धर्म और क्या है! अंतर्वीणा को बजाने की कला है।
तीन तीन बार तुमने प्रयास किया और तुम हार गये, अब तो उस भी हो गयी।
बयालीस साल की उस तक पुरुष का स्त्री में रस रहे, स्त्री का पुरुष में रस
रहे, यह स्वाभाविक है। इसमें कुछ पाप नहीं है। जैसे चौदह साल की उस में रस
पैदा होता है। जीवन में सारे परिवर्तन सात सात साल के बिंदुओं पर होते हैं।
पहला परिवर्तन तब होता है जब बच्चा सात साल से आठ साल का होता है। तब
उसमें अहंकार का जन्म होता है। वह अपने मां बाप से मुक्त होने की कोशिश
करता है। इसलिए सात साल के बच्चे हर चीज में इनकार करने लगते हैं नहीं
करूंगा, नहीं जाऊंगा। और जो जो उनसे कहो, वही इनकार करेंगे, और जो इनकार
करो कि मत मरना सिगरेट मत पीना, सिनेमा मत जाना, वे पहुंच जाएंगे। वे
सिगरेट भी पीएंगे। इनकार से अहंकार पैदा होने का उपाय बनता है। सात साल की
उस में अहंकार पैदा होता है, व्यक्ति अपने को अलग करता है मां बाप से। सात
साल की उस में वस्तुत: मां बाप के गर्भ से मुक्त होने की चेष्टा शुरू होती
है। चौदह साल में चेष्टा पूरी हो जाती है।
इसलिए चौदह साल के बच्चे मां बाप को भी जरा बेचैन करते हैं और बच्चों को
मां बाप भी जरा बेचैन करते हैं। चौदह साल का बच्चा बाप के सामने खड़ा होता
है तो बाप भी थोड़ी मुश्किल में पड़ता है। और चौदह साल का बच्चा भी अपने को
हमेशा मुश्किल में अनुभव करता है। अब उसकी कामवासना कानी शुरू होती है।
दूसरे सात साल पूरे हो गये। अहंकार के बिना कामवासना नहीं जब सकती। पहले
अहंकार जगे, तो ही कामवासना जग सकती है। पहले मैं जगे, तो तू की तलाश जग
सकती है। नहीं तो तू की तलाश कैसे होगी? चौदह साल में वासना जगती है।
अटठाईस साल में वासना अपने शिखर पर पहुंच जाती है। चौदह साल में जगती
है, इक्कीस साल में परिपक्व होती है। अठाईस साल में अपने शिखर पर पहुंच
जाती है। पैंतीसवें साल में ढलान शुरू हो जाता है। पैंतीस साल में जिंदगी
का आधा हिस्सा आ गया। पहाड़ी चढ़ गये तुम। जितनी चढुनी थी, पैतीस के बाद उतार
शुरू होता है। बयालीस में एकदम शिथिल होने लगती है। उन्वास में समाप्त हो
जाती है। बयालीस के पहले तक स्त्री में पुरुष का रस, पुरुष में स्त्री का
रस स्वाभाविक है।
बयालीस के बाद शिथिलता आनी शुरू होती है। उन्न्दास में समाप्त हो जाना
चाहिए। अगर जीवन बिलकुल स्वाभाविक चलता जाएं। उन्वास के बाद एक नया
अस्तित्व का चरण उठता है। जैसे एक से सात तक अहंकार को पाला था, ऐसे ही
उन्यास से छप्पन तक अहंकार का विगलन शुरू होता है। यही क्षण हैं जब आदमी
धार्मिक होने की चेष्टा में संलग्न होता है। छप्पन से लेकर तिरेसठ तक
अहंकार शून्य हो जाना चाहिए। और तिरेसठ से सत्तर तक निरअहंकार जीवन होना
चाहिए।
अगर सत्तर वर्ष में हम जीवन को बांट दें, तो जैसे पहले से सात साल तक
निरअहंकार जीवन था, ऐसे ही फिर तिरेसठ से सत्तर तक निरअहंकार जीवन हो
जाना चाहिए। समाधिस्थ का जीवन, मृत्यु की तैयारी, परमात्मा से मिलने का
उपाय।
अब तुम कहते हों तुम पचपन के हुए! अब समय गंवाने को नहीं है। ऐसे ही
काफी समय गंवा चुके हो। और तीन बार संयोग की बात थी कि स्त्रिया उदारमना
थीं, छोड्कर चली गयी। चौथी भी इतनी उदारमना होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
अवसर भी एक सीमा तक दीये जाते हैं। बार बार मिलते ही रहेंगे, इतना भी भाग्य
पर भरोसा मत करो।
और ध्यान रखो, समझदार आदमी दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है। और नासमझ
अपने अनुभव से भी नहीं सीख पाता। तुम्हें मिला क्या है? एक बार इसका
निरीक्षण करो। जीवन में सिर्फ आशाएं हैं, अनुभूतिया कुछ भी नहीं। मिलेगा,
ऐसी आशा रहती है। मिलती कभी कुछ नहीं। बुद्धिमान आदमी दूसरे के जीवन को भी
देखकर समझ जाता है। अब समय आ गया है। अब समय आ गया है कि थोड़ी बुद्धिमानी
बरतो।
मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा था। मुल्ला नसरुद्दीन गवाह की तरह
मौजूद था। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब इस स्त्री की अपने पति
के साथ लड़ाई हुई, तब तुम क्या वहा मौजूद थे? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा जी
हां! जज ने पूछा कि तुम उसके गवाह की हैसियत से क्या कहना चाहते हो? बोलो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यही हजूर कि मैं कभी शादी नहीं करूंगा।
आदमी दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है।
अथतो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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