दो तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए।
एक: होश कोई अलग प्रक्रिया नहीं है। आप भोजन कर रहे हैं, तो होश कोई अलग
प्रक्रिया नहीं है कि भोजन करने में बाधा डाले। जैसे मैं आपसे कहूं कि
भोजन करें और दौड़ें। तो दोनों में से एक ही हो सकेगा, दौड़ना या भोजन करना।
आपसे मैं कहूं कि दफतर जायें, तब सोयें, तो दोनों में से एक ही हो सकेगा,
सोयें या दफतर जायें।
होश कोई प्रतियोगी प्रक्रिया नहीं है। भोजन कर सकते हैं, होश को रखते
हुए या बेहोशी में। होश भोजन के करने में बाधा नहीं बनेगा। होश का अर्थ
इतना ही है कि भोजन करते समय मन कहीं और न जाये, भोजन करने में ही हो। मन
कहीं और चला जाये तो भोजन बेहोशी में हो जायेगा। आप भोजन कर रहे हैं, और मन
दफतर में चला गया। शरीर भोजन की टेबल पर, मन दफतर में, तो न तो दफतर में
हैं आप, क्योंकि वहां आप हैं नहीं, और न भोजन की टेबल पर हैं आप, क्योंकि
मन वहां नहीं रहा। तो वह जो भोजन कर रहे हैं, वह बेहोश है, आपके बिना हो
रहा है।
इस बेहोशी को तोड़ने की प्रक्रिया है होश, भोजन करते वक्त मन भोजन में ही
हो, कहीं और न जाये। सारा जगत जैसे मिट गया, सिर्फ यह छोटा-सा काम भोजन
करने का रह गया। पूरी चेतना इसके सामने है। एक कौर भी आप बनाते हैं, उठाते
हैं, मुंह में ले जाते हैं, चबाते हैं, तो यह सारा होशपूर्वक हो रहा है।
आपका सारा ध्यान भोजन करने में ही है, इस फर्क को आप ठीक से समझ लें।
अगर मैं आपसे कहूं कि भोजन करते वक्त राम-राम जपें, तो दो क्रियाएं हो
जायेंगी। राम-राम जपेंगे तो भोजन से ध्यान हटेगा। भोजन पर ध्यान लायेंगे तो
राम-राम का ध्यान टूटेगा। मैं आपको कहीं और ध्यान ले जाने को नहीं कह रहा
हूं, जो आप कर रहे हैं उसको ही ध्यान बना लें। इससे आपके किसी काम में बाधा
नहीं पड़ेगी, बल्कि सहयोग बनेगा। क्योंकि जितने ध्यानपूर्वक काम किया जाये,
उतना कुशल हो जाता है।
काम की कुशलता ध्यान पर निर्भर है। अगर आप अपने दफतर में ध्यानपूर्वक कर
रहे हैं, जो भी कर रहे हैं तो आपकी कुशलता बढ़ेगी, क्षमता बढ़ेगी, काम की
मात्रा बढ़ेगी और आप थकेंगे नहीं। और आपकी शक्ति बचेगी। और आप दफतर से भी
ऐसे वापस लौटेंगे जैसे ताजे लौट रहे हैं। क्योंकि जब शरीर कुछ और करता है,
मन कुछ और करता है तो दोनों के बीच तनाव पैदा होता है। वही तनाव थकान है।
आप होते हैं दफतर में, मन होता है सिनेमागृह में। आप होते हैं सिनेमा में,
मन होता है घर पर, तो मन और शरीर के बीच जो फासला है वह तनाव ही आपको थकाता
है और तोड़ता है।
जब आप जहां होते हैं वहीं मन होता है। इसलिए आप देखें, जब आप कोई
खेल-खेल रहे होते हैं तो आप ताजे होकर लौटते हैं। खेल में शक्ति लगती है,
लेकिन खेल के बाद आप ताजे होकर लौटते हैं। बड़ी उल्टी बात मालूम पड़ती है। आप
बेडमिंटन खेल रहे हैं कि आप कबड्डी खेल रहे हैं, या कुछ भी, या बच्चों के
साथ बगीचे में दौड़ रहे हैं। शक्ति व्यय हो रही है, लेकिन इस दौड़ने के बाद
आप ताजे होते हैं। और यही काम अगर आपको करना पड़े तो आप थकते हैं।
काम और खेल में एक ही फर्क है, खेल में पूरा ध्यान वहीं मौजूद होता है,
काम में पूरा मौजूद नहीं होता। इसलिए अगर आप किसी को नौकरी पर रख लें खेलने
के लिए, तो वह खेलने के बाद थककर जायेगा। क्योंकि वह फिर खेल नहीं है, काम
है। और जो होशियार हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं। खेल का मतलब
यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, इतने ध्यान, इतनी तल्लीनता, इतने आनंद से
डूबकर कर रहे हैं कि उस करने के बाहर कोई संसार नहीं बचा है। आप इस करने के
बाहर ज्यादा ताजे, सशक्त लौटेंगे। और कुशलता बढ़ जायेगी।
महावीर वाणी
ओशो
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