समझ काफी है, लेकिन समझ केवल सुन लेने या पढ़ लेने से उपलब्ध
नहीं होती। समझ को भी भूमि देनी पड़ती है। उसके बीज को भी भूमि देनी पड़ती
है। बीज में पूरी संभावना है कि वह वृक्ष हो जाए लेकिन बीज को भी जमीन में न
डालें, तो वह वृक्ष नहीं होगा।
ध्यान समझ के लिए भूमि है। समझ काफी है, उससे जीवन में क्रांति हो जाएगी। लेकिन समझ का बीज ध्यान के बिना टूटेगा ही नहीं।
और अगर समझ आप में पैदा होती हो बिना ध्यान के, तो कृष्णमूर्ति को या
मुझे सुनने का भी क्या प्रयोजन है! और मुझे वर्षों से बहुत लोग सुनते हैं,
कृष्णमूर्ति को चालीस वर्षों से बहुत लोग सुनते हैं। अब भी सुनने जाते हैं।
समझ अभी भी पैदा नहीं हुई।
चालीस वर्ष से जो आदमी कृष्णमूर्ति को सुन रहा है, अब उसको कृष्णमूर्ति
को सुनने जाने की क्या जरूरत है अगर समझ पैदा हो गई हो? अब भी सुनने जाता
है। और कृष्णमूर्ति चालीस साल से एक ही बात कह रहे हैं कि समझ पैदा करो। वह
अभी चालीस वर्ष तक सुनकर भी पैदा नहीं हुई है। वह चार हजार वर्ष सुनकर भी
पैदा नहीं होगी।
न तो सुनने से समझ पैदा हो सकती है, न पढ़ने से समझ पैदा हो सकती है।
ध्यान की भूमि में ही समझ पैदा हो सकती है। हा, सुनने से ध्यान की तरफ जाना
हो सकता है। पढ़ने से ध्यान की तरफ जाना हो सकता है। और अगर समग्र मन से
सुनें, तो सुनना भी ध्यान बन सकता है। और अगर समग्र मन से पढ़ें, तो पढ़ना भी
ध्यान बन सकता है। लेकिन ध्यान जरूरी है।
ध्यान का अर्थ समझ लें। ध्यान का अर्थ है, मन की ऐसी अवस्था जहां कोई तरंग नहीं है। निस्तरंग चैतन्य में ही समझ का जन्म होता है।
यह निस्तरंग चैतन्य कई तरह से पैदा हो सकता है। किसी को प्रार्थना से
पैदा हो सकता है। किसी को पूजा से पैदा हो सकता है। किसी को नृत्य से,
कीर्तन से पैदा हो सकता है। किसी को सुनने से पैदा हो सकता है। किसी को
देखने से पैदा हो सकता है। किसी को मात्र बैठने से पैदा हो सकता है। किसी
को योग की क्रियाओं से पैदा हो सकता है। किसी को तंत्र की क्रियाओं से पैदा
हो सकता है।
निस्तरंग चित्त बहुत तरह से पैदा हो सकता है। और जिस तरह से आपको पैदा
होता है, जरूरी नहीं है कि दूसरे को भी उसी तरह से पैदा हो। तो आपको खोजना
पड़ेगा कि कैसे निस्तरंग चित्त पैदा हो! निस्तरंग चित्त का नाम ही ध्यान है।
तरंगायित चित्त का नाम मन है। वह जो उथल—पुथल से भरा हुआ मन है, उसमें कोई
भी समझ पैदा नहीं हो सकती। क्योंकि वहां इतना भूकंप चल रहा है कि कोई बीज
थिर नहीं हो सकता। अंकुरित होने के लिए अवसर ही नहीं है। इसलिए ध्यान पर
इतना जोर है।
और अगर आप सोचते हों कि कृष्णमूर्ति का ध्यान पर जोर नहीं है, तो आप
समझे ही नहीं। ध्यान शब्द का वे उपयोग नहीं करते हैं, क्योंकि उनको ऐसा
खयाल है कि ध्यान शब्द बहुत विकृत हो गया है। लेकिन कोई शब्द विकृत नहीं
होते। और केवल नए शब्द चुन लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे सुनते समय सिर्फ सुनो!
वह ध्यान हो गया। कोई भी किया करते वक्त अगर सिर्फ क्रिया की जाए और
उसके संबंध में सोचा न जाए, तो ध्यान हो जाएगा। चलते वक्त अगर केवल चला जाए
और कुछ भी मन में न करने दिया जाए तो ध्यान हो जाएगा। भोजन करते वक्त अगर
भोजन किया जाए और मन में उसके संबंध में कोई चिंतन न किया जाए, तो भोजन
करना ध्यान हो जाएगा। अगर आप अपने चौबीस घंटे को ध्यान में बदल लेते हैं,
तो बहुत अच्छा है।
लेकिन लोग बहुत बेईमान हैं। एक घंटा न बैठने के लिए वे कहेंगे, चौबीस
घंटे ध्यान क्यों नहीं किया जा सकता! और चौबीस घंटे वे ध्यान करने वाले
नहीं हैं। और एक घंटा बैठना न पड़े, इसलिए चौबीस घंटे पर टालेंगे।
अगर आप चौबीस घंटे ही ध्यान कर सकते हों, तो कौन आपको कहेगा कि घंटेभर
करिए! आप मजे से चौबीस घंटे करिए। लेकिन चौबीस घंटे आप कर नहीं रहे हैं। और
कर रहे होते, तो यहां मेरे पास पूछने को नहीं आना पड़ता।
क्या जरूरत है मेरे पास आने की? ध्यान नहीं है, इसलिए कहीं जाना पड़ता
है, सुनना पड़ता है, समझना पड़ता है। ध्यान हो तो आपके भीतर ही पौधा खिल
जाएगा। आपके पास दूसरे लोग आने लगेंगे। आपको जाने की जरूरत नहीं होगी। अपनी
समझ आ जाए, तो फिर किसी से क्या समझना है!
लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि अगर कहो कि घंटेभर बैठो, तो वह कहेगा,
घंटेभर बैठने की क्या जरूरत है? चौबीस घंटे ध्यान नहीं किया जा सकता!
मजे से करिए, लेकिन कम से कम घंटे से शुरू तो करिए। एक घंटा भी ध्यान
करना मुश्किल है। चौबीस घंटा तो बहुत मुश्किल है। जब ध्यान करने बैठेंगे,
तब पता चलेगा कि एक क्षण को भी ध्यान हो जाए तो बहुत बड़ी घटना है। क्योंकि
मन चलता ही रहता है। तो उचित है कि एक घंटा निकाल लें चौबीस घंटे में से
अलग ध्यान के लिए ही, और अनुभव करें। जिस दिन एक घंटे में आपको लगे कि सधने
लगी बात, घटने लगी बात, चौबीस घंटे पर फैला दें। फैलाना तो चौबीस घंटे पर
ही है। क्योंकि जब तक जीवन पूरा ध्यानमय न हो जाए तब तक कोई क्रांति न
होगी। लेकिन शुरुआत कहीं से करनी पड़ेगी।
गीता दर्शन
ओशो
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