मैं दमन को भी नहीं कहता हूं मैं भोग को भी नहीं कहता हूं मैं उनके ज्ञान को कहता हूं। भोग और दमन दोनों अज्ञान हैं, दोनों घातक हैं। दमन भोग की ही प्रतिक्रिया है व उसका ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। वह उससे बहुत भिन्न नहीं है। वह उलटा होकर वही है।
किसी साधु के संबंध में कोई मुझे बताता था कि वे धन को देख कर दूसरी ओर मुंह कर लेते हैं। क्या यह धन को देख कर मुंह में पानी भर आने से बहुत भिन्न है? लोभ से भागने से यही होगा लोभ मिटेगा नहीं विपरीत रूप ले लेगा और सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि वह विपरीत रूप में भी उतना का उतना ही बना रहेगा और कहीं ज्यादा सुरक्षित रूप में, क्योंकि अब वह स्वयं को दिखना भी बंद हो जाएगा। वह तो रहेगा ही और अलोभ का भ्रम भी आ जाएगा। यह एक शत्रु को निकाले जाकर दो को आमंत्रण दे आने जैसा है।
मैं चाहता हूं कि हम लोग काम, क्रोध को जानें-उनसे लड़े भी नहीं, उनका अंधानुकरण भी न करें। उनके प्रति होश से भरें,उनका निरीक्षण, उनकी पूरी यांत्रिक प्रक्रिया और रूप से परिचित हों। क्या कभी देखा है कि क्रोध को देखें तो वह विलीन हो जाता है? पर हम या तो भोग में लग जाते हैं, या दमन में लग जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में, दोनों ही विकल्पों में उसे देख नहीं पाते हैं।
वह अनदिखा और अपरिचित ही रह जाता है। यही भूल है। और भोग या दमन दोनों ही इस भूल में सहयोगी हैं।
उन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा विकल्प भी है। वही मैं सुझाना चाहता हूं। वह है वृत्तियों के दर्शन का,उन्हें देखने का। उनके साथ कुछ करने का नहीं, बस केवल उन्हें देखने का। इस भांति जब आख उन पर स्थिर होती है, तो पाया जाता है कि वे विलीन और विसर्जित हो रही हैं। वे आख को नहीं सह पाती हैं। वे केवल मूर्च्छा में ही संभव हैं। सजग चेतता में वे मर जाती हैं और निष्प्राण हो जाती हैं। हमारी मूर्च्छा ही, हमारा उन्हें न देखना ही उनका जीवन है। वे अंधेरे के कीड़े मकोड़ों की तरह हैं। प्रकाश आते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
ओशो
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