क्या चौथी स्त्री को मारने का विचार है?
अब तो जागो! परमात्मा ने तीन तीन बार इशारा किया, तुम्हारे कारण तीन
स्त्रिया विदा हो गयीं, और तुम अभी भी ललचा रहे हो! चौथी पर नजर खराब है!
एक समय है, तब सब सुंदर है। अब तुम पचपन के हुए! अब कुछ और भी करोगे यही
घर घुले बनाते रहोगे? और तुम सौभाग्यशाली हो! तुमने तो तीन तीन बार झंझट
ली, परमात्मा ने तुम्हें तीन तीन बार झंझट से बाहर कर दिया। तुम स्वाभाविक
संन्यासी हो, अब और क्यों झंझट में पड़ते हो? कहावत तुमने सुनी नहीं कि
भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है। तुमको छपर फाड़ कर देता रहा। और
क्या चाहते हो?
और तीन तीन स्त्रियों से अनुभव पर्याप्त नहीं हुआ? क्या पाया? सुख पाया
सुख यहां कोई भी दूसरे से पाता नहीं। न पति पत्नी से पता है, न पत्नी पति
से पाती है। दूसरे से सुख कभी मिला है! सुख अंतभार्व है। भीतर से उमगता है।
और जो अपने से पा लेता है, वह पत्नी से भी पा लेते है, बेटे से भी पा लेते
है। पिता से भी पा लेते है, मां से भी पा लेता है। और कोई भी नहीं होता तो
अकेले में भी पाता है। उसके भीतर ही उमग रहा है। और जो अपने से नहीं पा
सकता, वह किसी से भी नहीं पा सकता। जो तुम्हारे भीतर नहीं है उसे तुम किसी
से भी पा न सकोगे।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है। जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छिन लिया जाएगा जो उनके पास है।
भीतर सुख चाहिए, भीतर शांति चाहिए, भीतर उल्लास चाहिए बस फिर और बढ़ता
जाता है। फिर हर हालत में बढ़ता है; साथ रहो, संग रहो, अकेले रहो, बाजार में
रहो, भीड़ में रहो—कहीं भी रहो—घर में रहो, घर के बाहर रहो, मंदिर में रहो,
जहां रहना हो रहो, फिर सुख बढ़ता है तो बढ़ता चला जाता है। खोजना वहां है।
जब तक तुम दूसरे में सुख खोज रहे हो तब तक तुम भ्रांति में पड़े हो। दूसरा
तुम में खोज रहा है, तुम दूसरे में खोज रहे हो, दोनों भिखमंगे हो। न उसके
पास है। उसके ही पास होता तो तुममें खोजने आता! ये तीन स्त्रिया जो तुम्हें
खोजती चली आयीं और मारी गयीं, इनके पास सुख होता तो तुमको खोजती? तुम किस
में खोज रहे थे? जो तुम में खोजने आया, उसमें तुम खोज रहे हो! जिसके हाथ
तुम्हारे सामने भिक्षापात्र की तरह फैले हैं, उसके सामने तुम भी अपना
भिक्षापात्र फैला रहे हो! भिखमंगे भिखमंगे के सामने खड़ा हैं! फिर अगर जीवन
में सुख नहीं मिलता, तो आश्चर्य क्या है?
मागें से नहीं मिलता सुख जागे से मिलता है। सुख का सृजन करना होता है।
सुख तुम्हारे प्राणों का संगीत है। जैसे वीणा पर कोई तार छेड़ देता है, ऐसे
ही जब तुम अपनी अंतर्वीणा को छेड़ते हो, जब उस कला को सीख लेते हो, उसी कला
का नाम प्रार्थना है, उसी कला का नाम ध्यान, उसी कला का नाम भजन, उसी कला
का नाम भक्ति, ये सब उसी के नाम हैं। वीणा तो मिली है जन्म के साथ, लेकिन
कला सीखनी पड़ती है। वह किसी सदगुरु के पास सीखनी पड़ेगी। किसी ऐसे के पास
सीखनी पड़ेगी जिसने अपनी वीणा बजा ली हो। बाहर की वीणा भी सीखने जाते हो,
किसी उस्ताद के चरणों में बैठना पड़ता है। भीतर की वीणा तो तुम्हें मिली है,
वह परमात्मा की भेंट है उसी वीणा का नाम जीवन है मगर उसी वीणा को कैसे
बजाएं, यह पता नहीं है। और जब तक वह वीणा बजे तक तक तृप्ति नहीं है।
अतृप्ति अनुभव होती है, तुम बाहर तड़पते हो, भागते हो इससे मिल जाए, उससे
मिल जाए, तुम दौड़ते रहते हो, दौड़ते रहते हो जिंदगी भर, और वीणा तुम्हारे
भीतर पड़ी है, और संगीत वहा पैदा होना था, और वही संगीत पैदा हो जाता तो सब
संतुष्टि हो जाती। मगर वहां तुम जाते नहीं। वहा तुम आंख भी ले जाने से
ड़रते हो, क्योंकि वह नंगी पड़ी वीणा तुम्हें बड़ा बेचैन कर देती है। तुम समझ
ही नहीं पाते क्या है। वे तार तुम्हारी समझ में नहीं आते। और अगर कभी तुम
उन्हें छेड़ते हो तो सिर्फ बेसुरापन पैदा होता है, क्योंकि कला तुम्हें नहीं
आती।
अथतो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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