इस बात को जितनी गहराई से समझ लें उतना साधना में सहायता मिलेगी। तब नकल का तो कोई उपाय नहीं है। तब दूसरे का अनुसरण करना संभव नहीं है; अनुयायी बनने की सुविधा ही नहीं है। तुम बस तुम जैसे हो, और तुम्हें अपना रास्ता खुद ही खोजना होगा। सहारे मिल सकते हैं, सुझाव मिल सकते हैं, आदेश नहीं। दूसरे की समझ के प्रकाश से तुम अपनी समझ को जगा सकते हो, लेकिन दूसरे के जीवन को ढांचा मान कर अपने को ढाला कि मुक्ति तो दूर, जीवित भी तुम न रह जाओगे। तब तुम एक मुर्दे की भांति होओगे; एक अनुकृति, जिसकी आत्मा खो गई है।
आत्मा का अर्थ है व्यक्तित्व; आत्मा का अर्थ है तुम्हारा अनूठापन; आत्मा
का अर्थ है तुम्हारी अद्वितीयता। इसमें कुछ अहंकार मत समझना। क्योंकि जैसे
तुम अद्वितीय हो वैसे ही सभी अद्वितीय हैं। अद्वितीयता सामान्य घटना है।
यह कोई विशेष बात नहीं। यह समझना मत अपने मन में कि मैं बेजोड़ हूं। तुम ही
बेजोड़ नहीं हो, सभी बेजोड़ हैं। राह के किनारे पड़ा एक छोटा सा कंकड़ भी बेजोड़
है। वृक्षों में लगे करोड़ों पत्ते हैं; एक-एक पत्ता बेजोड़ है। तुम उस जैसा
पत्ता दूसरा न खोज सकोगे।
बेजोड़ता अस्तित्व का ढंग है। यहां सभी कुछ अनूठा है। होना ही चाहिए।
क्योंकि यहां पत्ते-पत्ते पर परमात्मा का हस्ताक्षर है। उसका बनाया हुआ
बेजोड़ होगा ही। तुम्हें भी वही बनाता। बुद्ध, कृष्ण, लाओत्से को भी वही
बनाता। कंकड़-पत्थरों को भी वही बनाता। सभी पर उसी के निशान हैं। और जो उसके
हाथ में पड़ गया वह नकल थोड़े ही हो सकता है। जो उस मूल स्रोत से आता है वह
उस मूल स्रोत की अद्वितीयता को अपने साथ लाता है। तुम अद्वितीय हो, क्योंकि
परमात्मा अद्वितीय है। तुम उससे ही आते हो। तुम उससे भिन्न नहीं हो सकते।
और तुम्हें अगर कुछ होना है तो बस अपने ही जैसा होना है। कोई दूसरा न तो
आदर्श है, न कोई दूसरा तुम्हारे लिए नियम है, न तो कोई दूसरा तुम्हारा
अनुशासन है। तुम्हारा बोध, तुम्हारी समझ, तुम्हारे अपने जीवन की भीतर की
ज्योति को ही बढ़ाना है। सहारा लो, साथ लो; जो पहुंच गए हैं उनसे स्वाद लो;
जो पहुंच गए हैं उनको गौर से देखो, पहचानो; पर नकल मत करो, अनुसरण मत करो।
अनुयायी भूल कर मत बनना। अनुयायियों से ही तो संप्रदाय निर्मित हो गए
हैं। अगर तुम अनुयायी न बने तो ही तुम धार्मिक हो सकोगे। अनुयायी बनने का
अर्थ यह है कि तुमने समझ को तो ताक पर रख दिया, अब तुम अंधे की तरह पीछे चल
पड़े। अब तुमने किसी और के जीवन को अपने ऊपर ओढ़ लिया। अब तुमने अपनी आत्मा
को तो दबाया, और किसी और के होने के ढंग को अपने ऊपर बिठा लिया जबरदस्ती।
जबरदस्ती जरूरी है, क्योंकि दूसरे का ढंग दूसरे का ढंग है। तुम्हें पता
है, अगर दूसरे का खून भी तुम्हें दिया जाए तो वह भी तुम्हारे टाइप का ही
होना चाहिए। नहीं तो शरीर उसे भी फेंक देता है। तुम्हें पता है कि अगर
तुम्हारे पैर पर घाव हो जाए और चमड़ी लगानी हो तो तुम्हारे ही हाथ की या
शरीर की चमड़ी निकालनी पड़ती है। किसी दूसरे की चमड़ी तुम लगा दो, वह लगेगी
नहीं। शरीर उसे इनकार कर देगा। जब शरीर तक इतना चुनाव करता है तो आत्मा का
तो कहना ही क्या! जब शरीर तक पहचान रखता है कि जो अपने जैसा है, जो मेरा ही
है, उसी को स्वीकार करूंगा, अंगीकार करूंगा, तो आत्मा की तो अपेक्षा बहुत
बड़ी है, आत्यंतिक है।
तुम समझना, सीखना, देखना, स्वाद लेना। उसी स्वाद, समझ और सीखने से
तुम्हारी अपनी अंतर्ज्योति जगने लगेगी। उस अंतर्ज्योति के प्रकाश में ही
तुम पहुंच सकोगे। दूसरे का प्रकाश न कभी किसी को ले गया है, न ले जा सकता
है। वह दूसरे का है। वह कितना ही प्रकाशित मालूम पड़े, उससे अंधकार नहीं
मिटेगा। यह बात समझ में आ जाए तो फिर मैं जो बहुत सी बातें कह रहा हूं वे
तुम्हारे सामने साफ हो जाएंगी।
हालांकि तुमने बहुत चाहा होगा कि कोई सुगमता से सूत्र दे दे, बता दे कि
यह करो। तुम इतने काहिल, सुस्त, आलसी हो कि तुम जीने के संबंध में भी किसी
दूसरे की लीक पर चलना पसंद करोगे। कौन झंझट में पड़े सोचने के? विचार का
उपद्रव कौन ले? इतना भी बुद्धि को कौन लगाए? कोई बता दे मार्ग, हम चल पड़ें।
तुम यह मत समझना कि यह तुम्हारी श्रद्धा से हो रहा है। नहीं, यह
तुम्हारे प्रमाद और आलस्य से हो रहा है। तुम चाहते हो, कोई हमें झंझट से
बचा दे–सोचने की, विचारने की, साधना की, ध्यान की। कोई कह दे सीधा-साधा, यह
करो, और हम कर लें। जिम्मेवारी छूट जाए।
तुम अंधे होने को उत्सुक हो; क्योंकि आंखें खोलने में पीड़ा होती है, और
समझ को बढ़ाने में श्रम लगता है। समझ मुफ्त नहीं मिलती। और सत्य की खोज पूरे
जीवन को एक क्रांति से गुजारना है, एक अग्नि से गुजारना है।
तुम चाहोगे दूसरे की बुझी राख में लोटना। तुमने देखे हैं, अनेक भभूत
लगाए बैठे हुए हैं सारे मुल्क में। वे सब दूसरों की राख में लोट कर भभूत
लगा रहे हैं। दूसरे के द्वारा लिया गया आदर्श बुझी हुई अंगार जैसा है, राख
है। कभी वहां अंगार रही होगी; वह जा चुकी है। और जिसके लिए थी उसके लिए थी;
तुम्हारे लिए वह अंगार राख है। तुम्हें अपने ही अंगार जलाने होंगे; अपनी
ही सजानी पड़ेगी यज्ञशाला; अपने ही जीवन का घृत डालना होगा।
वह मंहगा सौदा लगता है; तुम सस्ते में निबटना चाहते हो। तुम चाहते हो,
हमें झंझट न करनी पड़े; कोई सीधा बता दे कि ऐसा करो, ऐसा उठो, ऐसे खाओ, ऐसे
पीओ, ऐसे चलो। निबटारा हो जाए; जिम्मेवारी दूसरे की हो जाए।
जिम्मेवारी दूसरे पर मत टालना, क्योंकि अंततः तुम्हीं पूछे जाओगे। तुमसे
ही पूछा जाएगा; और कोई उत्तरदायी नहीं है। परमात्मा अगर पूछेगा तो तुमसे
पूछेगा कि कहां गंवाए जीवन? कहां खोया सारा अवसर? तब तुम यह न कह सकोगे कि
हम दूसरे जैसे बनने की कोशिश में लगते रहे।
ताओ उपनिषद
ओशो
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