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Monday, October 5, 2015

जीवन सुनिश्चित नहीं है

वे जो बड़े पदों की खोज में, बड़े धन की खोज में, बड़े यश की खोज मे लोग लगे है, वे सिर्फ सुरक्षा रहे हैं। भीतर एक भय है। इतंजाम कर लेना चाहते हैं। भीतर एक दीवाल बना लेना चाहते हैं, कोई डर नहीं है कल बीमारी आये, गरीबी आये, भिखमंगी आये, मृत्यु आये कोई डर नहीं है। सब इतंजाम किये लेते हैं। और लोग ऐसा इंतजाम करते हैं, कुछ लोग भीतरी इंतजाम करते हैं!

रोज भगवान की प्रार्थना कर रहे है कि कुछ भी हो जाये। इतने दिन तक जो चिल्लाये है, वह वक्त पर पड़ेगा। इतने नारियल चढ़ाये, इतनी रिश्वत दी, वक्त पर धोखा दे गये हो? 

भय में आदमी भगवान को भी रिश्वत देता रहा है!

और जिन देशो मे भगवान को इतनी रिश्वत दी गयी हो, उन देशों में मिनिस्टर रूपी भगवानों को रिश्वत दी लगी हो तो कोई मुश्किल है, कोई हैरानी है? और जब इतना बड़ा भगवान रिश्वत ले लेता हो तो छोटे मिनिस्टर ले लेते हों तो नाराजगी क्या है? भय है, भय की सुरक्षा के लिए हम सब उपाय कर रहे है। क्या ऐसे कोई आदमी अभय हो सकता है? क भी नहीं। अभय होने का क्या रास्ता है? सुरक्षा की व्यवस्था अभय होने का रास्ता नहीं है।

असुरक्षा की स्वीकृति अभय होने का रास्ता है, ‘ए टोटल एक्सेऐंस आफ इनसिक्योरिटी, जीवन असुरक्षित’ इसकी परिपूर्ण स्वीकृति मनुष्य को अभय कर जाती है।

मृत्यु है, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है, उससे भागने का कोई उपाय नहीं है वह है। वह जीवन का एक तथ्य है। वह जीवन का ही एक हिस्सा है। वह जन्म के साथ ही जुड़ा है।

जैसे एक डंडे में एक ही छोर नहीं होता, दूसरा छोर भी होता है। और वह आदमी पागल है, जो एक छोर स्वीकारे और दूसरे को इनकार कर लेता है। सिक्‍के में एक ही पहलू नहीं होता है, दूसरा भी होता है। और वह पागल है, जो एक को खीसे में रखना चाहे और दूसरे से छुटकारा पाना चाहे। यह कैसे हो सकेगा?

जन्म के साथ मृत्यु का पहलू जुडा है। मृत्यु है, बीमारी है,असुरक्षा है; कुछ भी निश्‍चित नहीं है, सब अनसर्टेन है। 

जिंदगी ही एक अनसटेंनटी है, जिंदगी ही एक अनिश्‍चित है।

सिर्फ मौत एक निश्‍चित है। मरे हुए को कोई डर नहीं रह जाता। जिंदा में सब असुरक्षा है। कदम—कदम पर असुरक्षा है।

जो क्षण भर पहले मित्र था, क्षण भर बाद मित्र होगा, यह तय नहीं है। इसे जानना ही होगा, मानना ही होगा। क्षण भर पहले जो मित्र था, वह क्षण भर बाद मित्र होगा, यह तय नहीं है। क्षण भर पहले जो प्रेम कर रहा था, वह क्षण भर बाद फिर प्रेम करेगा, यह निश्‍चित नहीं है। क्षण भर पहले जो व्यवस्था थी, वह क्षण भर बाद नहीं खो जायेगी, यह निश्‍चित नहीं है। सब खो सकता है, सब जा सकता है, सब विदा हो सकता है। जो पत्ता अभी हरा है, वह थोड़ी देर बाद सूखेगा और गिरेगा। जो नदी वर्षा में भरी रहती है, थोड़ी देर बाद सूखेगी और रेत ही रह जायेगी।

जीवन जैसा है उसे जान लेना, और जीवन में जो अनिश्‍चित है, उसका परिपूर्ण बोध और स्वीकृति मनुष्य को अभय कर देती है। फिर कोई भय नहीं रह जाता।

सम्भोग से समाधी ओर 

ओशो 

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