“भगवान श्री, जैन-इतिहास के आधार पर जैनों के बाईसवें तीर्थंकर
नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। घोर तपश्चर्या के बाद वे ही हिंदुओं के घोर
अंगिरस ऋषि के नाम से प्रचलित हुए। और अध्यात्म ज्ञान की परंपरा में
गुहय-ज्ञान के क्षेत्र में वे श्रीकृष्ण के “लिंक’ रहे। आपकी इस संबंध में
क्या दृष्टि है? क्या ऐसा संबंध होता है? क्योंकि आपने ही कहा कि कृष्ण का
होना आंतरिक कारणों पर अवलंबित था। वे आंतरिक कारण क्या थे–गुहयज्ञान के
संदर्भ में?’
नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं। और यह उन दिनों की कथा है, जब
हिंदू और जैन दो धारायें नहीं बने थे। हिंदू और जैन महावीर के बाद स्पष्ट
रूप से टूटे और अलग धारायें बने। नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं और जैनों
के बाईसवें तीर्थंकर हैं। लेकिन नेमिनाथ और कृष्ण के बीच किसी तरह का कोई
“इज़ोटेरिक’ संबंध नहीं है। किसी तरह का कोई गुहय-ज्ञान का संबंध नहीं है।
उसका कारण है। क्योंकि नेमिनाथ एक बहुत ही विभिन्न प्रकार की “वन
डायमेंशनल’ परंपरा के हकदार हैं। नेमिनाथ, जैनों की जो चौबीस तीर्थंकरों की
परंपरा है जिसने संभवतः त्याग की “डायमेंशन’ में इस “पृथ्वी पर सर्वाधिक
प्रयोग किया है। इस पृथ्वी पर इतनी लंबी परंपरा और इतने अदभुत व्यक्तियों
की इतनी बड़ी कड़ी कहीं भी नहीं हुई है।
जैनों के पहले तीर्थंकर ऋग्वेद के समकालीन, या थोड़े-से पूर्वकालीन हैं।
क्योंकि ऋग्वेद में पहले तीर्थंकर के प्रति इतने सम्मानवादी शब्द हैं, जो
कि समकालीन लोग समकालीन के प्रति इतनी शिष्टता कभी नहीं दिखलाते। वे शब्द
इतने आदरपूर्ण हैं कि ऐसा लगता है कि यह आदमी आदृत तब तक हो चुका होगा।
थोड़ा-सा वक्त बीत गया होगा। क्योंकि समकालीन आदमी के प्रति इतने सम्मानजनक
शब्द–अभी तक मनुष्य इतना सभ्य नहीं हो पाया है! पर इतना तो पक्का है कि वह
समकालीन हैं, क्योंकि उनका नाम उपलब्ध है, और आदर से उपलब्ध है। वेद से
लेकर महावीर तक हजारों साल का फासला है।
इतिहास निर्णय नहीं कर पाता कि वे
हजार साल कितने हैं। पश्चिम के नाप-जोख के जो ढंग हैं उस नाप-जोख के ढंग से
पहले तो वे हजार-डेढ़ हजार साल से ज्यादा फासला नहीं जोड़ पाते थे, क्योंकि
“क्रिश्चियनिटी’ एक बहुत गहरे पक्षपात से भरी है कि पृथ्वी को बने ही…जीसस
के चार हजार साल पहले सृष्टि ही बनी। तो अब वह कोई छः ही हजार साल ही जगत
की सृष्टि के हुए, तो इसमें हिंदुओं की और जैनों की काल-गणना का तो उपाय ही
नहीं है। क्योंकि जब सृष्टि ही केवल छः हजार साल पहले बनी हो, तो वह लाखों
साल के लंबे हिसाब का कहां हिसाब होगा।
तो इसलिए जिन लोगों ने पहली दफा पश्चिम की काल-गणना के हिसाब से यहां
सोचना शुरू किया, उन्होंने हजार-डेढ़ हजार साल के फैलाव में सारी बातों को
बिठाने की कोशिश की, लेकिन वह सच नहीं है। और अब तो “क्रिश्चियनिटी’ को
अपनी काल-गणना का ढंग छोड़ देना पड़ा है। लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं,
अंधविश्वास भी बड़े मुश्किल से छूटते हैं। अब तो जमीन में ऐसी हड्डियां मिल
गईं, जो लाखों साल पुरानी हैं। लेकिन एक मजे की बात आपसे
कहूं–अंधविश्वासियों को कोई प्रमाण डिगा नहीं सकता। एक ईसाई “थियोलॉजियन’
ने, जब ये हजारों-लाखों साल पुरानी, तीनत्तीन, चार-चार, पांच-पांच लाख साल
पुरानी हड्डियों का आविष्कार हुआ और जमीन से मिलीं, तो क्या कहा? उसने कहा,
कि भगवान के लिए सब कुछ संभव है। जब उसने पृथ्वी बनाई, तो उसमें ऐसी
हड्डियां भी उसने डाल दीं जो पांच लाख साल पुरानी मालूम पड़ सकती हैं। आदमी
का मन!
लेकिन अब विज्ञान की काल-गणना लंबी हुई है। तिलक ने तो तय किया वेद को
कम-से-कम नब्बे हजार-वर्ष–कम-से-कम। नब्बे न भी हों, तो भी लंबा काल है।
हजारों साल तक वेद सिर्फ स्मरण रखे गए हैं। फिर हजारों साल से लिखे हुए
हैं। और जितना काल उनका लिखे हुए बीता है, उससे भी बहुत बड़ा काल उनका
अनलिखा बीता है।
उसमें ऋग्वेद में जैनों का पहला तीर्थंकर मौजूद है। और
चौबीसवां तीर्थंकर तो बहुत ही ऐतिहासिक प्रमाणों से पच्चीस सौ साल पुराना
है। यह जो चौबीस तीर्थंकरों की लंबी परंपरा है, यह पृथ्वी पर त्याग के
“डायमेंशन’ में सबसे बड़ी परंपरा है। इसका कोई मुकाबला पृथ्वी पर कहीं भी
नहीं है। और भविष्य में भी कहीं हो सकेगा, बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब वह
“डायमेंशन’ ही धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई। इसलिए यह बात बहुत सार्थक
मालूम पड़ती है कि चौबीसवें तीर्थंकर के बाद पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं होगा।
क्योंकि त्याग का “डायमेंशन’ जो है, वह सूख गया। अब उस त्याग के “डायमेंशन’
की कोई सार्थकता नहीं रही भविष्य के लिए। लेकिन अतीत में वह बड़ा सार्थक
“डायमेंशन’ था। नेमिनाथ उसमें बाईसवीं कड़ी हैं। कृष्ण के वे चचेरे भाई हैं।
कभी-कभी कृष्ण का उनसे मिलना भी होता है। गांव से नेमिनाथ निकलते हैं, तो
कृष्ण उनको सम्मान देने जाते हैं। यह भी बड़े मजे की बात है। नेमिनाथ गांव
से निकलते हैं तो कृष्ण सम्मान देने जाते हैं। नेमिनाथ कभी कृष्ण को सम्मान
देने नहीं गए।
कृष्ण स्मृति
ओशो
No comments:
Post a Comment