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Sunday, October 4, 2015

ज़ेन बोध कथा

बुद्ध रोज बोलते रहे। जो उन्होंने रोज बोला, वही उन्होंने इस सुबह के प्रवचन में भी बोला। आकर बैठे। सुननेवाले लोग आये थे। एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने पंख फड़फड़ाये। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। बुद्ध उस पक्षी को देखते रहे–बैठते, फड़फड़ाते, गीत गाते, उड़ जाते। और फिर उन्होंने कहा, ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’ उस दिन वे कुछ भी न बोले। पर उन्होंने कहा कि ‘आज का प्रवचन पूरा हुआ।’

और यह उनके गहरे से गहरे प्रवचनों में से एक है। इतना ही तो बुद्ध कहते हैं कि संसार तुम्हारा वातायन है। उस पर तुम बैठो, पर उसे तुम घर मत बना लो। वहां तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठकर कहीं पंखों का फड़फड़ाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिये खो जाएगा। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो पंखों की क्षमता खो जाती है। पक्षी भी बहुत देर बैठा रह जाए, तो शायद भूल ही जाए कि उसके पास पंख भी हैं। क्योंकि क्षमताएं हमें वही याद रहती हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं।

जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे विस्मरण हो जाती हैं। और जिनका हम उपयोग नहीं करते, वे धीरे-धीरे निष्क्रिय हो जाती हैं। और उनकी क्षमता खो जाती है। तुम अगर चलो न, थोड़े ही दिन में पैर पंगु हो जाएंगे। तुम अगर अंधेरी कोठरीयों में ही रहो और देखो न, तो आंखें जल्दी ही अंधी हो जाएंगी। तुम अगर शब्द ही न सुनो, अगर तुम्हारे कान पर कोई ध्वनि तरंगित ही न हो, तो जल्दी ही तुम बहरे हो जाओगे। तुम जो नहीं करोगे, उसकी करने की क्षमता खो जाएगी।

कितने जन्म हुए, जब से तुम उड़े नहीं! तुमने पंख नहीं फड़फड़ाए। कितना समय बीता, जब से तुम खिड़की पर बैठे हो और तुमने खिड़की को घर समझा; जब से तुम द्वार को ही महल समझकर रुक गए! पड़ाव के लिए रुके थे इस वृक्ष के नीचे, लेकिन कितना समय बीता, तब से तुमने इसे ही घर मान लिया है! पंख फड़फड़ाओ। अगर बुद्धों के पास तुम पंख फड़फड़ाना न सीखो तो और कुछ सीखने को वहां है भी नहीं।

यही तो प्रवचन है: यही उनका संदेश है, कि तुम उड़ सकते हो मुक्त आकाश में। तुम मुक्त गगन के पक्षी हो। तुम व्यर्थ ही डरे हो। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं। तुम पैरों से चल रहे हो। तुम आकाश में उड़ सकते थे। थोड़ा फड़फड़ाओ ताकि तुम्हें भरोसा आ जाए।

ध्यान फड़फड़ाहट है पंखों की; उन पंखों की जो उड़ सकते हैं, दूर आकाश में जा सकते हैं।

ध्यान सिर्फ भरोसा पैदा करने के लिए है ताकि विस्मृति मिट जाए; स्मृति आ जाए। संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया है–सुरति। सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाए। जो भूला है, उसका खयाल आ जाए। तुमने कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम सकते भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास पंख हैं, खो कैसे सकेगा? और कितने ही जन्मों तक न उड़े, तो भी अगर उड़ने का खयाल आ जाए, तो पुनः उड़ सकता है।

और जब इस पक्षी को बुद्ध ने देखा पंख फड़फड़ाते, तब वे यही कह रहे थे कि तुम भी स्मरण करो पंखों को। तुम जहां बंद हो, वहां किसी ने तुम्हें बंद नहीं किया; वहां तुम अपनी ही विस्मृति के कारण बंद हो। तुम भेड़ नहीं हो, तुम सिंह हो। देखो इस पक्षी को, इस मुक्त आकाश में उड़ते पक्षी को! और पक्षी गीत गाया और उड़ गया।

गीत केवल उन्हीं के जीवन में हो सकते हैं, जिनके जीवन में स्वतंत्रता की संभावना है। परतंत्रता के कैसे गीत? पक्षी गाते हैं, गा सकते हैं, क्योंकि उड़ सकते हैं। आदमी का गीत खो गया, नृत्य खो गया। परतंत्रता में कैसा गीत? कैसा नृत्य? कैसी खुशी? कैसा आनंद? आदमी उदास है। उदासी का पत्थर उसकी छाती पर रखा ही रहता है। तुम मुस्कुराते भी हो तो भी तुम्हारी मुस्कुराहट सिर्फ उदासी की खबर देती है। तुम्हारे ओंठ मुस्कुराते हैं, लेकिन कोई उनमें गहरे देखे तो वहां भी आंसू छिपे हैं। तुम चलते हो लेकिन ऐसे, जैसे न मालूम कितनी जंजीरें तुम्हारे पैरों में बंधी हों। नृत्य नहीं है वहां। तुम नाच तो सकते ही नहीं; क्योंकि नाच तो वही सकता है, जिसे भीतर की परम स्वतंत्रता का अनुभव हुआ हो। नृत्य तो एक उत्सव है, एक धन्यवाद है। मीरा ने कहा है, ‘पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।’ लेकिन पैरों में घुंघरू तभी बांधे जा सकते हैं, जब आत्मा की भनक पड़ी हो। उसके बिना कोई गीत नहीं। उसके बिना जीवन एक बोझ है, एक संताप, एक दुख, एक…एक दुखस्वप्न है; और बड़ा लंबा दुखस्वप्न है। जिससे जागने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता; जिससे हटने का कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता।

पक्षी ने गीत गाया।

खुला आकाश सामने था, पंख पास थे। गीत गाने में और चाहिए क्या? पंख हों और खुला आकाश हो। अंतहीन आकाश हो और अंतहीन उड़ने की क्षमता हो; और गीत के लिए चाहिए क्या? तुम्हारे भीतर भी गीत उस दिन उठेगा, जिस दिन तुम भी पंख फैलाओगे और खुले आकाश में उड़ जाओगे।

कभी तुमने देखा है सांझ को, आकाश में उड़ते हुए अबाबील? उड़ते भी नहीं, पंखों तक को ठहराकर तिरते हैं। उनके तिरने में ही ध्यान है। सांझ को आज देखना, जब अबाबील अपनी ऊंचाइयों से उतरने लगें, तब वे तैरते तक नहीं; तब वे उड़ते ही नहीं। तब श्रम बिलकुल नहीं है, सिर्फ हवा पर पंख फैलाकर ठहरे होते हैं। उस क्षण में, जिसको गीता स्थितप्रज्ञ कहती है, वैसी उनकी चित्त-दशा होती होगी।

जिस दिन तुम भी खुले आकाश में बिना किसी प्रयत्न के उड़ पाओगे, उस दिन नृत्य पैदा होगा। उस दिन गीत का जन्म होगा। उस दिन तुम धन्यवाद दे सकोगे।

बिन बाती बिन तेल 

ओशो


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