ऐसा हुआ मोहम्मद भाग रहे हैं, उनके पीछे दुश्मन लगे हैं। उनका एक संगी साथी भर उनके साथ है। वे जाकर एक गुफा में बैठ जाते हैं। घोड़ों की आवाज आ
रही है। दुश्मन करीब आता जाता है। साथी बहुत घबड़ाया हुआ है। अंततः उसने कहा
हजरत! आप बड़े शांत दिखायी पड रहे हैं। मुझे बहुत डर लग रहा है। मेरे हाथ
—पैर कैप रहे हैं। घोडों की टापें करीब आती जा रही हैं। दुश्मन करीब आ रहा
है। और ज्यादा देर नहीं है। मौत हमारी करीब है। आप निश्चित बैठे हैं! हम दो
हैं, वे हजार हैं। आप निश्चित क्यों बैठे हैं?
मोहम्मद हंसे। और मोहम्मद ने कहा हम तीन हैं, दो नहीं। उस आदमी ने चारों
तरफ गुफा में देखा कि कोई और भी छिपा है क्या! मोहम्मद ने कहा यहां —वहां
मत देखो। आंख बंद करो, भीतर देखो, हम तीन हैं। और वह जो एक है, वह
सर्वशक्तिमान है। फिकर न करो। निश्चित रहो। उसकी मर्जी होगी, तो मरेंगे। और
उसकी मर्जी से मरने में बड़ा सुख है। उसकी मर्जी होगी, तो बचेंगे। उसकी
मर्जी से जीने में सुख है। अपनी मर्जी से, जीने में भी सुख नहीं है। उसकी
मर्जी से मरने में भी सुख है। इसलिए मैं निश्चित हूं। कि वह जो करेगा, ठीक
ही करेगा। जो होगा, ठीक ही होगा। इसलिए मेरी श्रद्धा नहीं डगमगाती। तूने यह
बात ठीक नहीं कही कि हम दो हैं। तीन हैं। और हम दो एक दिन नहीं थे और एक
दिन फिर नहीं हो जाएंगे। वह जो तीसरा है, हमसे पहले भी था, हमारे साथ भी
है; हमारे बाद भी होगा। वही है। हमारा होना तो सागर में तरंगों की तरह है।
लेकिन उस साथी को भरोसा नहीं आता है। उसने कहा ये दर्शनशास्त्र की बातें
हैं। ये धर्मशास्त्र की बातें हैं। आप ठीक कह रहे होंगे। मगर इधर खतरा जान
को है। पर वही हुआ, जो मोहम्मद ने कहा था। घोड़ों की टापों की आवाज बढ़ती
गयी, बढ़ती गयी, फिर एक क्षण आया—रुकी—और फिर दूर होने लगी। दुश्मन ने यह
रास्ता थोड़ी दूर तक तो पार किया, फिर सोचकर कि नहीं; इस रास्ते पर वे नहीं
गए हैं, दूसरे रास्ते पर दुश्मन मुड़ गए।
मोहम्मद ने कहा : देखते हो! उसकी मर्जी है, तो जीएंगे। अपनी मर्जी से
यहां जीने में सिर्फ जद्दोजहद है। उसकी मर्जी से जीने में बड़ा रस है। और जब
मैं तुमसे कहता हूं उसकी मर्जी, तो मैं यही कह रहा हूं कि तुम्हारे
अंतर्तम की मर्जी। वह कोई दूर नहीं, दूसरा नहीं।
तो यह तो खयाल छोड़ ही दो कि ‘चरण मेरे रुक न जाएं। आज सूने पंथ पर बिलकुल अकेली चल रही मैं।’
बिलकुल अकेला कोई भी नहीं है। मजा तो ऐसा है कि जब तुम बिलकुल अकेले हो
जाओगे, तभी पता चलता है कि अरे! मैं अकेला नहीं हूं! जिस दिन जानोगे. न
पत्नी मेरी, न पति मेरा, न भाई, न मित्र कोई मेरा नहीं उस दिन अचानक तुम
पाओगे कि एक परम संगी साथी है, जो भीतर चुपचाप खड़ा था। तुम भीड़ में खोए
थे, इसलिए चुपचाप खड़ा था। तुम भीड़ से भीतर लौट आए, तो उससे मिलन हो गया।
तुम बाहर संगी साथी खोज रहे थे, इसलिए भीतर के संगी साथी का पता नहीं चल
रहा था।
‘दूर मंजिल, कोन जाने
कब मिले मुझको किनारा।’
यह बात भी गलत है। मंजिल बिलकुल पास है। इतनी पास है, इसीलिए दिखायी
नहीं पड़ती। दूर की चीजें तो लोग देखने में बड़े कुशल हैं। पास की चीजें
देखने में बड़े अकुशल हैं। दूर के चांद तारे तो दिखायी पड़ जाते हैं।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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