एक वर्ष में विशेष दिन, करोड़ों लोग एक
तीर्थ पर इकट्ठे हो जाएंगे; एक ही आकांक्षा ,एक ही अभीप्सा से सैकड़ों
मील की यात्रा करके आ जाएंगे। वह सब एक विशेष घड़ी में , एक विशेष तारे के
साथ, एक विशेष नक्षत्र में एक जगह इकट्ठे हो जाते है। इसमें पहली बात समझ
लेने की यह है, कि यह करोड़ों लोग इकट्ठा होकर एक अभीप्सा, एक आकांक्षा,
एक पार्थना से एक धुन करते हुए आ गए है, यह एक ‘पुल’ बन गया है। चेतना का।
अब यहां व्यक्ति नहीं है।
अगर कुंभ में देखे तो व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता। वहां भीड़ है,
निपट भीड़, जहां कोई चेहरा नहीं है। चेहरा बचेगा कहां इतनी भीड़ में,
फेसलेस एक करोड़ आदमी इकट्ठे है। कौन, कौन है? अब कोई अर्थ नहीं रह गया
जानने का। कौन राजा है, और कौन रंक हे। अब कोई मतलब नहीं रह गया। कौन अमीर
है, कौन गरीब है, कोई मतलब नहीं रहा, यानी सब फेसलेस हो गया। अब यहां इन
सबकी चेतनाएं एक दूसरे के भीतर प्रवाहित होनी शुरू होंगी। अगर एक करोड़
लोगों की चेतना का पूल बन सके,एक इकट्ठा रूप बन जाए, तो इस चेतना के भीतर
परमात्मा का प्रवेश जितना आसान है उतना आसान एक-एक व्यक्ति के भीतर नहीं
है। यह बड़ा कान्टेक्ट फील्ड है।
नीत्से ने कहीं लिखा है यह सुबह एक बग़ीचे से गुजर रहा है। एक
छोटे से कीड़े पर उसका पैर लग जाता है। तो वह कीड़ा जल्दी से सिकुड़कर गोल
घुंडी बनाकर बैठ जाता है। नीत्से बड़ा हैरान हुआ। उसने कई दफा यह बात
देखी है कि कीड़ों को जरा चोट लग जाए तो वह तत्काल सिकुड़कर क्यों बैठ
जाते है। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि बहुत सोचकर मुझे खयाल में आया कि
वह अपना कान्टेक्ट फील्ड़ कम कर लेते है। बचाव का ज्यादा उपाय हो जाता
है। कीड़ा पूरा लंबा है, तो उस पर कहीं पैर पड़ सकता है। क्योंकि ज्यादा
जगा वह घेर रहा है। वह जल्दी से छोटी जगह में सिकुड़ गया, अब उस पर पैर
पड़ने की संभावना अनुपात में कम हो गयी। वह सुरक्षा कर रहा है अपनी। वह
अपनी कान्टेक्ट फील्ड़ को छोटा कर रहा है। और जो कीड़ा जितना जल्दी यह
कान्टेक्ट फील्ड़ छोटा कर लेता है वह उतना बचाव कर लेता है।
आदमी की चेतना जितना बड़ा कान्टेक्ट फील्ड निर्मित करती है,
परमात्मा का अवतरण उतना आसान हो जाता है। क्योंकि वह इतनी बड़ी घटना है।
एक बड़ी घटना के लिए हम जितना बड़ी जगह बना सके उतनी उपयोगी है। इंडीवीजुअल
प्रेयर, व्यक्तिगत प्रार्थना तो बहुत बाद में पैदा हुई, प्रार्थना का
मूल रूप तो समूह गत है। वैयक्तिक प्रार्थना तो तब पैदा हुई जब एक-एक आदमी
को भारी अहंकार पकड़ना शुरू हो गया। किसी के साथ ‘’पूल-अप’’ होना मुश्किल
हो गया कि किसी के साथ हम एक हो सकें।
इसलिए जब इंडीवीजुअल प्रेयर दुनिया में शुरू हुई तब ये प्रेयर का
फायदा खो गया। असल में प्रेयर इंडीवीजुअल नहीं हो सकती। हम इतनी बड़ी
शक्ति का आह्वान कर ही नहीं सकते। तो हम जितना बड़ा क्षेत्र दे सकें उसके
अवतरण के लिए उतना ही सुगम होगा। तीर्थ इस रूप में एक बड़े क्षेत्र को
निर्मित करते है। फिर खास घड़ी में करते है खास नक्षत्र में , उस घड़ी उस
नक्षत्र में खास दिन करते है। खास वर्ष में करते है। वह सब सुनिश्चित
विधियां थी। इसका अर्थ यह कि उस नक्षत्र में उस घड़ी में पहले भी
कान्टेक्ट हुआ है। और जीवन की सारी व्यवस्था पीरियोडिकल है। इसे भी समझ
लेना चाहिए।
जीवन की सारी व्यवस्था कैसे पीरियोडिकल है। जैसे कि वर्षा आती
है, एक खास दिन पर आ जाती है। और अगर आज नहीं आती है खास दिन पर, तो उसका
कारण यह है कि हमने छेड़छाड़ की है। अन्यथा दिन बिलकुल तय है, घड़ बिलकुल
ठीक है, गर्मी आती है खास वक्त, सर्दी आती है खास वक्त, वसंत आता है खास
वक्त सब बंधा है। शरीर भी बिलकुल वैसा ही काम करता है।
स्त्रियों का मासिक धर्म है, ठीक चाँद के साथ चलता रहता है। ठीक
अट्ठाईस दिन में उसे लौट आना चाहिए, अगर बिलकुल ठीक है, शरीर स्वस्थ है।
वह चाँद के साथ यात्रा करता है। वह अट्ठाईस दिन में नहीं लौटता तो क्रम टूट
गया है व्यक्तित्व का, भीतर कहीं कोई गड़बड़ हो गयी है।
सारी घटनाएं एक क्रम में आवर्तित होती है। अगर किसी एक घड़ी में
परमात्मा का अवतरण हो गया, तो उस घड़ी को हम अगले वर्ष के लिए फिर नोट कर
सकते है। अब संभावना उस घड़ी की बढ़ गयी , वह घड़ी ज्यादा पोटेंशियल हो
गयी,उस घड़ी में परमात्मा की धारा पुनर् प्रवाहित हो सकती है। इसलिए पुन:
पुन: उस घड़ी में तीर्थ पर लोग इकट्ठे होते रहेगे। सैकड़ों वर्षो तक। अगर
वह कई बार हो चुका तो यह घड़ी सुनिश्चित होती जाएगी। वह बिलकुल तय हो
जाएगी।
जैसे कि कुंभ के मेले पर गंगा में कौन पहले उतरे, वह भारी दंगे का
करण होता है। क्योंकि इतने लोग इकट्ठे नहीं उतर सकते एक घड़ी में ,और वह
घड़ी तो बहुत सुनिश्चित है बहुत बारीक है। उसमें कौन उतरे, उस पहली घड़ी
में जिन्होनें यह घड़ी खोजी है या जिनकी परंपरा और जिनकी धारा में उस घड़ी
का पहले अवतरण हुआ है, वह उसके मालिक है। वह उस घड़ी में पहले उतर जाएंगे।
और कभी-कभी क्षण का फर्क हो जाता है। परमात्मा का अवतरण करीब बिजली की
कौंध जैसा है कौंधा, और खो गया। उस क्षण में आप खुले रहे जगह रह तो घटना घट
जाए। उस क्षण में आँख बंद हो गयी, सोये रहे तो घटना खो जाए।
तीर्थ का तीसरा महत्व था मास एक्सपेरीमेंट, समूह प्रयोग अधिकतम
विराट पैमाने पर उस अनंत शक्ति को उतारा जा सके। और जब लोग सरल थे तो यह
घटना बड़ी आसानी से घटती थी। उन दिनों तीर्थ बड़े सार्थक थे। तीर्थ से कभी
कोई खाली हाथ नहीं लोटता था। इसलिए…तो आज आदमी खाली लौट आता है, खाली लौट
आने पर आदमी फिर दोबारा चला जाता है। उन दिनों तो ट्रांसफार्म होकर लौटता
था ही। पर वह बहुत सरल और इनोसेंट समाज की घटनाएं है। क्योंकि जितना सरल
समाज हो, जहां व्यक्तित्व का बोध जितना कम हो, वहां तीर्थ का यह तीसरा
प्रयोग काम करेगा, अन्यथा नहीं करेगा।
आज भी अगर आदिवासियों में जाए तो पांएगे कि उनमें व्यक्तित्व
का बोध कम होता है। ‘’मैं’’ का ख्याल कम है, ‘’हम’’ का ख्याल ज्यादा है।
कुछ तो भाषएं है ऐसी जिसमें ‘’मैं’’ नहीं है। हम ही है। आदिवासी कबीलों की
ढेर भाषएं है जिनमें ‘’मैं’’ शब्द नहीं है। आदिवासी बोलता है, तो बोलता
है ‘’हम’’। ऐसा नहीं है कि भाषा ऐसी है। वहां मैं का कन्सेप्ट ही पैदा
नहीं हुआ। और वह इतना जुड़ा हुआ है आपस में कि कई दफ़ा तो बहुत अनूठे
परिणाम उसके निकले है।
सिंगापुर के पास एक छोटे से द्वाप पर जब पहली दफा पश्चिमी लोगों
ने हमला किया तो वे बड़े हैरान हुए। जो चीफ़ थ, जो प्रमुख था कबीले का, वह
आया किनारे पर, और जो हमलावर थे उनसे उसने कहा कि हम निहत्थे लोग जरूर
है। पर हम परतंत्र नहीं हो सकते। पश्चिमी लोगों ने कहा कि वह तो होना ही
पड़ेगा। उन कबीले वालों ने कहा, हमारे पास लड़ाई का उपाय तो कुछ नहीं है,
लेकिन हम मरना जानते हे—हम मर जांएगे। उन्हें भरोसा नहीं आया कि कोई ऐसे
कैसे मरता है, लेकिन बड़ी अद्भुत घटना है।
ऐतिहासिक घटनाओं में एक घटना घट गयी। जब वे राज़ी नहीं हुए और
उन्होंने कदम रख दिया, द्वीप पर उतर गए, तो पूरा कबीला इकट्ठा हुआ। कोई
पाँच सौ लोग तट पर इकट्ठे हुए और वह देखकर दंग रह गए कि उनका प्रमुख पहले
मर कर गिर गया। और फिर दूसरे लोग मरकर गिरने लगे। मरकर गिरने लगे बिना किसी
हथियार की चोट के। शत्रु घबरा गए, यह देख कर। पहले तो उन्होंने समझा कि
लोग डर कर ऐसे ही गिर गए होंगे। लेकिन देखा वह तो खत्म ही हो गए। अभी तक
साफ़ नहीं हो सका कि यह क्या घटना घटी, असल में हम की कांशेसनेस अगर बहुत
ज्यादा हो तो मृत्यु ऐसी संक्रामक हो सकती है। एक के मरते ही फेल सकती है।
कई जानवर मर जाते है ऐसे। भेड़ मर जाती है—एक भेड़ मरी, कि मरना
फैल जाता है। भेड़ के पास ‘’मैं’’ का बोध बहुत कम है, हम का बोध है। भेड़ों
को चलते हुए देखे तो मालूम पड़ेगा कि हम चल रहा है, सब सटी हुई है एक
दूसरे से, एक ही जीवन जैसे सरकता हो। एक भेड़ मरी, तो दूसरी भेड़ को मरने
जैसा हो जाएगा, मृत्यु फैल जाएगी भीतर।
तो जब समाज बहुत ‘’हम’’ के बोध से भरा था और ‘’मैं’’ का बोध बहुत
कम था तब कुम्भ बड़ा कारगर था। उसकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी,
जिस मात्रा में ‘’मैं’’ का बोध बढ़ जाएगा।
मैं कहता आँखन देखी
ओशो
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