तुम जब पैदा हुए थे, तुम वही हो? कितनी तो धारा बह चुकी, कितनी तो नदी
बह चुकी! गंगा का कितना पानी तो बह चुका! तुम जवान हो गए अब, कितने बह गए!
के होओगे तब तुम यही रहोगे? बहुत कुछ बह चुका होगा। लेकिन एक अर्थ में तुम
यही रहोगे, क्योंकि एक ही धारा है। जो पैदा हुआ था, वही तो नहीं मरेगा; जो
बच्चा पैदा हुआ था सत्तर साल पहले, वही थोड़े ही मरेगा, सत्तर साल में सब
बदल गया, लेकिन फिर भी एक अर्थ में वही मरेगा, वही धारा टूटेगी।
इस धारा के सिद्धात को बुद्ध ने बड़ा मूल्य दिया है। यह उनकी अनूठी खोज है। इसका अर्थ हुआ कि इस जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है, तुम भी थिर नहीं हो, अथिरता इस जगत का स्वभाव है। परिवर्तन इस जगत का स्वभाव है। इसके पहले भी लोगों ने कहा है कि जगत का स्वभाव परिवर्तन है, लेकिन तुमको बचा लिया था उन्होंने कहा था, तुम नहीं बदलते, सब बदल रहा है, तुम थिर हो। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम भी थिर नहीं हो, तुम भी बदल रहे हो। और जो नहीं बदल रहा है, उसका तो तुम्हें पता ही नहीं है। और जब तक तुम हो, तब तक उसका पता भी नहीं चलेगा। जब तुम बिलकुल ऐसा अनुभव कर लोगे कि मैं भी इस बदलते जगत की ही एक छाया हूं और तुम भी इस जगत की बदलाहट के साथ?
जाओगे और धीरे धीरे यह मोह छोड़ दोगे कि मैं थिर हूं तब तुम्हें कुछ दिखायी पड़ेगा। कुछ, जो शाश्वत है।
लेकिन उसकी बुद्ध ने चर्चा नहीं की। क्योंकि वह कहते हैं, चर्चा करते से ही गलती हो जाती है। जिसकी भी हम चर्चा कर सकते हैं, वही अशाश्वत हो जाता है। इसलिए उसे चर्चा के बाहर छोड़ दिया है। है कुछ, अनिर्वचनीय, नित्य, मगर उसकी चर्चा नहीं की है। तुम तो जिसे अभी जानते हो कि मैं हूं यह बदल रहा है। तुम एक धारा हो, एक संतति हो। जैसे दीए की ज्योति, या नदी। इस बात को खयाल में लोगे तो अर्थ साफ हो जाएगा।
‘वह धीर जहां उत्पन्न होता है…….। ‘
यत्थ सो जायति धीरो त कुलं सुखमेधति ।
‘……. उस कुल में सुख बढ़ता है। ‘
जहां बुद्धत्व का पदार्पण हो गया, फिर उसके बाद तुम्हारे भीतर जो संतति चलती है, जो धारा आती है, तुम जो रोज रोज पैदा होते हो, उसमें रोज रोज सुख बढ़ता चला जाता है। आज और, कल और, परसों और। तुम बदलते जाते हो लेकिन सुख घना होता जाता है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां सुख महासुख हो जाता है। उस महासुख की घड़ी को ही निर्वाण की घड़ी कहा है। समाधि की घड़ी कहो, जीवनमुक्त की दशा कहो, या जो भी नाम देना हो।
एस धम्मो संनतनो
ओशो
इस धारा के सिद्धात को बुद्ध ने बड़ा मूल्य दिया है। यह उनकी अनूठी खोज है। इसका अर्थ हुआ कि इस जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है, तुम भी थिर नहीं हो, अथिरता इस जगत का स्वभाव है। परिवर्तन इस जगत का स्वभाव है। इसके पहले भी लोगों ने कहा है कि जगत का स्वभाव परिवर्तन है, लेकिन तुमको बचा लिया था उन्होंने कहा था, तुम नहीं बदलते, सब बदल रहा है, तुम थिर हो। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम भी थिर नहीं हो, तुम भी बदल रहे हो। और जो नहीं बदल रहा है, उसका तो तुम्हें पता ही नहीं है। और जब तक तुम हो, तब तक उसका पता भी नहीं चलेगा। जब तुम बिलकुल ऐसा अनुभव कर लोगे कि मैं भी इस बदलते जगत की ही एक छाया हूं और तुम भी इस जगत की बदलाहट के साथ?
जाओगे और धीरे धीरे यह मोह छोड़ दोगे कि मैं थिर हूं तब तुम्हें कुछ दिखायी पड़ेगा। कुछ, जो शाश्वत है।
लेकिन उसकी बुद्ध ने चर्चा नहीं की। क्योंकि वह कहते हैं, चर्चा करते से ही गलती हो जाती है। जिसकी भी हम चर्चा कर सकते हैं, वही अशाश्वत हो जाता है। इसलिए उसे चर्चा के बाहर छोड़ दिया है। है कुछ, अनिर्वचनीय, नित्य, मगर उसकी चर्चा नहीं की है। तुम तो जिसे अभी जानते हो कि मैं हूं यह बदल रहा है। तुम एक धारा हो, एक संतति हो। जैसे दीए की ज्योति, या नदी। इस बात को खयाल में लोगे तो अर्थ साफ हो जाएगा।
‘वह धीर जहां उत्पन्न होता है…….। ‘
यत्थ सो जायति धीरो त कुलं सुखमेधति ।
‘……. उस कुल में सुख बढ़ता है। ‘
जहां बुद्धत्व का पदार्पण हो गया, फिर उसके बाद तुम्हारे भीतर जो संतति चलती है, जो धारा आती है, तुम जो रोज रोज पैदा होते हो, उसमें रोज रोज सुख बढ़ता चला जाता है। आज और, कल और, परसों और। तुम बदलते जाते हो लेकिन सुख घना होता जाता है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां सुख महासुख हो जाता है। उस महासुख की घड़ी को ही निर्वाण की घड़ी कहा है। समाधि की घड़ी कहो, जीवनमुक्त की दशा कहो, या जो भी नाम देना हो।
एस धम्मो संनतनो
ओशो
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