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Tuesday, October 6, 2015

दूसरे के शरीर में प्रवेश, प्रेतात्मा और देवता भाग १


  दूसरे के शरीर में प्रवेश, प्रेतात्मा और देवता भाग १ 


आदमी के मर जाने के बाद जरूरी नहीं है कि उस आत्‍मा को जल्‍दी ही जन्‍म लेने का अवसर मिल जाए। साधारण आत्माएं, जो न बहुत श्रेष्‍ठ होती है, और न निकृष्‍ठ होती है। तेरह दिन के भीतर नए शरीर की खोज कर लेती है। लेकिन बहुत निकृष्‍ट आत्‍माओं को रूकना पड़ता है। क्‍योंकि उतना निकृष्‍ट अवसर मिलना मुश्‍किल है। उन निकृष्‍ट आत्‍माओं को ही हम प्रेत कहते है। बहुत श्रेष्‍ठ आत्‍माएं भी रूक जाती है। क्‍योंकि उन्‍हें श्रेष्‍ठ अवसर उपलब्‍ध नहीं मिलता। उन श्रेष्‍ठ आत्‍माओं को हम देवता कहते है।

पहली पुरानी दुनिया में भूत-प्रेतों की संख्‍या बहुत ज्‍यादा थी और देवताओं की संख्‍या बहुत कम। आज की दुनियां में भूत-प्रेतों की संख्‍या बहुत कम हो गई है और देवताओं की संख्‍या बहुत। क्‍योंकि देवता पुरूषों को पैदा होने का अवसर बहुत कम हो रहा है। भूत-प्रेतों को पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से उपलब्‍ध हुआ है। तो जो भूत प्रेत रुके रह जाते है। मनुष्‍य के भी तर प्रवेश करने से, वे सारे के सारे मनुष्‍य जाति में प्रविष्‍ट हो गए है। 


इसीलिए आज भूत-प्रेत का दर्शन मुश्‍किल हो गया है। क्‍योंकि उसके दर्शन की कोई जरूरत नहीं है, आप अपने चारों और आदमी को देख लें, और उसका दर्शन हो जाता है। और देवता पर हमारा विश्‍वास कम हो गया है। क्‍योंकि देव पुरूष ही जब दिखाई न पड़ते हो तो देवता पर विश्‍वास करना बहुत कठिन है।
एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्‍तविकता थी, उतनी ही एक्चुअॅलिटी थी जितना कि हमारे जीवन के और दूसरे सत्‍य है। अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि देवताओं के संबंध में जो बात कर रहे है, वह किसी कल्‍पना के देवता के संबंध में बात कर रहे है। नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर रहे है जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है, वे ऐसे देवता की बात कर रहे है। जो उनके साथ गीत गा रहे है जो उनके साथ पृथ्‍वी पर उनके साथ चल रहा हो। उनके अत्‍यंत निकट है। 

हमारा देव लोक से सारा संबंध विनिष्‍ट हो गया है। क्‍योंकि हमारे बीच ऐसे पुरूष नहीं जो सेतु बन सकें, जो ब्रिज बन सकें, जो देवताओं और मनुष्‍यों के बीच में खड़े हो सकें, जो एक दूसरे के बीच ब्रिज बना सके बता सके की देखो देवता कैसे होते है। और इसका सारा जिम्‍मा मनुष्‍य जाति के दांपत्‍य की जो व्‍यवस्‍था है, उस पर निर्भर करता है। मनुष्‍य जाति की दांपत्‍य की सारी की सारी व्‍यवस्‍था कुरूप, अग्ली और परवर्टेड है।

पहली तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिए है। और विवाह हम बिना प्रेम के करते है। जो विवाह बिना प्रेम के होगा, उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्‍यात्‍मिक संबंध उत्‍पन्‍न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनो के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं होता, जो एक श्रेष्‍ठ आत्‍मा के जन्‍म के लिए जरूरी है।

 उनका प्रेम केवल साथ रहने की वजह से पैदा हो गया सहचर्या होता है। उनके प्रेम में वह आत्‍मा का आंदोलन नहीं होता, जो दो प्राणों को एक कर देता है।शायद आपको पता न होगा, स्‍त्रियां पुरूषों से ज्‍यादा सुंदर क्‍यों दिखाई पड़ती है। शायद आपको ख्‍याल न होगा, स्‍त्री के व्‍यक्‍तित्‍व में एक राउंड नेस, एक सुडौलता क्‍यों दिखाई पड़ती है? शायद आपको ख्‍याल में न होगा। कि स्‍त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत, एक नृत्‍य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्‍य क्‍यों दिखाई पड़ता है। जो पुरूष में दिखाई नहीं पड़ता।


 एक छोटा सा कारण है, बहुत बड़ा कारण नहीं है। एक छोटा सा, इतना छोटा कि आप कल्‍पना भी नहीं कर सकते। उतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है।

मां के पेट में जो बच्‍चा निर्मित होता है, पहला अणु, उस पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरूष के होते है, चौबीस जीवाणु स्‍त्री के होते है। अगर चौबीस-चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते है तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्‍त्री का शरीर बनता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्‍त्री का शरीर बनता है। उनके दोनों बाजू चौबीस-चौबीस के होते है एक बैलेंस्‍ड, एक संतुलित। पुरूष का जो जीवाणु होता है। वह सैंतालीस जीवाणुओं का होता है। एक तरु चौबीस होते है, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूट या वहीं से व्‍यक्‍तित्‍व का; संतुलन टूट गया। हार्मनी टूट गई। 

स्‍त्री के दोनों पलड़े व्‍यक्‍तित्‍व के बराबर संतुलन के है। उससे सारे स्‍त्री का सौंदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है। और पुरूष के व्‍यक्‍तित्‍व में जरा सी कमी है। उसका एक तराजू चौबीस जीवाणुओं से बना है और दूसरा तेईस कोष्ठ धारी जीवाणुओं से। अगर मां के चौबीस कोष्ठ धारी जीवाणु से मिलता है तो पुरूष का जन्‍म होता है। इस लिए पुरूष में एक बेचैनी है। उसका सारा जीवन उस असन्तुलन से डोलता रहता है। उसके जीवन में एक बेचैनी है। मैं यह कर लूं, वह कर लूं, एक चिंता गई नहीं की दूसरी तैयार, पूरा जीवन उस असंतुलन के कारण बन गया है। एक छोटी से घटना से शुरू होती है पुरूष की इस बेचैनी की शुरू आत। जो बाद में हजारों तूफ़ानों में बदल जाती है, चंगेज खा, हिटलर, मुसोलनी, नादिरशाही के अनेक रूपों में। उसके एक पलड़े में एक अणु कम है। उसका बैलेंस व्‍यक्‍तित्‍व कम है। स्‍त्री का पूरा है। स्‍त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है।


इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे स्त्री सुंदर तो हो सकी। लेकिन स्‍त्री विकासमान नहीं हो सकी। क्‍योंकि जिस व्‍यक्‍तित्‍व में समता है, वह विकास नहीं करता। वह ठहर जाता है। पुरूष का व्‍यक्‍तित्‍व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है। चाँद पर जाएंगा, तारों पर जाएगा। खोज-बीन करेगा। सोचगा-विचारेगा। ग्रंथ लिखेगा। धर्म-निर्माण करेगा। न वह एवरेस्‍ट पर जाएगी, न चाँद तारों पर जाएगी। न वह धर्मों की खोज करेगी। न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक संतुलन है, वह संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता नहीं भरता

पुरूष ने सारी सभ्‍यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण से कि उसमे एक अणु कम है। और स्‍त्री ने सारी सभ्‍यता विकसित नहीं की, उसमे एक अणु पूरा है। इतनी छोटी सी घटना इतने व्‍यक्‍तित्‍व का भेद ला सकती है। मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि यह तो बायोलॉजिकली है, यह तो जीव-शास्‍त्र कहेगा कि इतना सा फर्क इतने भिन्‍न व्‍यक्‍तित्‍व को जन्‍म दे सकता है। और गहरे फर्क है, और इनर डिफरेंस है।

क्रमश: 

 

मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो

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