सम्मोहन चिकित्सा, हिप्नोथेरापी का भविष्य उज्जवल है। यह भविष्य की औषधि
बनने जा रही है, क्योंकि बस तुम्हारे विचारों के प्रारूप को बदल देने से
ही तुम्हारे मन को परिवर्तित किया जा सकता है, तुम्हारे मन के माध्यम से
तुम्हारे प्राण शरीर और प्राण शरीर के माध्यम से तुम्हारे स्थूल शरीर को
बदला जा सकता है। तब औषधि के रूप में विष की चिंता क्यों की जाए, स्थूल
औषधियों की फिकर में क्या पड़ना? क्यों न इस कार्य को विचार शक्ति से कर
लिया जाए? क्या तुमने कभी किसी सम्मोहनविद को किसी माध्यम पर कार्य करते
हुए देखा है? यदि तुमने नहीं देखा है, तो यह देखने लायक घटना है। यह तुमको
एक विशेष अंतर्दृष्टि देगा।
शायद तुमने सुना हो या शायद तुमने देखा भी हों: भारत में यह होता है; तुमने आग पर चलने वालों को अवश्य देखा होगा। यह और कुछ नहीं वरन हिप्नोथेरैपी है। यह विचार कि वे किसी विशिष्ट देवता या किसी विशिष्ट देवी से आविष्ट हो गए हैं और अब उनको कोई आग नहीं जला सकती, बस यह विचार ही पर्याप्त है। यह विचार उनके शरीरों के सामान्य क्रियाकलापों का नियंत्रण और रूपांतरण कर देता है।
वे तैयारी किए हुए होते हैं. चौबीस घंटे पहले से वे उपवास करते हैं। जब तुम उपवास कर रहे हो तो तुम्हारा पूरा शरीर शुद्ध है और इसके भीतर मल नहीं रहा, तब तुम्हारे और स्थूल शरीर के मध्य का सेतु गिर जाता है। चौबीस घंटे तक वे किसी मंदिर में या मस्जिद में स्तुति गाते हुए, नाचते हुए परमात्मा से लय मिलाते हुए रहते हैं। फिर वह क्षण आता है जब वे आग पर चलते हैं। वे नृत्य करते हुए आविष्ट की भावदशा में आते हैं। वे पूरी श्रद्धा से आते हैं कि उनको आग जला नहीं सकती, बस यही है; और कुछ भी नहीं है इसमें। प्रश्न यही है कि श्रद्धा किस भांति निर्मित की जाए। फिर वे आग पर नृत्य कर लेते हैं और आग नहीं जलाती।
ऐसा अनेक बार हो गया है कि कोई व्यक्ति जो बस एक दर्शक था वह तक आविष्ट हो गया। बीस लोग आग पर चल रहे हैं और जले नहीं, और कोई व्यक्ति अचानक इतना आश्वस्त हो गया है : ‘यदि ये लोग आग पर चल रहे हैं तो मैं क्यों नहीं चल सकता?’ और वह भीतर कूद पड़ा और आग ने उसको नहीं जलाया। उसी क्षण में अचानक एक श्रद्धा जाग उठी। कभी—कभी ऐसा हो गया कि जो लोग तैयारी करके आए थे, जल गए।
कभी कभी कोई बिना तैयारी किया हुआ दर्शक आग पर चल गया और नहीं जला। क्या हो गया ? जिन लोगों ने तैयारी की थी उनमें कहीं कोई संदेह अवश्य रहा होगा। वे यह अवश्य सोच रहे होंगे कि ऐसा होने जा रहा है या नहीं। उनकी चेतना में, विज्ञानमय कोष में एक सूक्ष्म संदेह अवश्य रहा होगा। यह संपूर्ण श्रद्धा नहीं थी।
इसलिए वे आए थे, लेकिन संदेह के साथ। उस संदेह के कारण शरीर उच्चतर आत्मा से संदेश ग्रहण नहीं कर सका। दोनों के मध्य में संदेह आ खड़ा हुआ और शरीर ने सामान्य ढंग से कार्य करना जारी रखा; वह जल गया। यही कारण है कि सभी धर्म श्रद्धा पर बल दिया करते हैं। सम्मोहन चिकित्सा है श्रद्धा। श्रद्धा के बिना तुम अपने अस्तित्व के सूक्ष्म भागों में प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्यौंकि एक जरा सा संदेह और तुमको वापस स्थूल पर फेंक दिया जाता है। विज्ञान संदेह के साथ कार्य करता है। संदेह वितान की विधि है, क्योंकि विज्ञान स्थूल के साथ कार्य करता है। तुम संदेह करते हो या नहीं, एक एलौपैथ चिकित्सक को चिंता नहीं होती। वह तुमसे अपनी औषधि में भरोसा करने के लिए नहीं कहता, वह तो बस तुमको दवा दे देता है। लेकिन एक होम्योपैथ चिकित्सक पूछेगा, क्या तुमको भरोसा है, क्योंकि किसी होम्योपैथ के लिए तुम्हारे विश्वास के बिना तुम पर कार्य कर पाना अधिक कठिन होगा। और एक सम्मोहनविद पूर्ण समर्पण के लिए कहेगा। वरना कुछ नहीं किया जा सकता है।
धर्म है समर्पण। धर्म है सम्मोहन चिकित्सा। लेकिन अभी एक और शरीर है, वह है आनंदमय कोष : आनंद का शरीर। सम्मोहन चिकित्सा चौथे शरीर तक जाती है। ध्यान पांचवें शरीर तक जाता है।’मेडिटेशन’ यह शब्द ही सुंदर है क्योंकि इसका मूल वही है जो मेडिसिन का है। दोनों एक ही मूल से आते हैं। मेडिसिन और मेडिटेशन एक ही शब्द की व्युत्पत्तियां है वह जो स्वस्थ करता है, वह जो तुमको स्वस्थ और समग्र बनाता है, मेडिसिन (औषधि) है और गहनतम तल पर यही मेडिटेशन (ध्यान) है।
ध्यान तुमको सुझाव तक नहीं देता, क्योंकि सुझाव बाहर से दिए जाते हैं। किसी और को तुम्हें सुझाव देना पड़ता है। सुझावों का अभिप्राय है कि तुम किसी और पर निर्भर हो। वे तुमको पूरी तरह से चैतन्य नहीं बना सकते क्योंकि दूसरे की आवश्यकता पड़ेगी, और तुम्हारे अस्तित्व पर उसकी एक छाया पड जाएगी। ध्यान तुमको पूरी तरह से चैतन्य बना देता है किसी छाया के बिना बिना अंधकार के परिपूर्ण प्रकाश। अब सुझाव भी एक स्थूल चीज समझा जाता है। कोई सुझाव देता है—इसका अर्थ है कि कोई चीज बाहर से आती है, और जो कुछ भी बाहर से आता है, .विश्लेषण की परम सूक्ष्मता में वह भौतिक है। केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि वह सभी जो बाहर से आता है भौतिक है। एक विचार तक पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। सम्मोहन चिकित्सा भी भौतिकवादी है।
ध्यान सारी संभावनाएं, सभी सहारे गिरा देता है। यही कारण है कि ध्यान को समझ पाना संसार का सर्वाधिक कठिन कार्य है, क्योंकि बचता कुछ भी नहीं है बस एक शुद्ध समझ, एक साक्षीभाव।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
शायद तुमने सुना हो या शायद तुमने देखा भी हों: भारत में यह होता है; तुमने आग पर चलने वालों को अवश्य देखा होगा। यह और कुछ नहीं वरन हिप्नोथेरैपी है। यह विचार कि वे किसी विशिष्ट देवता या किसी विशिष्ट देवी से आविष्ट हो गए हैं और अब उनको कोई आग नहीं जला सकती, बस यह विचार ही पर्याप्त है। यह विचार उनके शरीरों के सामान्य क्रियाकलापों का नियंत्रण और रूपांतरण कर देता है।
वे तैयारी किए हुए होते हैं. चौबीस घंटे पहले से वे उपवास करते हैं। जब तुम उपवास कर रहे हो तो तुम्हारा पूरा शरीर शुद्ध है और इसके भीतर मल नहीं रहा, तब तुम्हारे और स्थूल शरीर के मध्य का सेतु गिर जाता है। चौबीस घंटे तक वे किसी मंदिर में या मस्जिद में स्तुति गाते हुए, नाचते हुए परमात्मा से लय मिलाते हुए रहते हैं। फिर वह क्षण आता है जब वे आग पर चलते हैं। वे नृत्य करते हुए आविष्ट की भावदशा में आते हैं। वे पूरी श्रद्धा से आते हैं कि उनको आग जला नहीं सकती, बस यही है; और कुछ भी नहीं है इसमें। प्रश्न यही है कि श्रद्धा किस भांति निर्मित की जाए। फिर वे आग पर नृत्य कर लेते हैं और आग नहीं जलाती।
ऐसा अनेक बार हो गया है कि कोई व्यक्ति जो बस एक दर्शक था वह तक आविष्ट हो गया। बीस लोग आग पर चल रहे हैं और जले नहीं, और कोई व्यक्ति अचानक इतना आश्वस्त हो गया है : ‘यदि ये लोग आग पर चल रहे हैं तो मैं क्यों नहीं चल सकता?’ और वह भीतर कूद पड़ा और आग ने उसको नहीं जलाया। उसी क्षण में अचानक एक श्रद्धा जाग उठी। कभी—कभी ऐसा हो गया कि जो लोग तैयारी करके आए थे, जल गए।
कभी कभी कोई बिना तैयारी किया हुआ दर्शक आग पर चल गया और नहीं जला। क्या हो गया ? जिन लोगों ने तैयारी की थी उनमें कहीं कोई संदेह अवश्य रहा होगा। वे यह अवश्य सोच रहे होंगे कि ऐसा होने जा रहा है या नहीं। उनकी चेतना में, विज्ञानमय कोष में एक सूक्ष्म संदेह अवश्य रहा होगा। यह संपूर्ण श्रद्धा नहीं थी।
इसलिए वे आए थे, लेकिन संदेह के साथ। उस संदेह के कारण शरीर उच्चतर आत्मा से संदेश ग्रहण नहीं कर सका। दोनों के मध्य में संदेह आ खड़ा हुआ और शरीर ने सामान्य ढंग से कार्य करना जारी रखा; वह जल गया। यही कारण है कि सभी धर्म श्रद्धा पर बल दिया करते हैं। सम्मोहन चिकित्सा है श्रद्धा। श्रद्धा के बिना तुम अपने अस्तित्व के सूक्ष्म भागों में प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्यौंकि एक जरा सा संदेह और तुमको वापस स्थूल पर फेंक दिया जाता है। विज्ञान संदेह के साथ कार्य करता है। संदेह वितान की विधि है, क्योंकि विज्ञान स्थूल के साथ कार्य करता है। तुम संदेह करते हो या नहीं, एक एलौपैथ चिकित्सक को चिंता नहीं होती। वह तुमसे अपनी औषधि में भरोसा करने के लिए नहीं कहता, वह तो बस तुमको दवा दे देता है। लेकिन एक होम्योपैथ चिकित्सक पूछेगा, क्या तुमको भरोसा है, क्योंकि किसी होम्योपैथ के लिए तुम्हारे विश्वास के बिना तुम पर कार्य कर पाना अधिक कठिन होगा। और एक सम्मोहनविद पूर्ण समर्पण के लिए कहेगा। वरना कुछ नहीं किया जा सकता है।
धर्म है समर्पण। धर्म है सम्मोहन चिकित्सा। लेकिन अभी एक और शरीर है, वह है आनंदमय कोष : आनंद का शरीर। सम्मोहन चिकित्सा चौथे शरीर तक जाती है। ध्यान पांचवें शरीर तक जाता है।’मेडिटेशन’ यह शब्द ही सुंदर है क्योंकि इसका मूल वही है जो मेडिसिन का है। दोनों एक ही मूल से आते हैं। मेडिसिन और मेडिटेशन एक ही शब्द की व्युत्पत्तियां है वह जो स्वस्थ करता है, वह जो तुमको स्वस्थ और समग्र बनाता है, मेडिसिन (औषधि) है और गहनतम तल पर यही मेडिटेशन (ध्यान) है।
ध्यान तुमको सुझाव तक नहीं देता, क्योंकि सुझाव बाहर से दिए जाते हैं। किसी और को तुम्हें सुझाव देना पड़ता है। सुझावों का अभिप्राय है कि तुम किसी और पर निर्भर हो। वे तुमको पूरी तरह से चैतन्य नहीं बना सकते क्योंकि दूसरे की आवश्यकता पड़ेगी, और तुम्हारे अस्तित्व पर उसकी एक छाया पड जाएगी। ध्यान तुमको पूरी तरह से चैतन्य बना देता है किसी छाया के बिना बिना अंधकार के परिपूर्ण प्रकाश। अब सुझाव भी एक स्थूल चीज समझा जाता है। कोई सुझाव देता है—इसका अर्थ है कि कोई चीज बाहर से आती है, और जो कुछ भी बाहर से आता है, .विश्लेषण की परम सूक्ष्मता में वह भौतिक है। केवल पदार्थ ही नहीं बल्कि वह सभी जो बाहर से आता है भौतिक है। एक विचार तक पदार्थ का सूक्ष्म रूप है। सम्मोहन चिकित्सा भी भौतिकवादी है।
ध्यान सारी संभावनाएं, सभी सहारे गिरा देता है। यही कारण है कि ध्यान को समझ पाना संसार का सर्वाधिक कठिन कार्य है, क्योंकि बचता कुछ भी नहीं है बस एक शुद्ध समझ, एक साक्षीभाव।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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