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Saturday, October 3, 2015

आखिरी सवाल पूछा है कि क्या मेरा किसी परालौकिक के मास्टर या ऐसे किसी गुरु से संबंध है?


 नहीं, उधार काम मैं करता ही नहीं। मेरा संबंध सिर्फ मुझसे है। तो जो भी मैं कह रहा हूं वह मैं ही कह रहा हूं। उसकी भूल-चूक, उसके सही-गलत होने का सारा जिम्मा मुझ पर है। किसी “मास्टर’ से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। और अगर मैं किसी को “मास्टर’ बनाऊं, तो डर यह है कि फिर मैं किसी का “मास्टर’ बन सकता हूं। वह काम मैं करता नहीं। न मैं किसी का शिष्य हूं, न किसी को शिष्य बनाने का सवाल है। निपट जो सीधा मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह मैं कह रहा हूं, इसलिए मुझे कोई सिद्ध करने जाने की जरूरत नहीं है कि “मास्टर’ होते हैं कि नहीं होते हैं। मैंने सिर्फ बात कही है आपसे। वे होते हैं कि नहीं होते हैं, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। इतना मैं कहता हूं कि शरीर छूट जाने के बाद बुरी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम प्रेत कहते हैं। अच्छी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम देवता कहते हैं। इन देवताओं के लिए पश्चिम में जो नया शब्द है “मास्टर’ का, वह पकड़ गया है। इन देवताओं ने सदा संदेश भेजे हैं। वे आज भी संदेश भेजने के लिए सदा उत्सुक हैं। प्रेतात्माओं ने भी, बुरी आत्माओं ने भी संदेश भेजे हैं।

 अगर आपके मन की स्थिति ऐसी हो कि प्रेतात्मा आपको संदेश दे सके, तो बराबर देगी। और बहुत बार आदमियों ने ऐसे काम किए हैं जो उन्होंने नहीं किए हैं, किसी ने उनसे करवाए हैं। बुरे आदमियों ने भी करवाए हैं। बुरी आत्मायें भी आपसे काम करवा लेती हैं, जो आपने नहीं किया है। इसलिए जरूरी नहीं है कि जब अदालत में एक आदमी कहता है कि यह हत्या मैंने नहीं की, मेरे बावजूद हो गई है, तो पक्का नहीं है कि वह आदमी झूठ ही कहता हो। यह हो सकता है। ऐसी आत्मायें हैं, जिन्होंने निरंतर हत्यायें करवाई हैं। ऐसे घर हैं जमीन पर जिन पर उन आत्माओं का वास है कि उस घर में जो भी रहेगा, वे उनसे हत्या करवा लेंगी। बदले हैं लंबे भी; पीढ़ियों ही नहीं चलते झगड़े, जन्मों भी चलते हैं।

एक व्यक्ति को मेरे पास लाया गया–एक युवक को मेरे पास लाया गया। जिस मकान में वह रह रहा है, अभी कोई दो साल पहले, तीन साल पहले वह उस मकान को खरीदे और उसमें आए, तब से उस लड़के में कुछ गड़बड़ होनी शुरू हो गई। और उसका सारा व्यक्तित्व बदल गया। वह सौम्य था, विनम्र था, वह सब खो गया। वह दंभी, अहंकारी, हिंसक, हर चीज की तोड़-फोड़ में उत्सुक, जरा-सी बात में लड़ने को आतुर हो गया–अचानक जिस दिन घर में वह आया। अगर यह धीरे-धीरे होता तो पता भी न चलता। एकदम से “पर्सनैलिटी चेंज’ हुई, एकदम से व्यक्तित्व बदला। वह मेरे पास लाए। उन्होंने कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। और जैसे ही उसको घर के बाहर ले जाते हैं, वह फिर ठीक हो जाता है। जब मेरे पास लाए तो वह ठीक था। वह कहने लगा, मैं खुद ही मुश्किल में हूं। अब अभी मैं बिलकुल ठीक हूं। लेकिन न-मालूम उस घर में जाकर क्या होता है कि मैं एकदम गड़बड़ हो जाता हूं।

उसको बेहोश किया, उसको सम्मोहित किया और उससे पूछा। तो ग्यारह सौ साल लंबी कहानी! कोई आदमी ग्यारह सौ साल पहले उस खेत का मालिक था, जहां वह मकान है। और ग्यारह सौ साल से वह निरंतर कोई पैंतीस हत्यायें करवा चुका। उसने सब वक्तव्य दिया कि मैं तो इससे जब तक हत्या न करवा लूं, तक तक छोड़ने वाला नहीं हूं। और ग्यारह सौ साल से निरंतर वह उस परिवार के लोगों की हत्या करवा रहा है, जिसके द्वारा उसकी हत्या ग्यारह सौ साल पहले की गई थी। उसकी हत्या की गई थी। और तब से वह प्रेत है और उस जगह बैठा है। और जिसने उसकी हत्या की थी, जिस परिवार ने, जिस दस-पंद्रह लोगों ने उसकी हत्या में हाथ बंटाया था, निरंतर उनकी हत्या में वह संलग्न है, वे किसी रूप में, वे कहीं पैदा हों, वह उनकी हत्या करवा रहा है।

बुरी आत्मायें भी अपने संदेश पहुंचाने की चेष्टा करती हैं। बहुत बार आप इस खयाल में होंगे कि आप कर रहे हज, आप नहीं कर रहे होते। बहुत बार आपसे ऐसा अच्छा कृत्य हो जाता है जो कि आप खुद ही नहीं सोच सकते कि मैं कर सकता था! दूसरे की बात छोड़ें, दूसरा तो मानता ही नहीं कि किसी ने अच्छा किया, आप खुद भी नहीं मान पाते कि इतना अच्छा मैं कर सकता था जो मैंने किया। उसमें भी कोई संदेश काम करते चले जाते हैं।


बेली के वक्तव्य में कोई गलती नहीं है, लेकिन बेली अपने वक्तव्यों को सिद्ध न कर पाएगा। कोई नहीं कर पाता। ब्लावट्स्की नहीं कर पाई अपने वक्तव्यों को सिद्ध। और मैंने इस बीच एक बात कही, उसको थोड़ा और समझा दूं। मैंने कहा कि कृष्णमूर्ति के साथ एक बहुत बड़ा प्रयोग किया जा रहा था, जो असफल गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग था कि जिनको हम देवलोग की आत्मायें कहें, उनमें बहुत-सी आत्मायें एक-साथ उत्सुक होकर इस व्यक्ति में एक ऐसी चेतना को जन्माना चाहती थीं जैसा कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण, इस तरह की बड़ी चेतना इस व्यक्ति के भीतर प्रवेश कर जाए। ऐसी कोई चेतना आतुर है। असल में बुद्ध का ही एक आश्वासन अभी प्रतीक्षा कर रहा है। 

 बुद्ध का एक आश्वासन है कि ठीक समझना कि मैं ही मैत्रेय के नाम से एक बौर और लौट आऊंगा। तो मैत्रेय नाम का बुद्ध-अवतार आतुर है, लेकिन उसके योग्य शरीर उपलब्ध नहीं हो रहा है। उसके योग्य ठीक संस्थान और “मीडियम’ उपलब्ध नहीं हो रहा है। “थियोसॉफी’ का सारा-का-सारा आयोजन, कोई सौ वर्ष की निरंतर श्रम-व्यवस्था एक ऐसे व्यक्ति को खोजने के लिए थी, जिसमें मैत्रेय की आत्मा प्रवेश कर जाए। इसलिए तीन-चार व्यक्तियों पर मेहनत उन्होंने शुरू की, लेकिन सभी असफल हुआ। सर्वाधिक मेहनत कृष्णमूर्ति पर की गई थी, लेकिन वह नहीं हो सका। और नहीं होने के कारण में, अति मेहनत ही कारण बनी। सारे लोग इतने चेष्टारत हो गए, चारों तरफ से इतना दबाव डाला गया कि स्वभावतः कृष्णमूर्ति का अपना व्यक्तित्व विद्रोही और बगावती हो गया। वह “रिएक्ट’ कर गया। उसने अंततः इनकार कर दिया कि–नहीं!
 
और उसके बाद चालीस साल हो गए, लेकिन कृष्णमूर्ति “रिएक्शन’ से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। वह अभी भी उन्हीं के खिलाफ बोले चले जा रहे हैं। वह कुछ भी बोलते हैं, उसमें उनकी खिलाफत मौजूद है ही। बहुत गहरे में वह पीड़ा अभी भी मौजूद है, वह घाव एकदम भर नहीं गया। लेकिन, थोड़ी गलती हो गई। कृष्णमूर्ति की हैसियत के आदमी को दूसरे की आत्मा के प्रवेश के लिए राजी नहीं किया जा सकता। थोड़ी और कमजोर आत्मा चुननी थी। फिर उन्होंने कृष्णमूर्ति से कमजोर आत्मायें चुनीं लेकिन उसकी भी तकलीफ है। उतनी कमजोर आत्मा उस आत्मा के प्रवेश के योग्य नहीं बन पाती। वह पात्र छोटा पड़ जाता है। और मैत्रेय की आत्मा उसमें प्रवेश न कर पाए।

 और जो पात्र बड़ा पड़ सकता है, वह खुद अपनी आत्मा में इतना गहरा है कि वह किसी आत्मा के प्रवेश के लिए राजी क्यों हो? इसलिए बचपन में तो कृष्णमूर्ति को उन्होंने किसी तरह राजी रखा, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी और उनकी “अवेयरनेस’ बढ़ी और उनकी खुद की चेतना का जन्म हुआ, वैसे-वैसे इनकार बढ़ता चला गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग सफल नहीं हो सका और मैत्रेय की आत्मा आज भी भटकती है।
 
लेकिन कठिनाई बड़ी है, और कठिनाई यही है कि जो राजी हो सकते हैं उसके लिए, वह योग्य नहीं है और जो योग्य हैं, वह राजी नहीं हो सकते। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि कितनी देर लगेगी मैत्रेय के व्यक्तित्व को उतरने में। उतर भी सकेगा जल्दी, यह भी संभावना रोज सिकुड़ती जाती है। क्योंकि अब तो कोई बड़ा आयोजन भी नहीं है उसकी तैयारी के लिए। अब तो आकस्मिक आयोजन ही काम कर सकता है। वैसा ही आयोजन सदा काम किया है, अतीत में। कोई बुद्ध के लिए किसी व्यक्ति को राजी नहीं करना पड़ा। एक गर्भ उपलब्ध हो गया और बुद्ध प्रवेश कर गए। और महावीर के लिए किसी को राजी नहीं करना पड़ा, एक गर्भ उपलब्ध हो गया और महावीर प्रवेश हो गए। लेकिन उतने श्रेष्ठ गर्भ उपलब्ध होने मुश्किल होते चले गए हैं। 
 
कृष्ण स्मृति 
 
ओशो 
 
 

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