Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Tuesday, October 6, 2015

नेमिनाथ और कृष्ण भाग २

त्यागी किसी को सम्मान दे, यह बड़ा मुश्किल है। बहुत कठिन है। त्यागी बड़ा कठोर हो जाता है, बड़ा पथरीला हो जाता है। उसके लिए व्यक्ति-संबंध और राग का कोई मूल्य नहीं रह जाता। तो ऐसा समझें कि कृष्ण की तरफ से नेमिनाथ चचेरे भाई हैं, नेमिनाथ की तरफ से कोई भाई-वाई नहीं है। क्योंकि नेमिनाथ कभी कुशल-क्षेम पूछने भी नहीं गए। उससे कोई संबंध नहीं है। वह तो राग की दुनिया के बाहर हैं, विराग का “डायमेंशन’ है, जहां सब संबंध छोड़ देने हैं, असंग हो जाना है; जहां कोई अपना नहीं है, जहां कोई है ही नहीं जिससे कोई संबंध जोड़ने की बात हो। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि नेमिनाथ से कोई “इज़ोटेरिक’ बात, कोई गुहय-बात कृष्ण को मिली हो, ऐसा नहीं है। 

क्योंकि नेमिनाथ कृष्ण को कुछ भी नहीं दे सकते हैं। चाहते तो कृष्ण से कुछ ले सकते थे। उसके कारण हैं। क्योंकि कृष्ण “मल्टी-डायमेंशनल’ हैं। कृष्ण बहुत कुछ जानते हैं जो नेमिनाथ नहीं जानते–नहीं जान सकते। नेमिनाथ जो जानते हैं, उसे कृष्ण जान सकते हैं, पहचान सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।

कृष्ण का व्यक्तित्व समग्र को आच्छादित करता है। नेमिनाथ का व्यक्तित्व एक दिशा को पूरा-का-पूरा जीता है। इसलिए नेमिनाथ कीमती व्यक्ति थे कृष्ण के युग में, लेकिन इतिहास पर उनकी कोई छाप नहीं छूट जाती। त्यागी की कोई छाप इतिहास पर नहीं छूट सकती। इतिहास पर त्यागी की क्या छाप छूटेगी? उसकी एक ही कथा है कि उसने छोड़ दिया। एक ही घटना है जो इतिहास अंकित करेगा कि उसने सब छोड़ दिया। कृष्ण का व्यक्तित्व सारे हिंदुस्तान पर छा गया। सच तो ऐसा है कि कृष्ण के साथ हिंदुस्तान ने जिस ऊंचाई को देखा, फिर वह दुबारा नहीं देख पाया। कृष्ण के साथ उसने जो युद्ध लड़ा, महाभारत, फिर वैसा युद्ध नहीं लड़ पाया। फिर हम छोटी-मोटी लड़ाइयों में, टुच्ची लड़ाइयों में उलझे रहे।

महाभारत जैसा युद्ध कृष्ण के साथ संभव हो सका। और ध्यान रहे, साधारणतः लोग सोचते हैं कि युद्ध लोगों को नष्ट कर जाते हैं। लेकिन हिंदुस्तान ने तो कृष्ण के बाद, महाभारत के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। हिंदुस्तान को तो सबसे ज्यादा समृद्ध होना चाहिए था, नष्ट होने का कोई कारण नहीं। लेकिन आज पृथ्वी पर वे ही कौमें समृद्ध हैं, जो बड़े युद्धों से गुजरी हैं।

 युद्ध नष्ट नहीं कर जाते, युद्ध सोई हुई ऊर्जा को जगा जाते हैं। असल में युद्ध के क्षणों में ही कोई कौम अपनी चेतना के, अपने होने के, अपने अस्तित्व के शिखरों को छूती हैं। चुनौती के क्षण में ही हम पूरे जगते हैं। तो महाभारत के बाद ऐसे जागरण का कोई क्षण नहीं आया जब हमने पूरी तरह अपने को जाना हो।

पिछले दो महायुद्ध जहां गुजरे हैं, एक कथा है उनकी कि वे टूटे और मिटे। लेकिन वह अधूरी है कथा। जापान नष्ट हो गया था बुरी तरह। लेकिन सिर्फ बीस साल में, जैसा जापान कभी नहीं था, वैसा फिर प्रगट हो गया। जर्मनी टूट कर बिखर गया था। दो युद्ध गुजरे उसकी छाती पर। लेकिन पहला युद्ध उन्नीस सौ चौदह में गुजरा और बीस साल बाद वह फिर दूसरा युद्ध लड़ने के योग्य हो गया। और कोई नहीं कह सकता कि दस-पांच वर्षों में वह फिर तीसरा युद्ध लड़ने के योग्य नहीं हो जाएगा। 

यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि हमने युद्ध का एक ही पहलू देखा है कि वह नष्ट कर जाता है। हमने दूसरा पहलू नहीं देखा कि वह हमारी सोयी हुई प्रसुप्त चेतना को जगा जाता है। और हमने यह नहीं देखा कि उसकी चुनौती में हमारे वे जो अंश बेकाम पड़े रहते हैं, सक्रिय हो उठते हैं। “क्रिएटिव’ हो उठते हैं। असल में विध्वंस की छाया में, विध्वंस के साथ सृजन की क्षमता और आत्मा भी पैदा होती है। वे भी जीवन के दो पहलू हैं, इकट्ठे। और कृष्ण, जो इतने रागरंजित हैं, जो इतने नृत्य-गान में मस्त हैं, जो गीत और बांसुरी में जिए हैं, वे उस युद्ध को स्वीकार कर लेते हैं। इस स्वीकृति में कोई विरोध नहीं पड़ता। और इतने बड़े युद्ध के वे कारण बन जाते हैं।

नेमिनाथ जैसे व्यक्ति इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। इसलिए बहुत मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में पहले तीर्थंकर का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है। फिर पार्श्वनाथ का थोड़ा-सा उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है, तेईसवें तीर्थंकर का। और बाईसवें तीर्थंकर का अनुमान किया जाता है कि घोर अंगिरस के नाम से जिस व्यक्ति का उल्लेख है, वह नेमिनाथ है। महावीर तक का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में नहीं है। इतने प्रभावी व्यक्ति, लेकिन इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। 

असल में “रिनंसिएशन’ का मतलब ही यह है, त्याग का मतलब ही यह है कि हम इतिहास से विदा होते हैं। हम उस घटनाक्रम से विदा होते हैं जहां चीजें घटती हैं, बनती हैं, बिगड़ती हैं। हम उस तरफ जाते हैं जहां न कुछ बनता है, न कुछ बिगड़ता है, जहां सब शून्य है।

कृष्ण से सीखने को हो सकता है नेमिनाथ के लिए, लेकिन नेमिनाथ सीखेंगे नहीं। कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। और नेमिनाथ के पास एक धरोहर है। उनके पीछे इक्कीस तीर्थंकरों की एक बड़ी धरोहर है, एक बड़े अनुभव का सार उनके पास है। और उस यात्रा-पथ पर जहां वे चल रहे हैं, उस यात्रा-पथ पर उनके पास पर्याप्त पाथेय है। उनको कुछ सीखने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नमस्कार वगैरह होता है, कुछ लेन-देन नहीं होता, कुछ आदान-प्रदान नहीं होता। 

ऐसे कृष्ण कभी नेमिनाथ बोलते हैं तो वहां भी सुनने चले जाते हैं। इससे कृष्ण की गरिमा ही प्रगट होती है। इससे महिमा ही प्रगट होती है, सीखने की सहजता ही प्रगट होती है। नहीं, कृष्ण ही वह कर सकते हैं। क्योंकि जिसे जीवन के सब पहलुओं में रस हो, वह कहीं भी सीखने जा सकता है। वह किसी को भी गुरु बना सकता है। वह किसी से भी सीख ले सकता है। लेकिन, नेमिनाथ से कुछ कृष्ण को अंतस्तल पर उपलब्ध होता हो, ऐसी कोई जरूरत ही नहीं है। ऐसा कोई कारण ही नहीं है।

 कृष्ण स्मृति

ओशो 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts