इसकी बहुत संभावना है। इसमें बहुत सच्चाइयां हैं।
असल में ऐसी आत्माएं हैं, शरीर से हट गई हैं लेकिन जिनकी अनुकंपा इस जगत
से नहीं हट गई है। ऐसी आत्माएं हैं, जो अपने अशरीरी जगत से भी इस जगत के
लिए निरंतर संदेश भेजने की कोशिश करती हैं। और कभी अगर उन्हें “मीडियम’
उपलब्ध हो जाए, कोई माध्यम उपलब्ध हो जाए, तो उसका उपयोग करती हैं।
ऐसा कोई बेली के साथ पहली दफा हुआ हो, ऐसा नहीं है। ए.पी.सिनेट ने भी
ठीक वैसे ही माध्यम का काम इसके पहले किया था। उसके पहले लीडबीटर ने भी,
कर्नल अल्काट ने भी, एनीबेसेंट ने भी, ब्लावट्स्की ने भी, इन सबने भी इस
तरह के माध्यम के काम किए थे। इसका एक लंबा इतिहास है। ऐसी आत्माओं से
संबंधित होकर, जो आत्मिक विकास के दौर में हमसे आगे की सीढ़ियों पर हैं,
बहुत कुछ जाना जा सकता है और बहुत कुछ संदेशित किया जा सकता है,
“कम्यूनिकेट’ किया जा सकता है।
ठीक इसी तरह का बहुत बड़ा प्रयोग, जो असफल हुआ, वह ब्रह्मवादियों ने
जे.कृष्णमूर्ति के साथ करना चाहा था। बड़ी व्यवस्था की थी कि कृष्णमूर्ति को
उन आत्माओं के निकट संपर्क में लाया जाए जो संदेश देने को आतुर हैं, लेकिन
जिनके लिए माध्यम नहीं मिलते। और कृष्णमूर्ति की पहली किताबें, “एट द फीट
आफ द मास्टर’, या “लाइव्स आफ अलक्यानी’, उन्हीं दिनों की किताबें हैं।
इसलिए जे.कृष्णमूर्ति उनके लेखक होने से इनकार कर सकते हैं, करते हैं। वे
उन्होंने अपने होश में नहीं लिखी हैं। “एट द फीट आफ द मास्टर’–“गुरुचरणों
में’–बड़ी अदभुत किताब है। लेकिन कृष्णमूर्ति उसके लेखक नहीं हैं। सिर्फ
माध्यम हैं। किसी आत्मा के द्वारा दिए गए संदेश उसमें संगृहीत हैं।
बेली का भी दावा यही है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक इसे इनकार करेंगे।
क्योंकि मनोविज्ञान के पास अभी कोई उपाय नहीं है जहां से वह स्वीकार कर
सके। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी कुछ भी पता नहीं है कि मनुष्य के इस शरीर
के बाद और शरीर भी हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी यह भी बहुत स्पष्ट
पता नहीं हो पा रहा है–मैं मनोविज्ञान कह रहा हूं, “साइकिक साइंसेज’ की बात
नहीं कर रहा हूं, “साइकोलॉजी’ की बात कर रहा हूं। पश्चिम का जिसको हमें
कहना चाहिए ऑफिसियल साइकोलॉजी, आक्सफर्ड, कैंब्रिज और हार्वर्ड में जो पढ़ाई
जाती है विद्यार्थी को, वह जो मनोविज्ञान है–उस मनोविज्ञान को अभी इन सबका
कोई भी पता नहीं है कि मनुष्य अशरीरी स्थिति में भी रह सकता है। और अशरीरी
स्थितियों से भी संदेश दिए जा सकते हैं। और ऐसी बहुत-सी आत्माएं हैं जो
निरंतर संदेश देती रही हैं, इस सदी में ही नहीं।
तो एक कथा है कि इंद्र ने आकर महावीर को कहा कि मैं आपकी रक्षा का कोई उपाय करूं? अब यह इंद्र कोई व्यक्ति नहीं है। यह इंद्र अशरीरी एक आत्मा है, जो इतने निरीह, निपट सरल आदमी पर हुए व्यर्थ के अनाचार से पीड़ित हो गई है। लेकिन महावीर ने कहा, नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है कि महावीर ग्वाले से नहीं बोले और इंद्र से कहा, नहीं। तो निश्चित ही यह “नहीं’ भीतर कहा गया है, बाहर नहीं कहा गया है। नहीं तो ग्वाले से ही बोल देते। इसमें क्या कठिनाई थी? इसलिए यह इंद्र से जो बात है, यह “इनर’ है, यह भीतरी है, यह “साइकिक’ है, “एस्ट्रल’ है। यह महावीर ने ओंठ नहीं खोले हैं अभी भी, उनके ओंठ बंद ही हैं। यह बात किसी और तल पर हुई है, नहीं तो महावीर का मौन टूट गया–वह बारह साल के लिए मौन हैं–यह मौन नहीं टूटा। इस पर महावीर के पीछे चलने वालों को बड़ी कठिनाई आती है कि इसको कैसे हल करें, क्योंकि अगर यह इंद्र कोई आदमी है तो फिर यह महावीर बोल गए और मौन टूट गया। और जब इंद्र ही से तोड़ दिया, तो गरीब ग्वाले ने क्या बिगाड़ा था, उससे ही तोड़ लेते! लेकिन न तो मौन टूटा, क्योंकि ऐसे मार्ग हैं जहां बिना वाणी के वाणी संभव है, जहां बिना शब्द के बोला जा सकता है और जहां बिना कानों के सुना जा सकता है, और ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अशरीरी हैं।
महावीर ने कहा, नहीं; क्योंकि तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर मैं परतंत्र हो जाऊंगा। मुझे असुरक्षित ही रहने दो, लेकिन वह मेरी स्वतंत्रता तो है। अगर तुमसे मैंने रक्षा ली, तो मैं तुमसे बंध जाऊंगा। तो मुझे असुरक्षित रहने दो। असल में महावीर यह कह रहे हैं कि ग्वाला मुझे इतना नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जितना तुमसे सुरक्षा लेकर मुझे पहुंच जाएगा। उसे माने दो, उससे कुछ हर्जा नहीं होगा; बाकी तुमसे रक्षा लेकर तो मैं गया, तब तो तुम मेरी “सिक्योरिटी’ बन गए, तुम मेरी सुरक्षा बन गए।
बुद्ध को जब पहली दफा ज्ञान हुआ, तो देवताओं के आने की कथा है कि देवता आए और बुद्ध से प्रार्थना करने लगे–क्योंकि बुद्ध सतत सात दिन तक बोले ही नहीं ज्ञान के बाद। उन्हें ज्ञान हो गया लेकिन वाणी खो गई। अक्सर ऐसा होगा ही। जब ज्ञान होगा, वाणी खो जाएगी। अज्ञान में बोलना बहुत आसान है। क्योंकि कोई डर ही नहीं है कि क्या बोल रहे हैं। जिसका हमें पता नहीं है, उस संबंध में बोलना बहुत सुविधापूर्ण है। क्योंकि भूल होने का भी कोई डर नहीं है। बुद्ध को ज्ञान हुआ, वाणी खो गई, सात दिन वे चुप बैठे रहे, देवता उनके आसपास हाथ जोड़े खड़े रहे और प्रार्थना करते रहे, बोलो। सात दिन बाद वे सुन पाए। देवताओं ने प्रार्थना की कि आप नहीं बोलेंगे तो जगत का बड़ा अहित होगा। लाखों वर्षों में ऐसा व्यक्ति पैदा होता है। तो आप चुप न रहें, आप बोलें!
ये देवता कोई व्यक्ति नहीं हैं। ये वे आत्मायें हैं, जो आतुर हैं कि एक व्यक्ति को उपलब्ध हो गया है। जो वे खुद कहना चाहती हों आत्मायें जगत से, लेकिन उनके पास अब शरीर नहीं है, इस व्यक्ति के पास अभी शरीर है और यह कह सकता है, और इसको वह मिल गया है जो कहा जाने योग्य है, और पृथ्वी पर ऐसी घटना मुश्किल से, मुश्किल से कभी-कभी घटती है। तो वे आत्मायें प्रार्थना करती हैं कि आप कहें। आप कहें। बुद्ध को बामुश्किल राजी कर पाती हैं कहने को। लेकिन बुद्ध का वे माध्यम की तरह उपयोग नहीं कर रही हैं। संदेश उनका और बुद्ध की वाणी नहीं है। बुद्ध का अपना नहीं संदेश है, अपनी ही वाणी है।
एलिस बेली जैसे व्यक्ति गलत नहीं कह रहे हैं। लेकिन वे सही कह रहे हैं, इसको सिद्ध करना उनके लिए बहुत मुश्किल मामला है। वे केवल माध्यम हैं। माध्यम इतना ही कह सकता है कि मुझे ऐसा सुनाई पड़ता है, यह सही है? यह मेरे ही मन का खेल नहीं है, वह कैसे सिद्ध करेगा? यह मेरा ही “अनकांशस’ नहीं बोलता है, यह कैसे सिद्ध करेगा? यह मैं ही अपने को किसी “डिसेप्शन’ में नहीं डाल रहा हूं, यह कैसे सिद्ध करेगा? बहुत मुश्किल है। माध्यम को सिद्ध करना मुश्किल है। इसलिए बेली को मनोवैज्ञानिक हरा सकते हैं।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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