं दिया। कि
तुम्हारे प्रश्न सिर्फ तुम्हारे अहंकार से आ रहे है, जिज्ञासा से नहीं। अभी
तुमने ध्यान किया भी नहीं है, छोड़ने की तैयारी हो गयी! सीढ़ी चढ़े ही नहीं
हो अभी। मगर अहंकार बड़ा चालबाज है। वह कहता है, क्या करना है! साक्षी ठीक!
अब साक्षी में तो कुछ करना ही नहीं होता। तुम्हारा साक्षी का सिर्फ बहाना
है। अभी तुम साक्षी तो हो ही नहीं सकते। अभी तो ध्यान से निखार लाना होगा,
तब तुम साक्षी हो सकोगे। अभी तुमने नहीं बोए, तुम फसल काटने की बातें करने
लगे हो।
तुमने ध्यान किया कब? और जो थोड़ा बहुत तुमने पहले किया भी होगा, थोड़ा
उछल कूद उससे कुछ हुआ नहीं है। उससे सिर्फ तुम्हारा अहंकार और अकड़ गया है।
अब तुम यही समझने लगे कि तुम सिद्ध हो गये। और न केवल तुम समझने लगे हो,
तुम वहां केंद्र पर सागर में दूसरों को भी समझा रहे हो कि तुम्हें भी कोई
जरूरत नहीं है। अगर सच में ही तुम्हें साक्षी का भाव पैदा हो गया होता, तो
तुम दूसरों को समझाते कि ध्यान से मेरा साक्षी पैदा हुआ है, तुम ध्यान करो।
और अगर तुम्हें साक्षी का भाव पैदा हो गया होता, तो यह प्रश्न भी पैदा
नहीं हो सकता था। क्योंकि जिसको साक्षी का भाव पैदा हो गया, उसके सब प्रश्न
समाप्त हो गये। यहां जितने लणे हैं, सबसे ज्यादा प्रश्न तुम्हीं पूछते
हों हालांकि मैं उत्तर नहीं देता, यह पहली दफा उत्तर दे रहा हूं।
तुम अपनी मूढ़ता में मत पड़ो। अभी ध्यान करना होगा! इतनी जल्दी सिद्ध मत
हो जाओ। साक्षीभाव आएगा। और साक्षी ध्यान के विपरीत थोड़े ही है। साक्षी के
लिए ध्यान प्रक्रिया है। ध्यान की प्रक्रिया से ही अंतिम निखार साक्षी का
पैदा होता है। वे एक ही क्रिया के अंग हैं।
लेकिन हमारे चालबाज मन हैं। वे कहते हैं, कुछ न किये अगर सिद्ध हो जाएं
तो सबसे अच्छा। फिर तुम सिद्ध हो गये हो, तो तुम्हारे केंद्र पर जो लोग आते
होंगे उनको तुम जंचते नहीं होओगे सिद्ध। तो उनको भी समझा रहे हो कि तुम भी
सिद्ध हो जाओ। तुम हानि पहुंचा रहे हो! तुम अपने को नुकसान पहुंचा रहे हो।
दूसरों को नुकसान पहुंचा रहे हो। सहारा दो दूसरों को ध्यान मैं जाने के
लिए। और खुद भी अभी ध्यान में उतरों। और जब तुम सिद्ध हो जाओगे तो मैं
तुम्हें कहूंगा कि तुम सिद्ध हो गये, तुम्हें बार बार लिख कर भेजने की
जरूरत नहीं है।
तुम्हारे हर प्रश्न में यही होता है कि मैं घोषणा कर दूं। प्रश्न मुझे
लिख कर भेजते हो तुम बार बार कि आप कह दें कि मैं सिद्ध हो गया हूं। आप
औरों को भी खबर कर दें कि मैं सिद्ध हो गया हूं। मैं खुद ही खबर कर दूंगा,
तुम्हें पूछने की जरूरत नहीं होगी। और जो सिद्ध हो गया है, वह कोई
सर्टिफिकेट की तलाश करेगा! तुम चाहते हो, मैं कह दूं कि तुम सिद्ध हो गये
हो, तो तुम जाकर घोषणा करने लगो और लोगों की छाती पर बैठ जाओ और तुम उनको
परेशान करने लगो। फिर तुम अपना तो अहित करोगे ही, दूसरों का भी अहित करोगे।
अभी ध्यान करो। अभी बीज बोओ! अभी फसल को उगाओ! काटने के दिन भी जरूर
आएंगे। और अगर कोई अत्यंत निष्ठा और ईमान से एक क्षण भी ध्यान में उत्तर
जाए, तो एक ही क्षण में वह दिन आ जाता है। मगर इतनी बेईमानी से चलोगे तो
कैसे आएगा! तुम करना ही नहीं चाहते। अब इसको थोड़ा समझ में लेना, यह
औरों के भी काम की बात है। दुनिया में आलसी लोग हैं, काहिल लोग हैं, सुस्त
लोग हैं, जो कुछ नहीं करना चाहते। उनके लिए भक्ति में बड़ा सहारा मिल जाता
है। वे कहते हैं, करना ही क्या है? सब भगवान कर रहा है। इसलिए हमें कुछ
करना नहीं है। दुनिया में कर्मठ लोग हैं, अत्यंत कर्म में लिप्त लोग हैं,
अहंकारी लोग हैं, आक्रामक लोग हैं, उनको कर्म के मार्ग पर सहारा मिल जाता
है, वे कहते हैं करके दिखाना है।
भक्ति के मार्ग से सिर्फ उनको लाभ होगा जो करेंगे और जानेंगे कि हमारे
किये कुछ भी नहीं होता। लेकिन करना तो हमें है; क्योंकि अभी तो हमारे पास
कुछ भी नहीं है। हम जब कर कर के हार जाएंगे तब परमात्मा की कृपा अवतरित
होती है। जब हम पूरा कर चुकेंगे, तब उसकी कृपा अवतरित होगी है। वे तो ठीक
उपयोग कर रहे हैं भक्ति का। और जिन्होंने कहा कि करना ही क्या है, अब बस
ठीक है, हम तो हो गये, उनके लिए भक्ति जहर हो गयी। कर्म के मार्ग पर जो
इसलिए कर्म में लगा है कि उसके अहंकार के तृप्ति मिलती है, वह कर्म के
मार्ग से हानि उठा रहा है। वह उसके लिए जहर हो गया।
लेकिन इसलिए करता है कि अभी तो हमें परमात्मा का कुछ पता नहीं, कौन है,
कहां है; अभी तो हम विधान करेंगे, विधि करेंगे, अपनी पूरी चेष्टा करेंगे,
अपना पूरा संकल्प लगाएंगे; शायद संकल्प के अंतिम चरण में समर्पण का जन्म
हो। समर्पण का जन्म संकल्प के अंतिम चरण में ही होता है। क्रिया की पूर्ण
निष्पत्ति में निष्किय है। और ध्यान का आखिरी रूप साक्षी है। तो तुम इतनी
जल्दी न करो। और दूसरों को तो भूल कर मत समझाना! अभी तो तुम्हें ही बहुत
समझना है।
अथतो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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