इसे समझना भी उपयोगी होगा। मूर्च्छा का अर्थ हमें खयाल में नहीं है।
मूर्च्छा का अर्थ जागृति से उलटा नहीं है, मूर्च्छा का अर्थ है जागृति का
और कहीं उपस्थित होना। यह खयाल में आ जाए तो कठिनाई नहीं रह जाएगी। हमें
ऐसा लगता है कि अगर स्वभाव जागृति है तो फिर मूर्च्छा कहां है?
समझ लें, एक टार्च हमारे पास है, जिसका स्वभाव प्रकाश है, और टार्च जल
रही है। फिर हम कहते हैं, जब टार्च जल रही है और स्वभाव टार्च का प्रकाश
है, फिर अंधेरा कहां है? लेकिन टार्च का एक फोकस है और जिस बिंदु पर पड़ता
है, वहां तो प्रकाश है, शेष सब जगह अंधेरा हो जाता है। और यह भी हो सकता है
कि टार्च खुद अंधेरे में हो, इसमें कुछ विरोध नहीं है। टार्च का फोकस बाहर
की तरफ पड़ रहा है, यद्यपि टार्च का स्वभाव प्रकाश है, लेकिन टार्च खुद
अंधेरे में खड़ी है।
हमारा स्वभाव तो जागरण है, लेकिन हमारी जागृति बाहर की तरफ फैली हुई है।
हम तब भी जाग्रत हैं। एक आदमी सड़क पर चल रहा है, चारों तरफ देखता है,
दुकानें दिखाई पड़ रही हैं, लोग दिखाई पड़ रहे हैं। नहीं तो चलेगा कैसे अगर
सोया हुआ हो? सब दिखाई पड़ रहा है, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर, जो वह स्वयं
है। सब तरफ जागृति फैली हुई है, सब दिखाई पड़ रहा है–सड़क, दुकान, मकान,
तांगा, कार, रिक्शा–सब; सिर्फ एक बिंदु भर दिखाई नहीं पड़ रहा, वह जो स्वयं
है!
इसका मतलब यह हुआ कि जागृति दो तरह से हो सकती है: बहिर्मुखी और
अंतर्मुखी। अगर बहिर्मुखी जागृति होगी तो अंतर्मुखता अंधकारपूर्ण हो जाएगी।
वहां मूर्च्छा हो जाएगी। मूर्च्छा का कुल मतलब इतना है कि प्रकाश की धारा
उस तरफ नहीं बह रही है। अगर जागृति अंतर्मुखी होगी तो बाहर की तरफ मूर्च्छा
हो जाएगी। साधारणतः जागृति के ये दो ही रूप हो सकते हैं, अंतर्मुखता और
बहिर्मुखता। अगर कोई बहिर्मुखी है तो अंतर्मुखता में बाधा पड़ेगी, अगर कोई
अंतर्मुखी है तो बहिर्मुखता में बाधा पड़ेगी।
लेकिन अंतर्मुखता का अगर और विकास हो तो एक तीसरी स्थिति भी जागृति की
उपलब्ध होती है, जहां अंतर और बाह्य मिट जाता है, जहां सिर्फ प्रकाश रह
जाता है। वह पूर्ण जाग्रत, जहां बाहर और भीतर का भेद भी मिट जाता है। लेकिन
बहिर्मुखता से कभी कोई इस तीसरी स्थिति में नहीं पहुंच सकता है।
पहली स्थिति है बहिर्मुखता, दूसरी स्थिति है अंतर्मुखता, तीसरी स्थिति
है ट्रांसेंडेंस। तीसरी स्थिति है दोनों के पार हो जाना। और इस पार हो जाने
का जो बिंदु है, वह अंतर्मुखता है। इस पार हो जाने का बिंदु बहिर्मुखता
नहीं है। क्योंकि जब हम बाहर हैं, तब तो हम अपने पर भी नहीं हैं। तो अपने
से और ऊपर जाने की तो कोई संभावना नहीं है। बाहर से लौट आना है अपने पर, और
फिर अपने से भी ऊपर चले जाना है। उस स्थिति में बाहर-भीतर सब प्रकाशित हो
जाते हैं।
मूर्च्छा का अर्थ अभी जिसे हम समझ लें, वह इतना ही है कि हम बाहर हैं।
बाहर हैं का मतलब हमारा अटेंशन, हमारा ध्यान बाहर है। और जहां हमारा ध्यान
है, वहां जागृति है; और जहां हमारा ध्यान नहीं है, वहां मूर्च्छा है।
समझो कि तुम भागी चली जा रही हो, मकान में आग लग गई है, पैर में कांटा
गड़ गया है, लेकिन पता नहीं चलता कि पैर में कांटा गड़ा है। मकान में लगी है
आग तो पैर में गड़े कांटे का पता कैसे चले? सारा ध्यान आग लगे हुए मकान पर
अटक गया है। पैर तक जाने के लिए ध्यान की एक छोटी सी किरण भी नहीं है, जो
शरीर से पैर तक पहुंच जाए यात्रा करके और पता लगा ले कि कांटा गड़ गया है।
फिर मकान की आग बुझ गई है, फिर सब ठीक हो गया, और अचानक पैर का कांटा
दुखने लगा है! इतनी देर तक पैर के कांटे का कोई पता नहीं था, क्योंकि ध्यान
वहां नहीं था, ध्यान कहीं और था। जहां हमारा ध्यान है, वहां हम जाग्रत थे।
जहां हमारा ध्यान नहीं था, वहां हम मूर्च्छित थे।
महावीर मेरी दृष्टि में
ओशो
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