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Friday, October 2, 2015

संन्यास की व्यवस्था

भारत की एक व्यवस्था थी कि पच्चीस साल तक के विद्यार्थी को हम जंगल में रखते थे और पचहत्तर साल के बाद जो बूढ़े संन्यासी थे उनको भी जंगल में रखते थे। और जो पचहत्तर साल के बूढ़े संन्यासी थे वे जंगल में गुरु का काम कर देते थे, शिक्षक का। और जो पच्चीस साल के युवा जंगलों में पढ़ने आते थे वे विद्यार्थी का काम कर देते थे। हम पहली पीढ़ी की आखिरी पीढ़ी से मुलाकात करवा देते थे, उन दोनों के बीच डायलाग हो जाता था, उन दोनों के बीच संबंध हो जाता था। सत्तर साल, पचहत्तर साल का बूढ़ा, पांच और दस साल के बच्चों से मुलाकात ले लेता था। सत्तर-पचहत्तर साल में जो उसने जिंदगी से जाना और सीखा उससे उन्हें परिचित करा देता था।

बहुत कुछ चीजें हैं जो युनिवर्सिटीज में नहीं सीखी जातीं, सिर्फ जिंदगी के अनुभव में ही सीखी जाती हैं। जिस दिन से हमें यह खयाल पैदा हो गया कि सारा ज्ञान विश्वविद्यालय से मिल सकता है, उस दिन से दुनिया में ज्ञान तो बहुत मिला, लेकिन विजडम, प्रज्ञा बहुत कम होती चली गई। युनिवर्सिटीज में ज्ञान भले मिल जाये, पर प्रज्ञा, विजडम नहीं मिलती है। विजडम तो जिंदगी की ठोकरों और टक्करों और संघर्षों में ही मिलती है। वह तो जिंदगी से गुजर कर ही मिलती है।

तो हम अपने सबसे ज्यादा बूढ़े व्यक्ति को अपने सबसे ज्यादा छोटे बच्चे से मिला देते थे। ताकि दोनों पीढ़ियां, आती हुई और विदा होती पीढ़ी, डूबता हुआ सूरज उगते हुए सूरज से मुलाकात कर जाये और जो बारह घंटे की यात्रा पर उसने पाया है वह उगते हुए सूरज को दे जाये। वह संबंध टूट गया है। उससे खतरनाक परिणाम हुए हैं। पीढ़ियों के बीच फासला बढ़ गया है। बूढ़े और बच्चों के बीच कोई डायलाग नहीं है, बूढ़े और बच्चों के बीच कोई बातचीत नहीं है। बूढ़े की भाषा न बच्चे समझते हैं, न बच्चे की भाषा बूढ़े समझ पाते हैं। बूढ़े बच्चों पर नाराज हैं, बच्चे बूढ़ों पर हंस रहे हैं। यह उनकी नाराजगी का ढंग है। अगर जीवन में एक तारतम्य न रह जाए और जीवन में पीढ़ियां इस तरह दुश्मन की तरह खड़ी हो जायें तो जिंदगी एक अराजकता बन जाती है। उस जिंदगी से सारा संगीत खो जाता है।

मेरी दृष्टि में है कि एक तो वे संन्यासी जो अपने घरों में अपनी जिम्मेवारियों के बीच में संन्यासी होंगे। लेकिन कल उनमें से बहुत से लोग जिम्मेवारियों से बाहर हो जायेंगे। बहुत से लोग तो आज भी जिम्मेवारियों के बाहर हैं। जिन पर कोई जिम्मेवारी नहीं है, वे घरों में बोझ भी हो जाते हैं। क्योंकि जो सदा से काम से भरे रहे हैं, खाली होना उन्हें बहुत मुश्किल होता है। तब वे बेकाम के काम करने लगते हैं, जिनसे दूसरों के काम में बाधा पड़नी शुरू हो जाती है। उन्हें जिंदगी की भीड़ और बाजार को छोड़कर जरूर आश्रम की दुनिया में चले जाना चाहिए। वहां वे साधना भी करें, ध्यान भी करें, परमात्मा को भी खोजें और गांव के बच्चों को–जो उनके पास कभी महीने दो महीने के लिए आकर बैठते रहें, ज्यादा देर भी बिठाये जा सकते हैं–शिक्षित बनायें। क्योंकि मैं तो मानता ही यही हूं कि ऐसे आश्रम ही युनिवर्सिटीज बन जाने चाहिए। और इन बच्चों को अपना सारा सब कुछ दे जायें, जो उन्होंने जाना है।

ऐसे युवक भी हो सकते हैं जिनके व्यक्तित्व की दिशा ऐसी है कि वे संसार में नहीं जाना चाहते, तो उन्हें भेजना आवश्यक नहीं है। ढेरों लोग हैं जिनके पिछले जन्मों की यात्रा उस जगह उन्हें ले आई है कि उनके लिए विवाह का कोई अर्थ नहीं होगा। उनके लिए अब जगत में बहुत अर्थ नहीं होगा। अगर ऐसे लोग हैं तो उनको जबरदस्ती जगत में डालना वैसा ही पागलपन है जैसे किसी आदमी को, जिसे अभी विवाह करना था, उसे जबरदस्ती दीक्षा दे देना पागलपन है।

नहीं, जिनकी जिंदगी में सहज ही सुगंध है, और जो छोड़कर इस घेरे के बाहर जीना चाहते हैं, वे जरूर आश्रमों में जीयें, पर उनके आश्रम प्रोडक्टिव होने चाहिए। वहां वे खेती भी करें, बगीचे भी लगायें, फैक्टरी भी चलायें, स्कूल भी चलायें, अस्पताल भी चलायें, वे वहां पैदा भी करें, और उस पैदावार पर ही जीयें।

ये तीन दिशाएं हैं। और जो लोग इन तीनों में से कुछ भी नहीं कर सकते, वे भी इतना तो कर सकते हैं कि वर्ष में पंद्रह दिन हॉली-डे पर चले जायें। अंग्रेजी का यह हॉली-डे शब्द बहुत अच्छा है। हॉली-डे का मतलब छुट्टी नहीं होता, हॉली-डे का मतलब होता है, पवित्र दिन। यह जो रविवार है वह अंग्रेजों के लिए, पश्चिम में हॉली-डे है, पवित्र दिन है, क्योंकि उस दिन परमात्मा ने भी काम छोड़ दिया था दुनिया बनाकर। उस दिन उसने आराम किया था। छह दिन उसने दुनिया बनायी, सातवें दिन वह भी संन्यासी हो गया। उसने सातवें दिन आराम किया। जो छह दिन काम कर रहे हैं, सातवें दिन उनको भी आराम चाहिए। जो साल भर काम कर रहे हैं, वे कभी महीने भर के लिए हॉली-डे पर चले जायें, पवित्र दिनों में चले जाएं। छोड़ दें, भूल जायें इस दुनिया को। एक महीने के लिए डूब जायें किसी और यात्रा में, एक महीने संन्यासी की तरह किसी आश्रम में जीकर लौटें। तब आप दूसरे आदमी होकर लौटेंगे, आप कुछ आत्मिक होकर लौटेंगे, आंतरिक होकर लौटेंगे। दुनिया यही होगी लेकिन आपका दृष्टिकोण बदला हुआ होगा।

मेरे लिए संन्यास का ऐसा अर्थ है। और यह व्यक्तिगत निर्णय और चुनाव है। और अगर ऐसा संन्यास पृथ्वी पर फैलाया जा सके तो हम पृथ्वी से संन्यास को मिटने से रोक सकते हैं, अन्यथा बहुत कठिन मामला है कि संन्यास बच सके। साम्यवाद जितने जोर से फैलेगा, संन्यास की हत्या उतनी ही व्यवस्था से होती चली जाएगी।

ज्यो की त्यों रख दिनी चदरिया 

ओशो 

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