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Friday, October 9, 2015

परिचित दुख और अपरिचित सुख

मेरे एक मित्र हैं, दांत के डाक्टर हैं। उनके घर में मेहमान था। बैठा था उनके बैठक खाने में एक दिन सुबह तो एक छोटासा बच्चा डरा डरा भीतर प्रविष्ट हुआ। चारों तरफ उसने चौंककर देखा। उसने मुझसे पूछा कि ‘क्या मैं पूछ सकता हूं (बड़े फुसफुसाकर) कि डाक्टर साहिब भीतर हैं या नहीं?’ मैंने कहा कि वे अभी बाहर गये हैं। प्रसन्न हो गया यह बच्चा। वह कहने लगा, ‘मेरी मां ने भेजा था, दांत दिखाने को। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि वे फिर कब बाहर जाएंगे?’

बस, ऐसी तुम्हारी हालत है। अगर मंदिर तुम्हें मिल जाए तो तुम बचोगे। दांत का दर्द तुम सह सकते हो; लेकिन दांत का डाक्टर तुम्हें जो दर्द देगा, वह तुम सहने को तैयार नहीं। हम छोटे बच्चों की भांति हैं। तुम संसार की पीड़ा सह सकते हो; लेकिन, धर्म की पीड़ा सहने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। निश्‍चित ही धर्म भी पीड़ा देगा। धर्म पीड़ा नहीं देता; तुम्हारे संसार के दांत इतने सड़ गये हैं कि तुम्हें पीड़ा होगी। धर्म पीड़ा नहीं देता; धर्म तो परम आनंद है। लेकिन, तुम दुख में ही जीये हो और तुमने दुख ही अर्जित किया है। तुम्हारे सब दांत पीड़ा से भर गये हैं; इनको खींचने में कष्ट होगा। तुम इतने डरते हो इनको खींचे जाने से कि तुम राजी हो उनकी पीड़ा और जहर को झेलने को। इससे तुम विषाक्त हुए जा रहे हो; तुम्हारा सारा जीवन गलत हुआ जा रहा है। लेकिन तुम इस दुख से परिचित हो।

आदमी परिचित दुख को झेलने को राजी होता है; अपरिचित सुख से भी भय लगता है! यह दांत भी तुम्हारा है। यह दर्द भी तुम्हारा है। इससे तुम जन्मों जन्मों से परिचित हो। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि अगर ये दांत निकल जाएं यह पीड़ा खो जाए तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद का द्वार खुलेगा।

तुम मंदिर भी जाते हो तो तुम पूछते हो पुजारी से कि परमात्मा फिर कब बाहर होंगे, कब मैं आऊं? तुम जाते भी हो, तुम जाना भी नहीं चाहते हो। तुम कैसी चाल अपने साथ खेलते हो, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल
निरंतर मैं देखकर तुम्हारी समस्थाओं को देखकर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी एक मात्र समस्या है कि तुम ठीक से नहीं समझ पा रहे हो कि तुम क्या करना चाहते हो। ध्यान करना चाहते हो, यह भी पका नहीं है। फिर ध्यान नहीं होता तो तुम परेशान होते हो। लेकिन जो करने का तुम्हारा पका ही नहीं है, वह पूरे पूरे भाव से करोगे नहीं, आधे आधे भाव से करोगे। और, आधे आधे भाव से जीवन में कुछ भी नहीं होता। व्यर्थ तो बिना भाव के भी चलता है। उसमें तुम्हें कुछ भी लगाने की जरूरत नहीं; उसकी अपनी ही गति है। लेकिन, सार्थक में जीवन को डालना पड़ता है, दांव पर लगाना होता है।

यह सूत्र कहता है: मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती है, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता। मोह का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी।

वहां भी अगर बुद्ध खडे हों तो न पहचान सकोगे। तुम सत्य साई बाबा को पहचानोगे। अगर बुद्ध और ‘सत्य साईं बाबा’ दोनों खड़े हों तो तुम सत्य साईं बाबा के पास जाओगे, बुद्ध के पास नहीं। क्योंकि बुद्ध ऐसी मूढ़ता नहीं करेंगे कि तुम्हें ताबीज दें, हाथ से राख गिराए बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं। लेकिन तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो; क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है।

जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है; बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी मिलेगा। क्या फर्क पड़ता है गुरु को ताबीज निकाला, कोहिनूर भी निकल सकता है। कोहिनूर की तुम्हारी आकांक्षा है। कोहिनूर के लिए छोटे छोटे लोग ही नहीं, बड़े से बड़े लोग भी चोर होने को तैयार हैं। जिस आदमी के हाथ से राख गिर सकती है सुनने से, वह चाहे तो तुम्हें अमरत्व प्रदान कर सकता है; बस केवल गुरुसेवा की जरूरत है!

नहीं, बुद्ध से तुम वंचित रह जाओगे; क्योंकि, वहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। जहां सारी वासना समाप्त हो गयी, वहां तुम्हारी किसी वासना को तृप्त करने का भी कोई सवाल नहीं है। बुद्ध के पास जो महानतम चमत्कार, आखिरी चमत्कार घटित होता है, वह निर्वासना का प्रकाश है वहां; लेकिन तुम्हारी वासना से भरी आंखें वह न देख पाएंगी। बुद्ध को तुम तभी देख पाओगे, तभी समझ पाओगे, उनके चरणों में तुम तभी झुक पाओगे, जब सच में ही संसार की व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ गयी हो, मोह का आवरण टूट गया हो।

शिवसूत्र

ओशो 

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