गुरजिएफ के पास लोग जाते थे, तो गुरजिएफ कहता, ‘कितने पैसे हैं तुम्हारे
पास? निकालो।’ बस, इतने में ही उपद्रव हो जाता। क्योंकि पैसे पर हमारी
इतनी पकड़ है! तो गुरजिएफ कहता, ‘पहले रुपये निकालकर रख दो।’ हम सोचते हैं,
‘संत और कैसा रुपया?’
गुरजिएफ पहले पैसा मांगता। एक सवाल का जवाब देता तो कहता, सौ रुपये।
बहुत लोग भाग जाते, क्योंकि संतों से हमने मुफ्त पाने की आदत बना ली है।
लेकिन मुफ्त तुम्हें वही मिलेगा, जो मुफ्त के योग्य था। असली पाना हो तो
तुम्हें चुकाना ही पड़ेगा। चाहे धन से, चाहे ध्यान से; चुकाना पड़ेगा। कुछ
तुम्हें छोड़ना पड़ेगा तो ही तुम असली को पा सकोगे।
ऐसा हुआ एक बार कि एक महिला आई और गुरजिएफ ने कहा कि तेरे जितने भी
हीरे-जवाहरात हैं–पहने हुई थी, काफी धनी महिला थी–ये तू सब उतारकर रख दे।
उस महिला ने आने के पहले यह सुना था, गुरजिएफ ऐसा करता है। तो बुद्धि
इंतजाम कर लेती है; उसने जरा आसपास चर्चा की, गुरजिएफ के पुराने शिष्यों से
पूछा।
एक महिला ने उसे कहा कि डरने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि जब मैं गई थी,
तब भी उसने मेरी अंगूठी और गले का हार उतरवा लिया था। लेकिन दूसरे ही दिन
वापिस कर दिये। तू डर मत! मैंने निष्कपट भाव से दे दिया था, कि जब वे
मांगते हैं तो ठीक ही मांगते होंगे। दूसरे दिन बुलाकर उन्होंने मेरी पूरी
पोटली वापस कर दी। और जब मैंने घर आकर पोटली खोली, तो उसमें कुछ चीजें
ज्यादा थीं, जो मैंने दी नहीं थीं।
लोभ पकड़ा इस नयी स्त्री को, कि यह तो बड़ी अच्छी बात है। वह गई, वह
प्रतीक्षा ही करती रही कि कब गुरजिएफ कहें! और गुरजिएफ ने कहा कि अच्छा, अब
तू सब दे दे। उसने जल्दी से निकालकर रूमाल में बांधकर दे दिये। पंद्रह दिन
प्रतीक्षा करती रही होगी, पोटली नहीं लौटी, नहीं लौटी, नहीं लौटी। आखिर वह
उस स्त्री के पास गई। उसने कहा, मैं भी क्या कर सकती हूं?
गुरजिएफ से किसी ने पूछा कि यह आप कभी-कभी लौटा देते हैं, कभी नहीं
लौटाते। तो गुरजिएफ ने कहा, ‘जो देता है, उसको मैं लौटा देता हूं। जो देता
ही नहीं, उसको मैं लौटाऊं कैसे? मैं लौटा तभी सकता हूं, जब कोई दे। इस
स्त्री ने दिया ही नहीं था। इसकी नजर लौटाने पर लगी थी, अब यह कभी लौटने
वाला नहीं।
कभी-कभी तुम पहुंच भी जाओ गुरिजएफ जैसे लोगों के पास, तो तुम चूक जाओगे।
कोई छोटी-सी बात तुम्हें चुका देगी। क्योंकि बुद्धि क्षुद्र को देखती है।
उसका जाल बड़ा छोटा है। छोटी-छोटी मछलियां पकड़ती है। जितनी क्षुद्र मछली हो,
उतनी जल्दी पकड़ती है। विराट उससे चूक जाता है। हृदय का जाल बहुत बड़ा है,
उसमें सिर्फ विराट ही पकड़ में आता है।
बिन बाती बिन तेल
ओशो
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