एक मंदिर बन रहा है और एक आदमी वहां से गुजरा है और उसने पत्थर तोड़ते एक
आदमी से, मजदूर से पूछा है कि तुम क्या कर रहे हो? तो उस आदमी ने उसकी तरफ
देखा भी नहीं और क्रोध से कहा कि अंधे तो नहीं हो? देखते नहीं कि पत्थर
तोड़ रहा हूं? आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे बढ़ा। और उसने दूसरे मजदूर से
पूछा–हजारों मजदूर पत्थर तोड़ रहे हैं–उसने दूसरे से पूछा कि मेरे मित्र,
क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से अपनी छैनी-हथौड़ी नीचे रख दी, उस आदमी
की तरफ देखा और कहा कि दिखाई तो यही पड़ रहा है कि पत्थर तोड़ रहा हूं, ऐसे
रोटी कमा रहा हूं। बच्चों के लिए, बेटों के लिए, पत्नी के लिए रोटी कमा रहा
हूं। उसने फिर अपना तोड़ना शुरू कर दिया। वह आदमी तीसरे आदमी के पास पहुंचा
जो मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। उसने
उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने कहा, क्या कर रहा हूं? भगवान का मंदिर
बना रहा हूं। उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया और गीत गाना शुरू कर दिया।
ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं, तीनों पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन इन
तीनों का सोचने का ढंग पत्थर तोड़ने के बाबत भिन्न है। वह जो तीसरा आदमी है,
उसने पत्थर तोड़ने को उत्सव बना लिया है।
मैं नहीं कहता हूं कि लोग गरीबी न मिटाएं, मैं नहीं कहा हूं कि लोग
यंत्र न बनाएं, मैं नहीं कहता हूं कि लोग समृद्धि पैदा न करें, लेकिन इस
सबको भी उत्सव की तरह ही, इस सबको भी काम की तरह नहीं। गरीबी अगर काम की
तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी तो मिट जाए, लेकिन गरीब आदमी दुनिया से
नहीं मिटेगा। लेकिन अगर गरीबी उत्सव की तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी
उतनी जल्दी शायद न भी मिटे, लेकिन गरीब आदमी मिट सकता है।
हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा “ऐटिटयूड’ क्या है, वह सवाल है। और
जब इस “ऐटिटयूड’ का, इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि
बदल जाती है।
एक माली भी सुबह आकर इस बगीचे में काम करता है, लेकिन इसे
उत्सव की तरह नहीं ले पाता। कौन उसे रोक रहा है कि उत्सव की तरह न ले? माना
कि वह रोटी कमा रहा है, रोटी बराबर कमा रहा है, कमाए, लेकिन यह खिलते हुए
फूलों को उत्सव की तरह न ले, यह कौन रोक रहा है? और इनको उत्सव की तरह न
लेकर वह कौन-सा ज्यादा कमा ले रहा है। मैं तो मानता हूं कि अगर वह इसको
आनंद की तरह ले, इसको…काम तो है ही, रोटी कमा ही रहा है, वह गौण है…लेकिन
उसके चित्त में प्रमुख अगर यह फूलों का आनंद और इनके खिलने की खुशी हो जाए,
तो वह माली, सिर्फ नौकर नहीं रह जाएगा, वह बहुत गहरे अर्थों में इन फूलों
का मालिक भी हो जाएगा, बिना मालिक बने। और जब फूल खिलेंगे तब उसे एक आनंद
भी मिलेगा, जो अकेले काम से कभी नहीं मिल सकता है। गरीबी भी मिटानी है, दुख
भी मिटाना है, लेकिन वह काम की भांति नहीं; वह भी जीवन के उत्सव में सब
लोग सम्मिलित हो सकें, इसलिए।
जब मैं कहा हूं कि गरीबी मिटानी है, तो मेरा मतलब बहुत ज्यादा यह नहीं
होता कि गरीब बहुत तकलीफ में है इसलिए मिटानी है। मेरा मतलब इतना ही होता
है कि गरीब रहते हुए जीवन के महोत्सव में भागीदार होना बहुत मुश्किल है,
इसलिए मिटानी है। मैं जब गरीबी मिटाना चाहता हूं, तो मेरे लिए मतलब इतना ही
नहीं है कि उसका पेट खाली है, वह भर दिया जाए किसी तरह। न, मेरे मन में
खयाल यह है कि उसकी आत्मा को भरना मुश्किल पड़ेगा, जब तक पेट नहीं भर जाता।
और उसकी आत्मा तो उत्सव से भरेगी, पेट काम से भरेगा।
और आत्मा की तरफ अगर ध्यान हो तो हम जीवन के सब कामों को उत्सव बना ले
सकते हैं। उस खेत में हम गङ्ढे भी खोद सकते हैं और गीत भी गा सकते हैं। सदा
से ऐसा था ही। आज फैक्ट्री उतनी आनंदपूर्ण नहीं रह गई। लेकिन आज नहीं कल,
मैं आपसे कहता हूं, फैक्ट्री में गीत वापस लौटेगा। किसान अपने खेत पर काम
कर रहा था, वह काम तो था ही, लेकिन वह गीत भी गा रहा था। उसके गीत की वजह
से काम में बाधा नहीं पड़ती थी, काम में सिर्फ गति आती थी। लेकिन फैक्ट्री
में तो गीत गाने की सुविधा नहीं है। वहां सिर्फ काम रह गया है, सात घंटे।
आदमी थका हुआ लौट आता है, टूटा हुआ आता है। आज नहीं कल, और जिन मुल्कों में
इस पर काम चलता है, खोज होती है, वह मुल्क इसके करीब आते जा रहे हैं कि
फैक्ट्री में जो आदमी काम कर रहा है, अगर अकेला काम ही रहेगा, तो खतरा है
बहुत। इसके काम को आनंद में रूपांतरित करना होगा। बहुत दिन दूर नहीं, जबकि
फैक्ट्री में भी गीत गाया जा सके। और उत्सव के लिए क्षण खोजे जा सकें।
खोजने ही पड़ेंगे, अन्यथा आदमी उदास और रिक्त होता चला जाएगा।
एक स्त्री घर में खाना बना रही है। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जैसा
होटल में रसोइया बनाता है। तब काम हो जाएगा। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जब
कोई अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करता है और खाना बनाता है। तब काम उत्सव हो
जाएगा। और दोनों हालत में काम होता है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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