तुम स्वयं तीन तीन बार अनुभव से गुजर चुके, तुम कब दूसरे से मुक्त
होओगे! काफी हो गयी देर। अब तो सांझ भी होने लगी। पचपन साल के हो गये, अब
सांझ का वक्त आने लगा, अब रात की तैयारी करो। अब दूसरी यात्रा की तैयारी
करो अब आगे और भी पड़ाव हैं। इस शरीर के पार और भी मंजिलें हैं इम्तिहान अभी
और भी हैं अब यहीं मत उलझे रहो। अब यह जो चित्त बार बार अभी भी स्त्री की
तरफ जा रहा है, यह जाता रहेगा अगर तुमने ध्यान में न लगाया। इसे कोई डेरा
चाहिए, कोई पड़ाव चाहिए, कोई ठहरने की जगह चाहिए। यह जाता रहेगा स्त्री की
तरफ अगर तुमने इसे परमात्मा में न लगाया। अब तो परमात्मा को ही प्रेयसी
बनाओ। अब तो उसी प्यारे को खोज करो। अब तो उसी से राग, उसी से रास रचाओ। अब
तो उसी से भावर डालो। अब तो उसी से फेरे पड़ जाएं। उससे पड़े फेरो का कभी
फिर अंत नहीं होता। उससे ही साथ हो जाए। अब तो विवाह उसी से कर लो। कबीर
कहते हैं: मैं राम की दुल्हनिया।
अब तो कुछ ऐसा करो। इस संसार में तीन तीन बार तुम रास रचाना चाहा, नहीं
रच पाया, तीन तीन बार भावरें पड़ी और टूट टूट गयीं; तीन तीन बार साथ खोजा और
साथी खो खो गया, अब तो उसे खोजो जो कभी खोता नहीं है। जो मिला सो मिला।
धन्यवाद दो तीन पत्नियों को! नहीं तो एक
ही डुबाने को काफी थी। सौभप्तयशाली हो तुम! मगर अपने सौभाग्य को अब
दुर्भाग्य में मत बदलों। और ध्यान रखना कि मैं किसी को असमय में नहीं कहता
कि कोई छोड्कर भाग
जाए। लेकिन तुमसे तो कहूंगा। अगर यही बात कोई और मुझसे पूछता… कल ही रात
किसी युवक ने पूछी अभी उस होगी कोई उठाईस साल की: कि ब्रह्मचर्य का भी मन
में बड़ा भाव उठता है और कामवासना भी उठती है, मैं क्या करूं? मैंने उससे
निश्चित कहा कि तू अभी कामवासना में जा। अभी ब्रह्मचर्य को रहने दे।
लेकिन
तुमसे मैं यह कह न सकूंगा। इसलिए ध्यान रखना, मेरे वक्तव्य विरोधाभासी
होंगे बहुत बार। अब कल तुम भी इसको किसी किताब में पढ़ोगे कि कभी किसी को
कहा है कि ब्रह्मचर्य की फिक्र छोड़ो, अभी तू कामवासना में जा, तुम इसे अपने
लिए मत समझ लेना! यह किससे कहा है, किसके संदर्भ में कहा है, वह स्मरण
रखना। अगर यह युवक अभी भाग जाए भागना चाहता है तो पछताएगा और पीछे जब कोई
पछताता है तो बडी मुश्किल हो जाती है। जब समय है किसी जीवन की अनुश्रइत में
उतरने का, तब उतर जाना उचित है। क्योंकि फिर पीछे उतर भी न सकोगे। और
बिनना उतरे अटके रह जाओगे।
मैंने सुना है, एक पहाडी की चोटी पर एक योगी रहता था। वह जवान था,
स्वस्थ और सुंदर शरीर का मालिक था। मगर उसने शरीर का खयाल त्याग दिया था।
दुनिया को भी त्याग दिया था, ऐश आराम को त्याग दिया था, पत्नी बच्चों को
छोड्कर पहाड़ पर भाग आया था, वह दिन भर भगवान की लौ लगाए समाधि में बैठा
रहता था, आंखें भी नहीं खोलता था। नीचे पहाड़ के पास बसे गाव से कुछ भोजन
लाकर रख जाते थे। जब कोई वहा न होता, चुपचाप भोजन लेता, फिर अपनी लौ में लग
जाता। एक दिन एक जवान औरत उस पहाडी की चोटी पर आयी। योगी ने उसे देखो। औरत
कोई सुंदर नहीं थी, पर जवान था। पूछा योगी ने कहो, कैसे आना हुआ? उस
स्त्री ने कहा मैं जोगी जी को देखने आयी हूं। सुना है कि यहां बहुत बड़े
जोगी रहते हैं, जो ब्रह्मचारी हैं। औरत सुंदर तो नहीं थी लेकिन उसके शरीर
में जवानी का खमीर था। उसकी आवाज में शहद और शराब घुले हुए थे। योगी ने
उसकी तरफ ध्यान से देखा और उसकी आंखों से दो आंसू टपके और उसने जवाब दिया
कि तुम थोड़ी दूर कर के आयीं। पहले यहां एक योगी ब्रह्मचारी रहते थे, अब
नहीं रहते। तुम क्या आयी, योगी ब्रह्मचारी जा चुके!
एक उम्र है। असमय में कुछ भी न करो।
तुमसे तो मैं कहूंगा कि पचपन काफी समय हो गया। कौन जाने कितने थोडे से दिन बचे हो जिंदगी के। अब उन्हें भजन में लगाओ।
पचपन वर्ष लंबा समय है। बहुत तो गुजार आए, थोड़ी है। हाथी तो निकल गया, शायद पूंछ ही बची है। पूंछ भी निकल जाएगी जब हाथी निकल गया। हाथी तो व्यर्थ ही निकल गया, अब जरा पूंछ को थोड़ी सार्थकता दे लो। संसार की आपाधापी में वासना में, इच्छा में, महत्वाकाक्षा में सिर्फ गंवाना ही गंवाना है, पाना कुछ भी नहीं है। और अगर कुछ पाना है तो इतना ही कि इस सारी व्यवस्था के प्रति कोई जलकर देख ले कि यह सपना है, माया है। मेरी ही वासनाओं का वेग है। अब अपने को देखो। दूसरे से मुक्त हो ओहो। अब भीतर की तरफ मुड़ो। अब घर लौटो।
अथतो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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