अमेरिका में नई खोजें कह रही हैं कि टेलीविजन कैंसर का मूल आधार बनता जा
रहा है। क्योंकि टेलीविजन आंख को बुरी तरह थकाने वाला है, जैसी और कोई चीज
नहीं थका सकती। अमेरिका में डर पैदा हो रहा है, टेलीविजन का जैसा विस्तार
हुआ है, वह पूरे जीवन को रुग्ण किए दे रहा है। और टेलीविजन इतना विक्षिप्त
कर देता है छोटे छोटे बच्चों को भी कि वे दिनभर देख रहे हैं। जब भी उनको
मौका है, तब वे टेलीविजन पर अटके हुए हैं! न उन्हें खेलने में रस है, न
कहीं बाहर जाने में। सब कुछ टेलीविजन हो गया है।
आंख की इतनी ऊर्जा का व्यय कैंसर पैदा कर सकता है।, थक जाए तो कैंसर है।
वह बीमारी कम है, इसलिए उसका इलाज नहीं खोजा जा रहा है, इलाज खोजना
मुश्किल मालूम पड़ रहा है। क्योंकि वह बीमारी होती, तो हम कुछ दवा खोज लेते।
वह बीमारी कम है, वह पूरे यंत्र की गहरी थकान है। जैसे पूरा यंत्र मरना
चाहता है, इतना थक गया है। पूरे यंत्र का रोआ रोआ, कण कण मरने के लिए आतुर
है, आत्मघाती हो गया है, तो फिर उसे जगाना बहुत मुश्किल है। उसको वापस जीवन
में लौटा लेना बहुत मुश्किल है।
आपकी आंख जितना थकाती है, उतनी कोई चीज नहीं थकाती। अंधे आदमी की आंख की
ऊर्जा बह नहीं रही, वह कान की तरफ बहने लगती है। हैलन केलर है, वह अंधी भी
है, बहरी भी है, तो सारी की सारी ऊर्जा उसके हाथों से बहने
लगी। उसके हाथ इतने संवेदनशील हैं, कि पृथ्वी पर किसी के हाथ नहीं। क्योंकि
वह सारा काम हाथ से ही लेती है। किताब भी हाथ से ही पढ़ती है। लोगों से
मिलती भी है तो उनके चेहरे को हाथ से ही छूती है। और जिस आदमी का चेहरा एक
बार हाथ से छू लेती है, उसके हाथ की स्मृति में प्रविष्ट हो जाता है वह
चेहरा। दस साल बाद भी चेहरे को छूकर पहचान लेगी कि वह कौन है। सारी ऊर्जा
हाथ में चली गई, स्पर्श ही सब कुछ हो गया।
वैज्ञानिक इसको स्वीकार करते हैं कि ऊर्जाएं ट्रासफर हो सकती हैं। एक
जगह से दूसरी जगह उपयोग में आ सकती हैं। एक इंद्रिय दूसरे में लीन हो सकती
है। लेकिन योग की बहुत पुरानी धारणा है कि भीतर एक छठवीं इंद्रिय है जिसमें
पांचों इंद्रियां लीन हो सकती हैं। और जिस दिन उस छठवीं इंद्रिय का जागरण
होता है और सभी इंद्रियां उसमें लीन हो जाती हैं, उस दिन भीतर के अनुभव
शुरू होते हैं।
भीतर ऐसी सुगंध है, जैसी बाहर उपलब्ध करने का कोई उपाय नहीं। और भीतर
ऐसा नाद है कि उस नाद को बाहर का श्रेष्ठतम संगीत भी केवल इशारा ही करता
है। और भीतर ऐसा प्रकाश है कि कबीर ने कहा है कि हजार हजार सूरज जैसे एक
साथ उदय हो जाएं।
अरविंद कहते थे कि जब मैं जागा हुआ नहीं था, तो जिसे मैंने जीवन समझा
था, अब वह मृत्यु जैसा मालूम होता है। क्योंकि अब मैं भीतर के जीवन से
परिचित हुआ हूं तो तौल सकता हूं। जिसे मैंने सुख समझा था, वह आज परम दुख
मालूम पडता है। क्योंकि भीतर के आनंद का उदय हुआ है, अब मैं तुलना कर सकता
हूं कि सुख क्या था। वह परम दुख मालूम होता है।
जिस दिन सारी इंद्रिया उसी मूल इंद्रिय में खो जाती हैं जो अंतःकरण है,
उस दिन भीतर के अनुभव शुरू होते हैं। भीतर जैसा सौंदर्य है, जैसी सुगंध है,
जैसा रस है, बाहर तो केवल उसकी झलक है। जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह सब
फीका हो जाता है। त्यागियों ने संसार छोड़ा नहीं; उन्होंने भीतर के, उस परम
भोग को अनुभव किया है, जिसके कारण बाहर का सब व्यर्थ हो गया।
इसलिए मैं निरंतर दोहराता हूं कि सिर्फ अज्ञानी छोड़ते हैं, ज्ञानी छोड़ते
ही नहीं। ज्ञानी तो और श्रेष्ठतर को पा लेते हैं। उसके पाते ही बाहर का
व्यर्थ हो जाता है। आप कंकड़ पत्थर से खेल रहे थे, फिर किसी ने कोहिनूर आपके
हाथ में दे दिया। कोहिनूर हाथ में पड़ते ही पत्थर कंकड़ छूट जाते हैं। फिर
कोई समझाने की जरूरत नहीं कि छोड़ो, ये कंकड़ पत्थर हैं; इनका त्याग करो। इसे
समझाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। कंकड़—पत्थर तभी तक हीरे मालूम होते
हैं, जब तक हीरे को न जाना हो। हीरे को जानते ही वे कंकड़ पत्थर हो जाते
हैं, क्योंकि तुलना का उदय होता है।
अंतःकरण की जो प्रतीतियां हैं, वे जगत के सारे सुखों को एकदम फीका और क्षीण कर जाती हैं, बासा कर जाती हैं। बाहर भी संभोग है। बाहर का संभोग क्षणभर का सुख है। लेकिन जब अंतःकरण को
वीर्य की पूरी ऊर्जा मिल जाती है, तो भीतर जो संभोग का रस है…। भीतर के
पुरुष और स्त्री का जो मिलन है, हमने उसी के प्रतीक अर्धनारीश्वर की
प्रतिमा बनाई है, शंकर की प्रतिमा बनाई है, जो आधी पुरुष है और आधी स्त्री
है। सिर्फ भारत ने वैसी प्रतिमा बनाई, पृथ्वी पर कहीं भी कोई वैसी प्रतिमा
नहीं है। वह एक भीतर के अनुभव का अंकीकरण है बाहर।
भीतर जब स्त्री और पुरुष की दोनों ऊर्जाएं संयुक्त हो जाती हैं. क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति में दोनों ऊर्जाएं हैं। कोई भी आदमी न तो पुरुष है अकेला
और न ही कोई स्त्री पूरी स्त्री है। हर पुरुष आधा पुरुष आधा स्त्री, और हर
स्त्री आधी स्त्री आधा पुरुष है। इस संबंध में इस सदी के एक बहुत बड़े
मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुग की खोजें बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
कठोपनिषद
ओशो
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