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Tuesday, October 6, 2015

दूसरे के शरीर में प्रवेश, प्रेतात्मा और देवता भाग २

पुरूष और स्‍त्री के मिलने से जिस बच्‍चे का जन्‍म होता है। वह उन दोनों व्‍यक्‍तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्‍यात्‍मिकता है। कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयर फुल है, कितने प्रार्थना पूर्ण ह्रदय से एक वे एक दूसरे के पास आये है। इस पर निर्भर करता है। इस प्रेम और समर्पण की भाव दिशा में कितनी ऊंची आत्‍मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी विराट आत्‍मा उनकी और खिंची चली आती है। कितनी महान दिव्‍य चेतना उस घर को  अपना अवसर बनाती है, इस पर निर्भर करता है।
मनुष्‍य जाति क्षीण और दीन और दरिद्र और दुःखी होती चली जा रही हे। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्‍य के दांपत्‍य का विकृत होना है। और जब तक हम मनुष्‍य के दांपत्‍य जीवन को सुकृत नहीं कर लेते, सुसंस्‍कृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्‍प्रिचुएलाइज नहीं कर लेते, जब तब तक हम मनुष्‍य के भविष्‍य को सुधार नहीं सकते। और दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है, जिन लोगों ने गृहस्‍थ जीवन की निंदा की है और संन्‍यासी जीवन का बहुत ज्‍यादा शोरगुल मचाया है। उनका हाथ है। क्‍योंकि एक बार जब गृहस्‍थ जीवन कंडेम्‍ड़ हो गया, निंदित हो गया, तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़ दिया।
नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं, संन्‍यास के रास्‍ते से बहुत थोड़े से लोग ही परमात्‍मा तक पहुंच सकते है। बहुत थोड़े-से लोग, कुछ विशिष्‍ट तरह के लोग, कुछ अत्‍यंत भिन्‍न तरह के लोग संन्‍यास के रास्‍ते से परमात्‍मा तक पहुंचने है। अधिकतम लोग गृहस्‍थ के रास्‍ते से और दांपत्‍य के रास्‍ते से ही परमात्‍मा तक पहुंचते है। और आश्‍चर्य की बात है कि गृहस्‍थ के मार्ग से पहुंच जाना अत्‍यंत सरल है, सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्‍यान नहीं देता। आज तक का सारा धर्म संन्‍यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के लिए विकसित नहीं हो सका। और अगर गृहस्‍थ के लिए धर्म विकसित होता, तो हमने जन्‍म के पहले क्षण से विचार किया होता कि कैसा आत्‍मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्‍मा को पुकारना है, कैसी आत्‍मा को प्रवेश देना है जीवन में।
अगर धर्म की ठीक-ठीक शिक्षा हो सके और एक-एक व्‍यक्‍ति को अगर धर्म की दिशा में ठीक विचार, कल्‍पना और भावना दी जा सके, तो बीस वर्षो में आने वाली मनुष्‍य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है। 
वह आदमी पापी है जो आदमी आने वाली आत्‍मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्‍चे नाजायज है चाहे उसे बच्‍चे विवाह के द्वारा पैदा किए हों जिन बच्‍चों के लिए उसने अत्‍यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्‍मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है। वह आदमी अपराधी है। सारी संततियों के सामने वह अपराधी रहेगा। कौन हमारे भीतर प्रविष्‍ट। हम शिक्षा की फिक्र करते है, हम वस्‍त्रों की फ्रिक करते है, हम बच्‍चें के स्‍वास्‍थ की फिक्र करते है, लेकिन बच्‍चों की आत्‍मा की फिक्र हम बिलकुल ही छोड़ दिए है। इससे कभी भी कोई अच्‍छी मनुष्‍य जाति पैदा नहीं हो सकती है।
इसलिए यह बहुत फ्रिक मत करें कि दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें। इस बात की फ्रिक करे कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए है।



मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो

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