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Monday, October 5, 2015

परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो

बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्‍नी छोड़ दी, प्‍यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्‍यों छोड़ रहे हो, तो उन्‍होंने कहां: ‘जहां कुछ भी स्‍थाई नहीं है,वहां रहने का क्‍या प्रयोजन? बच्‍चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्‍चे का जन्‍म उसी रात हुआ था। उसके जन्‍म के कुछ घंटे बाद ही उन्‍होंने उसे अंतिम बार देखा। अपनी पत्‍नी के कमरे में गये। पत्‍नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्‍चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्‍होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्‍चे के जन्‍म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहां, क्‍या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्‍चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है। और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्‍या प्रयोजन है सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।

जब किसी ने पूछा कि आपने क्‍यों सब कुछ छोड़ दिया? मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्‍वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्‍त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्‍य है। अगर कुछ शाश्‍वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्‍य है। अन्‍यथा सब व्‍यर्थ है।
यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है: परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।

बुद्ध कभी दूसरा हिस्‍सा नहीं कहते। यह दूसरा हिस्‍सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे। कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। और तुम्‍हें आसक्‍ति नहीं होगी। और जब आसक्‍ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्‍य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्‍य है। शाश्‍वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।

इस लिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है। स्‍थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।

तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्‍त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्‍या है? उसे घटित होने दो। और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत। भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्‍यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्‍या है?
आसक्‍ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही हे। उसके साथ बहो। तेरो भी मत। नदी को ही तुम्‍हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ों मत; उससे लड़ने से तुम्‍हारी शक्‍ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो।

इससे क्‍या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके; बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्‍हारी दिशा हो जाए, तो तुम्‍हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, तुम्‍हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्‍हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्‍हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।

यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्‍योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत;क्‍योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। उसे जीओं। कोई चुनाव मत करो।

दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है। दोनों व्‍यर्थ है। इससे भागने को। वह बदल ही रहा है। तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोर गूल क्‍यो?

विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो 

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